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Saturday, May 2, 2020

Rani karnavati I रानी कर्णावती जिसमें मुगल सैनिको की नाक कटवा दी।

भारतीय इतिहास में पहली रानी जिन्होने मुगल सेना का न केवल सामना किया बल्कि उसे हराकर सैनिकों की नाक कटवा दी। 



उत्तराखंड के इतिहास की विस्तृत जानकारी कई किताबों में मिल जाती है मगर कई वीरता की कहानियाँ ऐसी भी है जिनके बारे में पहले तो, विस्तार से लिखा ही नही गया और यदि कुछ लिखा भी गया है तो उसको उचित ढंग से लोगो तक पहुचाया नही गया है। हम अधिकांशतः उसी इतिहास को सच मान लेते है जो कि तत्कालीन शासन के दरबारियों व इतिहासकारों द्वारा वर्णित या लिखित है। उत्तराखंड का अपना गौरवमयी इतिहास रहा है। हाँ उस समय जरूर यहा इतिहास लेखन का कुछ अभाव रहा होगा, या लेखन होगा भी उसे उस प्रकार से प्रयोग नही किया गया होगा जैसे कि भारत के शासको के संबंध में देखा जाता है। इस प्रदेश के वीरो की वीरता का वर्णन अधिकांशतः देश के दूसरे भाग के बादशाहों या सुल्तानों के लेखको द्वारा किया गया है। जो इस बात की ओर इशारा करती है कि ये वीर और इनकी वीरता इतिहास लेखन के अभाव में कही गुमनाम सी हो गयी है। क्योंकि अगर कोई दुश्मन राज्य हमारे वीरो, सेनापतियो या राजाओं के बारे मे लिखता भी होगा तो इसमे कितनी सच्चाई होगी कि वह अपने सैनिको को सर्वश्रेष्ठ नहीं बताए। देश का कोई शासक या उसके सैनिक अगर एक छोटे से राज्य को भी विजित नही कर पाया तो इसमे उसकी बहुत बडी विफलता है, जो जाहिर है कि उसके इतिहासकारों द्वारा अर्धसत्य के साथ या झूठे तरीके से दर्शाया गया होगा ऐसे मे यह समझना चाहिए कि जितना भी उत्तराखंड के वीरों के बारे में किसी बडे शासक के इतिहासकारों द्वारा लिखा गया है, उससे कई गुना ज्यादा उन वीरो की वीरता एंव कई गुना ऊचां उस समय पर उनका कद रहा होगा।

उत्तराखंड के इतिहास में एक ऐसी ही वीरांगना महारानी का वर्णन आज के इस लेख में करने जा रहा हूँ। मैने इस विषय पर कई लेख व कई किताबे पढी क्योंकि मै इस पर एक ऐसा लेख लिखना चाहता था जो साथ ही परीक्षार्थियों को भी मदद करें। इसके बाद आप लोगो के सामने इस कहानी को लेकर इस आशा व उम्मीद के साथ आया हँू कि आप लोगो को यह कहानी पढने के बाद उत्तराखंड के इतिहास को जानने की और भी इच्छा होगी। इसके लिए आप हमारे विभूतियो के बारे मे ज्यादा से ज्यादा पढेंगे वह चाहे मेरे लेख के माध्यम से या अन्य लेखों व किताबों के माध्यम से। 

यह कहानी है परमार वंश की रानी की जिसे इतिहास मे नाक कटी रानी के नाम से जाना जाता है और जिसके बारे में उस समय के प्रसिद्ध लेखको ने अपनी पुस्तक में इस रानी का वर्णन किया है। पहले जानते है कि किस लेखक ने क्या लिखा है। इस लिस्ट मे सबसे पहला नाम है अब्दुल हमीद लाहौरी का, जो मुगल बादशाह शाहजहाँ के राज दरबार में प्रधान इतिहासकार था ने वर्ष 1648 में पदशाहनामा वर्ष 1656 में बादशाहनामा (वर्ष 1654 मे लाहौरी की मृत्यु के बाद लेखन का कार्य उसके शिष्य मुहम्मद वारिश ने किया) लिखी थी। पदशाहनामा में उसने गढवाल की रानी द्वारा मुगल सैनिको का बुरी तरह से पराजय के साथ ही उनको अपमानित करने का वर्णन भी किया गया है। दूसरा इतिहासकार शाह नवाज खान शम्सुद्दौला का वर्णन है, जो आसिफ जाह के दरबार मे था। उसने पर्शियन भाषा में लिखी किताब मआसिर उल् उमरा मे लिखा है कि कैसे पहाडी क्षेत्र के एक छोटे से राज्य की वीरांगना रानी के हाथों मुगलिया सेना हारकर व अपमानित होकर उस राज्य की राजधानी से 30 मील दूर से ही वापस भाग आयी। इसी कडी में तीसरा वर्णन है इटली के इतिकासकार निकोलाओ मानुची जिसने अपनी किताब में 1650-1690 तक के मुगल दरवार का पूर्ण विवरण दिया है। इसके द्वारा लिखित पुस्तक स्टोरिया डो मोगोर को दो भागों 1707 व 1715 में लिखा तथा वर्ष 1915 में बर्लिन में तीन भाषाओं में प्रकाशित किया गया था। इस पुस्तक में इतिकासकार ने पहाडी क्षेत्र की गौरव गाथा लिखी है। और रानी की वीरता की खूब तारीफ की है। यह तो रहा इतिहासिक श्रोत जिसमें इस वीरता का वर्णन किया गया है।

