निवेशकों को भारत के वजाय वियतनाम व थाईलैंड पसंद क्यों
इस समय जब दुनिया कोरोना वायरस कोविड-19 की मार झेल रही है ऐसे में अर्थव्यवस्था में तो इसका असर पडा ही है, अंदेशा लगाया जा रहा है कि वैश्विक महामंदी भी दस्तक दे रहा है। चीन से इस वायरस की शुरूआत होने के कारण व अमेरिका एंव चीन के बीत में हो रही ट्रेड वार के कारण, कई बडी कंपनियों ने जो कि चीन में निर्माण कार्य कर रही है चीन छोडकर अन्य देशों की ओर निमार्ण स्थापित करने हेतु देख रही है इनमे से कुछ तो शिफ्त भी हो चुकी है। पिछले एक वर्ष में लगभग 60 कंपनियो ने अपना रूख अन्य देशों की तरफ किया। जिस देशों मे इनका मैन्यूफैक्चरिंग स्थापित किया है उनमें मुख्यतः दक्षिण एशिया के देशो विशेषतः वियतनाम, थाइलैंड जबकि अन्य ताइवान की ओर शिफ्ट हो रही है। ऐसे मे हमारे मन मे इस बात को जानने के इच्छा होती है कि भारत जैसे देश जिसकी अर्थव्यवस्था विश्व में 5वें स्थान पर है एंव जनसंख्या दूसरे नबंर की है तो ये कंपनिया भारत आने के बजाय तुलनात्क रूप से छोटी अर्थव्यव्स्था की ओर क्यों रूख कर रही है। इसके पीछे कई कारण हो सकती है, जैसे कि चीन से कच्चे माल की सुविधाजनक आपूर्ति जैसा चीन ने पिछले 30-35 साल में अपने देश में उत्तम प्रकार की सप्लाई चेन व्यवस्था व इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलेप किया है। जिस कारण वियतनाम जैसे चीन के नजदीक देशों में इन कंपनियो को चीन का कच्चा माल कम कीमत मे प्राप्त हो जाता है। इसके अलावा एक जो अन्य प्रमुख कारण है वह है कि भारत की मुद्रा का अस्थिरत बना रहना। मुद्रा संबंधी बातो को जानते हुए जानते है क्या किन कारणों का इसमे प्रभाव पडता है।
क्या आप जानते है कि किसी विशेषता के कारण कोविड-19 या इस प्रकार के अन्य वायरस का नाम कोरोना पढ़ा। किसी भाषा का शब्द है कोरोना
भारतीय मुद्रा का इतिहास
करेंसी या मुद्रा जिसे वर्तमान रूप में पैसे या धन के उस रूप से समझा जा सकता है जिससे दैनिक जीवन में वस्तुओ एंव सेवाओ का क्रय और विक्रय होता है। इसमें सिक्के और कागज के नोट दोनों आते हैं। कुल मिलाकर यह एक ऐसी व्यवस्था है जिसे प्रतिकात्मक रूप दिया गया है। इस प्रकार, मुद्रा से अभिप्राय कोई भी वह वस्तु है जो सामान्य रुप से विनियम के माध्यम, मूल्य के माप, धन के संचय तथा ऋणों के भुगतान के रुप में स्वीकार की जा सकती है। प्राचीन काल से ही मुद्रा का प्रयोग किसी न किसी रूप मे किया जाता रहा है, जिसे आर. आयंगर जैसे इतिहासकारों ने राजसत्ता के प्रतीक के रूप बताया था। मौर्य काल मे लिखित अर्थशास्त्र में इसका वर्णन भी है। इसकी शुरूआत संभवतः उस समय से माना जाता है जब राज्यों का विस्तार हुआ और व्यापार में बढोतरी हुई। इसकी शुरूआत की दुनिया के किस भाग से हुई इसके बारे में विद्धानो के कई मत है। कुछ विद्वानों जैसे विल्सन और प्रिंसेप का मानना है कि विदेशी प्रभाव से ही भारत मे मुद्राओं का प्रचलन हुआ। प्राचीन भारतीय सिक्को जिनको ‘कार्षापण’ अथवा ‘आहत’ कहा जाता है, और इनके अध्ययन से पता चला कि इन मुद्राओं की पश्चिमी क्षेत्रों से कोई संबंध नही था। इस आधार पर जान एलन का मानना है कि मुद्रा का प्रचलन भारत से ही हुआ होगा।
