उत्तराखंड बना देश का पहला प्रदेश जो जीईपी लागू करेगा
समय-समय विकास को एक नई परिभाषा देने हेतु कई योजनाएं या परिकल्पनाए दी जाती रही है। देश को आर्थिक विकास तो जीडीपी से कई हद तक आंकलित किया जा सकता है। परन्तु इसमे कुछ खामिया है, हालांकि अभी तक यह आंकलन देशों द्वारा अपनाया जाता रहा है। उसके बाद मानव विकास सूचकांक की धारणा आयी जिसमे, तीन अलग-अलग फेक्टर के तहत, यह और व्यापक हो जाता है। शुरू में यह माना गया कि इससे हम सही विकास का मापन कर सकते है। परन्तु इसमें भी कई खामियां है। अभी तक हमने जितने फार्मूले अपनाये है वे सब इंसानी विकास का सूचक है। जबकि अगर बात की जाय विकास की तो उसमे सबसे अहम रोल होता है संसाधनों का भी है जो कि हमे पारिस्थितिक तंत्र से उपलब्ध होते है। लेकिन समय-समय पर पर्यावरणविदों द्वारा उठाई जा रही आवाजों को शायद अब ज्यादा समय के लिए दबाना किसी भी देश की सरकार के लिए आसान नहीं होने वाले पिछले एक दशक मे लोग जितने जागरूक पर्यावरण बचाने को लेकर हुए है उसे देखकर तो यही लगता है। इसी क्रम में भारत में पर्यावरणीय विषय को लेकर एक ऐतिहासिक फैसला लेते हुए उत्तराखंड की सरकार ने निर्णय लिया है कि आगामी वर्षों में वह जीडीपी एवं ग्रीन जीडीपी के ही तर्ज पर जीईपी का भी आंकलन करेगा। जिससे आगामी वर्षों में सतत विकास के लिए सहायता मिलेगी।सरकार द्वारा लिये फैसले के बाद इस मुहिम को जोर देने वाले पर्यावरणविद हैस्को के संस्थापक निदेशक डॉ.अनिल जोशी इस पर कहा-
जीईपी पर कांसेप्ट नोट तैयार होने के बाद यह तस्वीर और खुलकर सामने आएगी। फ्रेमवर्क हैस्को ने तैयार कर लिया था। प्रदेश का नियोजन विभाग भी अब इस मुहिम में शामिल है। केंद्र सरकार और विशेषज्ञों का भी सहयोग मिल रहा है। उत्तराखंड देश का पहला राज्य होगा जो सफलतापूर्वक इस अवधारणा को लेकर आएगा।
क्या है ग्रीन जीडीपी
यदि जीडीपी मे से पर्यावरणीय क्षति को घटा दिया जाय तो इसे ग्रीन जीडीपी के रूप मे व्यक्त किया जा सकता है। ग्रीन जीडीपी की अवधारणा सार्वजनिक और निजी निवेश करते समय इस बात को ध्यान में रखने के लिया किया गया। जिससे कार्बन उत्सर्जन और प्रदूषण कम से कम हो, ऊर्जा और संसाधनों की उत्पादकता पर कम प्रभाव पडे जिससे कि जैव विविधता में नुकसान कम से कम हो। सीधे तौर ग्रीन जीडीपी को ऐसे समझ सकते है कि जब किसी क्षेत्र जिसके संदंर्भ में बात की जा रही है मुख्यतः किसी देश या प्रदेश के कुल जीडीपी से पर्यावरण को हुए नुकसान को घटाने पर जो आर्थिक आंकडा आएगा वही ग्रीन जीडीपी है।जीईपी क्या है
मानव के अस्तित्व और विकास के लिए पारिस्थितिक तंत्र एक उत्पाद और सेवाएं के रूप मे अति आवश्यक हैं। जहां उत्पाद के रूप के खनिज संसाधन, जड़ी बूटी आदि आते है वही इसकी सेवाओ में जीवनदायिनी आॅक्सीजन, जीवनरक्षक ओजोन आदि गैसें आती है जीईपी (सकल पर्यावरणीय उत्पाद) एक विशेष अवधि में किसी क्षेत्र विशेष के पारिस्थितिक तंत्र के उत्पादों और सेवाओं के कुल आर्थिक मूल्य है। जो उस क्षेत्र के लोगो को उस अवधि के दौरान आपूर्ति होती है, और इसे जैव-मूल्य और मौद्रिक मूल्य के रूप में मापा जा सकता है। पारिस्थितिक तंत्र को प्राकृतिक व कृत्रिम पारिस्थितिकी तंत्र के रूप मे देखा जाता है, प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र जिसमें वन, चारागाह, आर्द्रभूमि, रेगिस्तान, मीठे पानी और महासागर शामिल हैं, जबकि कृत्रिम पारिस्थितिकी तंत्र जिसमें प्राकृतिक प्रक्रियाओं को कृत्रिम रूपांतरण के बाद उपयोग मे लाये गये संसाधनो को रखा जाता है जैसे कि खेत, फार्म, जलीय कृषि फार्म और शहरी भूमि, आदि पर आधारित हैं। इस बारे में अर्थशास्त्रीयों का मानना है कि यह एक व्यापक अध्ययन करेगा और सही मायने सतत विकास के लिए एक मार्गदर्शक का काम भी करेगा।क्या अंतर ग्रीन जीडीपी और जीईपी में