इतिहास में कर्णावती नाम से दो महारानियां प्रसिद्ध  हुई है। दोनो ही इतिहास में अपने कर्तव्य व सूझबूझ के लिए अमर है। इसमें पहला नाम है चित्तौड के राजा राणा संग्राम सिंह की रानी राणा उदयसिंह की माता व महाराणा प्रताप की दादी का। राणा संग्राम सिंह की मृत्यु के बाद अपने राज्य को गुजरात के शासक बहादुर शाह, जो कि चित्तौड पर डेरा डाले हुए था, के हमले से बचाने के लिए मुगल बादशाह हुमायूं को राखी भेजकर अपनी सूझबूझ का परिचय देते हुए मदद की गुहार लगाई थी, हालांकि हूमायूं सही समय पर नही पहुच सका और रानी ने अपनी आत्म रक्षा के लिए जौहर कर लिया था। और दूसरी रानी कर्णावती है गढवाल राज्य के परमार वंश के 46वें राजा महिपतिशाह की रानी व 47वें राजा पृथ्वीपतिशाह की संरक्षिका व राजमाता। दोनो रानी कर्णावती की महानी मिलती जुलती है दोनो के राजा का स्वर्गवास हो चुका था तथा होने वाला राजा अभी भी नाबालिक था, दोनो ने ही राज्य को संरक्षण प्रदान किया था। और दोनो के समय दिल्ली में मुगल शासक थे। मगर अंतर इतना था कि शत्रु को गढवाल पर हमला करना उतना आसान नहीं था, क्योंकि एक तो यह भौगोलिक दुरूह भाग था, दूसरा उस समय गढवाल के इस दुरूह क्षेत्र को पाटने के लिए ऐसे सेनापतियों की सेवा थी जिनके हाथ मे ंतलवार देखते ही शत्रु सेना के पसीना निकल जाता था। इसका मतलब यह नही कि चित्तौर की महारानी कर्णावती के पास ऐसे सैनिको की कमी थी, क्योंकि चित्तौर हमारे देश का गर्व है उस धरती ने हमेशा से ही वीरो के वीर जैसे पुरूषों को जन्मा है मगर दोनो क्षेत्रों का संदर्भ अलग है उत्तराखंड का पहाडी भाग में मुगलिया सेना के लिए रास्ता खोजना तक दुभर था युद्ध क्या खाक जीतते।


शाहजहां की गढवाल पर युद्ध की शुरूआत


युद्ध की शुरूआत कैसे हुई इस बारे में भी कई इतिहासकारों के अनेक मत है कुछ इतिहासकारों  का मानना है कि मुगल बादशाह शाहजहां के राज्याविशेष के समय गढवाल राजा महिपतिशाह उपस्थित नही हुए थे। जिससे बादशाह गढपति से नाराज हो गया और राज्य को सबक सिखाने का मन बना लिया था। इससे पहले युद्ध की स्थिति का जिक्र करे उससे पहले राजा महिपतिशाह के विजय व मृत्यु के बारे में संक्षिप्त वर्णन करते है जिससे पता चले कि उस समय रानी या उसके सैनिक किस जोश से भरे रहें होगे।

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परमार वंश का 46वां राजा महिपतिशाह पर संक्षिप्त