वर्ष 1947 में एक डालर, एक रूपये के बराबर था जो कि आज 76.1606 रूपये के बराबर हो गया है
अवमूल्यन या डिवल्यू आॅफ करेंसी
अवमूल्यन का अर्थ है घरेलू करेंसी का अंतरराष्ट्रीय बाजार मे मूल्य में कमी जबकि घरेलू बाजार मे मूल्य स्थिर रहता है। एक देश अपने भुगतान संतुलन को ठीक करने के लिए अपनी मुद्रा के अवमूल्यन करता है। आजादी के बाद भारत ने 3 बार 1947, 1966, 1991 में भारतीय रुपये का अवमूल्यन किया है।
आधुनिक मुद्रा
अगर सामान्यतः किसी वस्तु विशेष की बात की जाय तो उसकी कीमतों में उछाल या गिरावट उसकी मांग या पूर्ति के आधार पर ही तय होगा। जैसे उस वस्तु की मांग ज्यादा होगे पर उसकी कीमत का ज्यादा होना, व मांग कम होने पर कीमत का भी कम होना। ठीक उसी प्रकार करेंसी भी है जिसकी मांग बढने पर कीमत बढती है और मांग घटने पर कीमत घटती है। अतः यह पूरी तरह से बाजार द्वारा नियत्रित होती है। हांलांकि किसी देश विशेष की करेंसी की बात की जाय तो उसकी मुद्रा में मांग एंव पूर्ति के साथ कुछ अन्य फेक्टर भी होते है जैसे किस प्रकार का ऐक्सचेंज रेट से उसकी मुद्रा जुडी है।
‘एक्सचेंज रेट’
वर्तमान समय में पूरी दुनिया कि अर्थव्यवस्था (देश की मुद्रा) एक दूसरे से जुडी हुई है, ऐसे में दुनिया के किसी एक देश में हुए आर्थिक परिर्वतन का असर दूसरे देशों में भी देखा जा सकता हैं। आज ‘एक्सचेंज रेट’ के द्वारा सभी देशों की मुद्रा का एक दूसरे से संबंध है। साधारण भाषा में ‘एक्सचेंज रेट’ वह रेट या दर है जिससे एक देश की मुद्रा को किसी अन्य देश की मुद्रा से बदली जा सकती है। अधिकांश देशों में एक्सचेंज रेट को दशमलव के बाद चार अंकों तक लिखते हैं। जैसे वर्तमान मे 1 अमेरिकी डाॅलर 76.1606 रूपये के बराबर है। साधारण अर्थों में एक्सचेंज रेट में दो करेंसी भाग लेती है। पहला वह जिसमे विनिमय करना होता है यानी बेस करेंसी। दूसरा है काउंटर करेंसी, जिससे विनिमय करते है। यह दो प्रकार से व्यक्त की जा सकती है। पहले प्रकार मे बेस करेंसी किसी अन्य देश की होती है व काउंटर करेंसी घरेलू करेंसी होती है। जबकि दूसरे प्रकार में इससे उल्टा, घरेलू करेंसी बेस करेंसी होती है और किसी अन्य देश की करेंसी काउंटर करेंसी। अधिकांशतः वैश्विक अर्थव्यवस्था में एक्सचेंज रेट व्यक्त करते समय डॉलर को बेस करेंसी के तौर पर माना जाता है।
बडे पैमाने पर एक्सचेंज रेट दो प्रकार के हो सकते हैं- स्पॉट एक्सचेंज रेट यानी आज के दिन विदेशी मुद्रा का मूल्य और फॉरवर्ड रेट यानी भविष्य में किसी तारीख के लिए एक्सचेंज रेट। इसके अंर्तगत फ्लोटिंग एक्सचेंज रेट, फिक्स्ड रेट एक्सचेंज रेट या पेग्गड एक्सचेंज रेट, एंव काउंटर या मैनेजड एक्सचेंज रेट आते है।
फ्लोटिंग एंव फिक्स्ड रेट एक्सचेंज