किसी देश या प्रदेश के कुल जीडीपी से पर्यावरण में हुए नुकसान को घटाने पर जो आर्थिक आंकडा आता है उसे ग्रीन जीडीपी कहते है, इसमे मुख्यतः पर्यावरण व उसके कुछ घटकों ह्यस का विवरण लिया जाता है। जबकि जीईपी ग्रीन जीडीपी से व्यापक है इसमें पारिस्थितिकीय तंत्र के सभी घटकों जैसे हवा, पानी, मिट्टी, ग्लेशियर आदि में एक विशेष अवधि सामान्यतः एक साल में हुए सुधार का आकलन किया जाना है, न कि ह्यस का। साफ है कि जीईपी यह बताएगी कि देश या प्रदेश ने पर्यावरणीय संसाधनों का उपयोग करने में हो रहे पारिस्थितिकीय तंत्र (जिसमें इसके सभी घटक आते है) का नुकसान कम करने के लिए कितना प्रयास किया है।उत्तराखंड में जीईपी की मांग
जीईपी की मांग समय-समय देश के भिन्न-भिन्न राज्यों में उठती रही है जिसमें उत्तराखंड भी शामिल था, इसकी मांग के पीछे कई कारण है वर्ष 2013 में उत्तराखंड के इतिहास में सबसे भयंकर प्राकृतिक आपदा के कारण भारी हानि हुई, जिसका सबसे ज्यादा प्रभाव केदारनाथ घाटी पर पडा। इसी आपदा के बाद प्रदेश मे कई पर्यावरणविदों में जीईपी लागू करने हेतु पहल की थी। और उस पर जोर देते हुए तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने नोबल पुरस्कारी सुरेश पचैरी की अध्यक्षता में एक समिति का गठन भी किया था। कुछ समय तक इस पर काम चला और बैठके भी हुई। मगर इस दिशा में कुछ खासा काम हो नही पा रहा था, धीरे-धीरे यह काम कागजो पर ही दबा रह गया। हालांकि अपनी ओर से हैस्को के संस्थापक निदेशक पद्मभूषण डॉ.अनिल प्रकाश जोशी ने इसे अपने ओर से जारी रखा। कई अन्य कारणों जैसेे इस साल जनवरी में जारी ग्रीनपीस की एक रिपोर्ट को भी माना जा रहा है, जिसके अनुसार, देहरादून शहर मे प्रदूषण विश्व स्वास्थ्य संगठन के निर्धारित मानकों से लगभग 11 गुना अधिक प्रदूषित है, जो कि कानपुर से भी बदतर स्थिति मे है। इसी रिपोर्ट मे कहा गया है कि पीएम 10 के स्तर के आधार पर देहरादून शहर भारत के 287 शहरों में से 15वे नंबर का वायु प्रदूषण शहर है जिसमे पीएम 10 का स्तर 217 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर है जबकि कानपुर शहर वर्ष 2018 के लिए 210 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर पीएम 10 के स्तर के साथ 17 वें स्थान पर रहा था। इस रिपोर्ट से अंदाजा लगाया जा सकता है कि अगर अभी पर्यावरण को लेकर कोई ठोस कदम नही उठाए गये तो आने वाले दिनों में उत्तराखंड पर भी ग्लोबल वार्मिंग के साथ साथ अन्य प्राकृतिक आपदाओं का खतरा बढ़ने की संभावना कितनी है।वही दूसरी ओर उत्तराखंड सरकार के खुद के आंकडे के अनुसार वर्ष 2016-17 में प्रतिदिन 272.22 टन प्लास्टिक उत्पन्न हुआ था जो अगर कंट्रोल नही किया गया तो वर्ष 2041 तक यह आंकडा लगभग 180 प्रतिशत बढ़कर 457.33 टन प्रतिदिन हो सकता है जो कि उत्तराखंड पर्यावरण संरक्षण और प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (यूईपीपीसीबी) ने वर्ष 2018 में जारी किया था।
उत्तराखंड पर्यावरण संरक्षण और प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (यूईपीपीसीबी), की स्थापना 1 मई 2002 को देहरादून में की गयी थी और इसके 4 क्षेत्रीय कार्यालय देहरादून, रूडकी, हल्द्वानी और काशीपुर, में भी है।
बैठक कब और कहा हुई