फ्लोटिंग एक्सचेंज रेट प्रणाली में किसी देश की करेंसी का मूल्य बाजार के रुख पर तय हो रहा है और समय-समय पर इसमें उतार-चढ़ाव आ रहा है। जैसे भारत। भारत ने वर्ष 1991 मे मंदी से सबक लेते हुए 1994 में फ्लोटिंग एक्सचेंज रेट को अपनाया। उससे पहले भारत की करेंसी भी पेग्गड एक्सचेंज थी।
जबकि फिक्स्ड एक्सचेंज रेट या पेग्गड एक्सचेंज रेट में किसी देश की करेंसी को किसी बेस करेंसी के साथ जोडा जाता है तथा वह उसी के साथ उसमे भी बदलाव आता है। भारत में फ्लोटिंग एक्सचेंज रेट प्रणाली या कहे कि ड्यूल प्रणाली लागू है। जबकि वियतनाम में पेग्गड सिस्टम को 2005 से अपनाया।
अर्थव्यवस्था व कंपनिया पर एक्सचेंज रेट का प्रभाव
किसी भी देश की अर्थव्यवस्था के साथ ही देश मे निर्माण कार्य पर लगी कंपनियो पर एक्सचेंज रेट में का गंभीर प्रभाव पड़ता है। पेग्गड ऐक्सचेज रेट में किसी देश की मुद्रा विश्व की बडी मुद्राओं से जोडा जाता है जिसमें उन पर प्रभाव वहीं पढता है जो प्रभाव, जिनसे वह जुडी है पर पडे। लेकिन फ्लोटिंग ऐक्सचेंज में यह पुरी तरह बाजार पर निर्भर रहता है। अगर किसी देश की मुद्रा का ऐक्सचेंज रेट कम है तो अंतरराष्ट्रीय बाजार मे उसके उत्पाद सस्ते हो जाएंगे, एंव विदेशी व्यापार बढने की संभावना ज्यादा होगी मगर यह निवेशकों के लिए नुकसान का कारण भी है क्योकि उनके उत्पाद भी अंतरराष्टीय बाजार में सस्ते हो जाएंगे। इसे हाल के परिदृश्य में समझते है। अभी भारतीय रूपये का एक्सचेंज रेट डॉलर के मुकाबले कमजोर हो रहा है जिसके कारण रुपये की कीमत गिर रही है। क्योकि अधिकांशत अमेरिकी डालर को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा के रूप में प्रयोग किया जाता है ऐसे में अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारतीय उत्पाद सस्ते हो जाएंगे। ऐसे मे कंपनियां भारत के मैन्यूफेक्चरिंग के लिए रिस्क लेने से बच रही है। क्योकि अधिकांश कंपनियां अमेरिका बेस है ऐसे मे ये कंपनियां उन देशों की ओर रूख कर रही है जहां निवेश को लेकर सरकारी व सामाजिक हस्तक्षेप कम हो और साथ ही उसकी मुद्रा अमेरिकी डाॅलर के साथ-साथ चले या लिंक्ड हो। जिसके चलते उन्हे भी वही प्राफिट-लाॅस हो जो उनके देश की अन्य कंपनियों को हो रही है।
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विदेशी मुद्रा भंडार
जैसा कि पहले ही जिक्र किया गया है कि रुपये की कीमत पूरी तरह इसकी मांग एवं आपूर्ति के साथ ही आयात एवं निर्यात का भी असर पड़ता है। दरअसल वैश्विक व्यापार के लिए हर देश के पास दूसरे देशों की मुद्रा का भंडार होता है, जिससे वे आयात-निर्यात के समय लेनदेन करते हैं। इसे ही विदेशी मुद्रा भंडार कहते हैं। भारत के संदर्भ में इसके आंकडे समय-समय पर आरबीआई द्वारा जारी होते हैं। विदेशी मुद्रा भंडार के घटने और बढ़ने से ही उस देश की मुद्रा पर इसका असर पड़ता है। अतः इसे नियत्रंण के तरह देश का केंद्रीय बैंक जैसे भारत का आरबीआई अपने भंडार और विदेश से खरीदकर बाजार में डॉलर की आपूर्ति सुनिश्चित करता है.
इसके लिए एक उदाहरण के तौर पर भारत और अमेरिका के बीच से एक विशेष वस्तु के व्यापार के रूप मे समझ सकते है।
वर्तमान समय के अनुसार जब कि 1 डाॅलर, 75 रूपये के बराबर है। माना अमेरिका के फाॅरन रिर्जव में 75000 रुपए हैं और भारत का पास 1000 डॉलर। जो कि बराबर राशि है। अब अगर हम अमेरिका कोई वस्तु जिसकी कीमत 7500 या 100 डाॅलर है आयात करते है। तो अब हमारे विदेशी मुद्रा भंडार में सिर्फ 900 डॉलर बचे हैं। अमेरिका के पास 82500 रुपये। जो कि अब भारत के विदेशी मुद्रा भंडार से अधिक हो गया है। इसके नियत्रंण के लिए हमे या तो निर्यात बढाता होता है या फिर हमे अंतर्राष्ट्रीय बाजार से अतिरिक्त डॉलर खरीदना होते हैं, और एक्सचेज रेट के तहत डाॅलर खरीदने के लिए हमे अधिक रुपये खर्च करने पड़ते हैं।
इसे एक और उदाहरण से समझते है जैसा कि अभी तक हमे पता है कि अंतर्राष्ट्रीय कारोबार में भारत के ज्यादातर व्यापार डॉलर में होता हैं। भारत अपनी जरूरत का कच्चा तेल (क्रूड), खाद्य पदार्थ (दाल, खाद्य तेल ) और इलेक्ट्रॉनिक्स आइटम अधिक मात्रा में आयात करेंगा तो इसके लिए ज्यादा डॉलर खर्च करने पड़ेंगे. भारत को सामान तो खरीदने में मदद मिलेगी, लेकिन आपका मुद्राभंडार घट जाएगा.
अमेरिकी डाॅलर के मुकाबले ही क्यों करते है भारतीय रूपये की मजबूती का अनुमान
भारतीय रूपये की कीमत बढी है या कम हुई है या इसका अनुमान अधिकांशतः इस बात से लगाया जाता है कि भारतीय रूपये की कीमत अमेरिकी डाॅलर के मुकाबले कितनी है। अंतरराष्ट्रीय बाजार मे अधिकांश देशों में अमेरिकी डाॅलर स्वीकार्य है, एवं अंतरराष्ट्रीय बाजार में व्यापार हेतु अमेरिकी डॉलर का इस्तेमाल होता है, इसलिए अमेरिकी डॉलर को अंतरराष्ट्रीय करेंसी का रुतबा हासिल है।आगे जानेंगे कि क्यू है अमेरिकी डाॅलर अंतरराष्ट्रीय करेंसी। इसका मतलब है कि निर्यात की जाने वाली ज्यादातर वस्तुओ का मूल्य डॉलर में चुकाया जाता है. यही वजह है कि डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत से पता चलता है कि भारतीय मुद्रा मजबूत है या कमजोर.।
अमेरिकी डाॅलर क्यों है वैश्विक मुद्रा या 1944 में ब्रेटनवुड्स समझौता
20वीं सदी के शुरूआत से ही अमेरिकी नेताओ का इस पर जोर रहा कि सोने के बजाय अमेरिकी डाॅलर को ही वैश्विक करेंसी के रूप में इस्तेमाल किया जाना चाहिए। इसके लिए अमेरिका ने अधिकांश देशों के सोने का अमेरिकी डाॅलर से बदलवा दिया। इसकी मजबूती की शुरूआत वर्ष 1944 में ब्रेटनवुड्स (न्यू हैम्पशर ) समझौते के बाद हुई, जहां दुनिया के सभी विकसित देश के नेता मिले और उन्होंने अमरीकी डॉलर के मुकाबले सभी मुद्राओं की विनिमय दर को तय किया। तब तक अमेरिका के पास दुनिया का सबसे अधिक सोने का भंडार था। इस समझौते ने दूसरे देशों को भी सोने की जगह अपनी मुद्रा का डॉलर को समर्थन करने की अनुमति दी।