5 मार्च 2020 को भारतीय वन्य जीव संस्थान में प्रधानमंत्री के मुख्य वैज्ञानिक सलाहकार प्रोफेसर के. विजय राघवन की अध्यक्षता में हुई बैठक में जीईपी को उत्तराखंड में आगे बढ़ाने पर सहमति बनी थी। बैठक में भाग लेने वालों में प्रोफेसर के0 विजय राघवन, उत्तराखंड के मुख्य सचिव, उत्तराखंड के वन विभाग के प्रमुख सचिव, हैस्कों के डॉ. अनील जोशी आदि प्रमुख विद्धान शामिल हुए थे।
जीईपी के लक्ष्य तय करने, सुझाव देने, दायित्व आदि के आधार पर कांसेप्ट नोट तैयार कर उत्तराखंड के वन विभाग के प्रमुख सचिव आनंद वर्द्धन को सौंपा गया। इस कार्य के लिए 3 सदस्यीय समिति का गठन किया गया जिसकी अध्यक्षता सचिव आनंद वर्धन को सौपा गया।
कौन-कौन से फेक्टर शामिल किये जा सकते है जीईपी मे
जीईपी का आंकलन करने में निम्न फेक्टरो को शामिल किये जाने का प्रावधान है।हवा - हवा की गुणवत्ता, हवा में पीएम 2.5, पीएम 5, पीएम 10 आदि सूक्ष्म कणों की मात्रा, वायु प्रदूषण, प्रदूषण कितना कम हुआ आदि।
पानी - जल प्रदूषण, उपलब्ध पानी की मात्रा, कितना पानी रिचार्ज किया गया (प्राकृतिक जल को मिलाकर), बारिश का पानी कितना बचाया गया, भूजल आदि।
मिट्टी - सतह की मिट्टी की गुणवत्ता व मिट्टी की गहराई, कितने हानिकारक तत्व कम हुए, वन भूमि की मिट्टी की गुणवत्ता आदि।
जंगल - वन क्षेत्र, वन आवरण, पौधरोपण, पौधों के जीवित रहने की दर, जैव विविधता, वन उपज आदि।
क्या है हैस्को (हिमालयन एनवायरनमेंटल स्टडीज एंड कंजर्वेशन ऑर्गनाइजेशन)
HESCO (हिमालयन एनवायरनमेंटल स्टडीज एंड कंजर्वेशन ऑर्गनाइजेशन) HESCO को वर्ष 1979 मे डाॅ0 अनिल प्रकाश जोशी ने शुरू किया था। यह संस्था गांवों के विकास कार्य आधारित योजनाए बनाती है। इसके संस्थापक डाॅ0 अनिल प्रकाश जोशी का मानना है कि गांवों में प्रचुर मात्रा में संसाधन है और उन्ही का उपयोग करके गांवों के जरूरतों को ध्यान में रखकर विकास कार्य व गांवो को आत्मनिर्भर करने का कार्य किया जा सकता है।HESCO, SEED, विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग, भारत सरकार नई दिल्ली का एक मुख्य सहायता समूह है
SEED जो विभिन्न क्षेत्रों यानी कृषि, बागवानी और ऊर्जा में अनुसंधान और विकास एवं सतत विकास जैसी गतिविधियों को देखता है को फरवरी 2001 में मे स्थापित किया गया था।
SEEDS-Socio Economic and Educational Development Society
डाॅ0 अनिल प्रकाश जोशी
अनिल जोशी पर्यावरणविद् और सामाजिक कार्यकर्ता हैं। उनका जन्म स्थान उत्तराखंड के पौड़ी जिला के कोटद्वार में हुआ। उन्होने 1979 में हिमालयन पर्यावरण अध्ययन एवं संरक्षण संस्थान (हैस्को) के नाम से एनजीओ बनाया, जो वर्ष 1983 में पंजीकृत हुआ। जोशी ने संस्था के माध्यम से पर्यावरण के संरक्षण और विकास के साथ कृषि क्षेत्र में शोध और अध्ययन किए। पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए भारत सरकार ने उन्हें वर्ष 2006 में पद्मश्री और वर्ष 2020 मे तीसरा बड़ा सम्मान पद्म भूषण प्राप्त हुआ। इसके अलावा उन्हे जमनालाल बजाज अवॉर्ड (2006), द वीक मैगजीन द्वारा वर्ष 2002 का मैन ऑफ द एयर आदि कई अवार्ड से सम्मानित किया जा चुका है।डाॅ. अनिल प्रकाश जोशी ने सकल पर्यावरण उत्पाद (जीईपी) के सिद्धांत के तहत ग्लेशियर, नदी और वन में सुधार का आकलन प्रदेश की आर्थिकी के हिसाब से करने का दिया है तथा साथ ही कहा है कि जंगल, जल, हवा और मिट्टी को पैदा करने वाले पर्यावरण को भी उद्योग का दर्जा मिलना चाहिए। इससे पारिस्थितिकी में सुधार आएगा और हिमालय की आर्थिकी में नए आयाम जुड़ेंगे।
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