अमेरिकी डाॅलर को मजबूत करने मे 37वें अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड मिल्हौस निक्सन का महत्वपूर्ण योगदान है वर्ष 1970 मे कई देशों ने मुद्रा स्फीति, जिसका अर्थ होता है कि जब किसी अर्थव्यवस्था में सामान्य कीमत स्तर लगातार बढ़े और मुद्रा का मूल्य कम हो जाए। से लडने के लिए सोने की मांग शुरू कर दी थी। उस समय राष्ट्रपति निक्सन ने सरकारी खजाने, फोर्ट नॉक्स के अपने सभी भंडारों को समाप्त करने की अनुमति देने के उलट डॉलर को सोने से अलग कर दिया। उनके इस कदम का परिणाम इसी दशत तक दिखने लगा था, इस समय तक डॉलर दुनिया की सबसे खास सुरक्षित मुद्रा बन चुका था।
वर्तमान समय मे अधिकांश देशों खासकर चीन व रूस को इस बात का डर है कि अगर अमरीकी कर्ज को कम करने लिए यूएस ट्रेजरी नए नोट छापती है और अमेरिका डॉलर की मुद्रा स्फीति तय हो जाती है तो उसके खरबों डॉलर किसी काम के नहीं रहेंगे। इसी संदर्भ में मार्च 2009 में इन देशो ने नई वैश्विक मुद्रा की मांग की, जिस पर किसी इकलौते देश का अधिकार न हो और लंबे समय तक स्थिर रहने में सक्षम हो। जिससे कि आने वाले दिनों में क्रेडिट आधारित नुकसान को कम किया जा सकता है।
आने वाले वर्षों में देखना है कि इस पर कोई सहमति बन पाती है कि नही। अगर हाँ तो कौन सी मुद्रा होगी जो अमेरिकी डाॅलर का स्थान लेगी। क्या वह यूरो हो सकती या चीनी युवान, जो अभी तो एक छोटी शुरुआत के रूप मे दुनिया के केंद्रीय बैंक में 120 अरब डॉलर है। फेडरल रिजर्व के चेयरमैन ने तो यूरो मे उन खुबियों का जिक्र किया जिसके चलते यह अमेरिकी डॉलर की जगह ले सकता है।
वर्ष 2018 के अंत तक दुनिया भर के केंद्रीय बैंकों के कुल विदेशी मुद्रा भंडार में अमेरिकी डाॅलर 6617 अरब डॉलर के साथ ही 55 प्रतिशत था, दूसरे नंबर पर यूरो 2219 अरब डाॅलर के साथ 18 प्रतिशत के लगभग है। इस मामले मे जापानी येन तीसरे नंबर पर 558 अरब डाॅलर व 5 प्रतिशत है इससे साफ जाहिर है कि अभी तो अमेरिकी डाॅलर को कोई नुकसान नही है अगर है तो वह भी यूरो से होती दिख रही है। इसके उलट अमेरिकी सरकार का मुद्रा स्फीति पर भी काफी हद तक निर्भर करता है।
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