परमार वंश के 46वे राजा के रूप में महिपतिशाह ने लगभग 48 वर्ष की उम्र मे राजसिंहासन संभाला क्योंकि उससे पहले उनका भतीजा व परमार वंश का 45 वां राजा श्याम शाह शासक था। हालांकि उसके सिहासनरूढ होने के समय ठीक ढंग से वर्णित नही होता है। कुछ इतिहासकार 1629 ई0 कुछ 1631 ई0 व कुछ तो केशोराय मठ श्रीनगर से मिले खंडित लेख के आधार पर तीथी का निर्धारण 1625 ई0 में भी करते हैं। इसमे अधिकांश इतिहासकार 1631 ई0 की तिथि को तर्कसंगत मानते है। राज्यारोहण की तिथि कुछ भी हो इसके समय मे राज्य विस्तार नीति को भरपूर बल मिला, उसका कारण था भड माधों सिह भंडारी, लोदी रिखोला व बनवारी दास जैसे वीर सेनापती। इसके समय में गढवाल की सीमा पश्चिम में सतलज दक्षिण में बिजहर, पूर्व में चंद्र राजा त्रिमलचंद को गद्दी में बैठाकर कुमाउ व गढवाल का संतुष्ट सीमा निर्धारित की और उत्तर पूर्व के दापा क्षेत्र को गढवाल राज्य में मिला लिया। इसकें महत्वपूर्ण भूमिका माधों सिंह भण्डारी व लोदी रिखोला की रही जिन्होने इन क्षेत्रों को राज्य में मिलाने के लिए अपने जान तक की परवाह नही की। महिपतिशाह के राज्यारोहण के साथ ही उनके मृत्यु पर भी एक प्रश्नचिन्ह लगा है कि कब और कैसे उनकी मौत हुई। इसमें भी कई मान्यताए है, इस प्रकार मात्र 4 या फिर 5 वर्ष के शासन काल में महिपतिशाह ने एक मजबूत राज्य का निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी और अनुश्रुतियों के गर्व भज्जन तथा प्रसिद्ध चित्रकार मौलाराम द्वारा महाप्रचण्ड भुजदण्ड  के नाम अमर हो गये। अपने साथ ही वह रानी कर्णावती को अमर करने वाली घटना की पटकथा लिख चुके थे। महिपतिशाह एक स्वाभिमानी व पराक्रमी राजा थे ऐसे में जब शाहजहाँ का राज्याभिषेक 14 फरवरी 1628 को हो रहा था। तो आमंत्रण के बावजूद महिपतिशाह को राज्याभिषेक में जाना व बादशाह की अधीनता स्वीकारना अनुचित लगा। जिस कारण शाहजहां उससे नाराज हो गया और राज्य को सबक सिखाने की ठान ली। मुस्लिम इतिहासकारों ने भी महिपतिशाह को एक अक्खड़ राजा के नाम से संबोधित किया है। इतिहासकार शिवप्रसाद डबराल के अनुसार महिपतिशाह की मृत्यु 1635 ई0 में जबकि अन्य देवप्रयाग ताम्रपत्र के आधार पर जनवरी 1634 से पूर्व राजा का देहान्त हुआ मानते है।


इसी सिलसिल के मैनें भड़ माधोसिंह भण्डारी की वीर गाथा लिखी है। कि कैसे उन्होने राज्य के साथ ही गांव को कर्तव्य भी निभाया व ऐसे निभाया कि आज तक हर साल पूजे जाते है। यहां क्लिक करे और पढे वीर माधों सिंह भण्डारी को-


रानी कर्णावती से नाक काटी रानी 


राजा महिपतिशाह शाहजहां के मन में नफरत का बीच बोकर चल बसे थे। अब अग्नी परीक्षा थी भावी राजा की या संरक्षिका की, क्योंकि राजकुमार पृथ्वीपतिशाह अभी अल्पआयु मात्र 10-11 साल का था। ऐसे में महारानी कर्णावती ने राजकाज संभालते हुए राजकुमार के संरक्षिका के तौर राज संभाला। हालांकि शाहजहां के मन मे गढराज्य के प्रति नफरत तो महिपतिशाह के समय से ही चल रही थी। ऐसे में वर्ष 1634 में एक ऐतिहासिक संयोग ने मुगलो द्वारा गढवाल पर हमले को और प्रबल बना दिया था। वर्ष 1634 में छत्रपति शिवाजी के गुरु रामदास बदरीनाथ धाम की यात्रा पर आये थे तो उसी समय उनकी भेंट सिख गुरु हरगोविन्द सिंह से श्रीनगर में हुई। और उसके बाद गुरू रामदास ने रानी कर्णावती से भी मुलाकात की।

मौके का फायदा उठाते हुए पडोसी राज्य सिरमौर का नरेश मंधाता प्रकाश ने मुगल बादशाह को गढवाल पर हमला करने के लिए अनुरोध। उधर शाहजहां को भी गुरू हरगोविन्द व गुरू रामदास का गढवाल दौरा, उनके खिलाफ एक साजिश लग रही थी। ऐसे में शाहजहां ने कांगडा के मुगल फौजदार नवाजत खाँ को सिरमौर के नरेश मंधाता प्रकाश और मुगल सेना की एक टुकडी लेकर श्रीनगर पर हमला करने की आज्ञा दी। माना जाता है कि शाहजहां ने राज संभालने के सातवे वर्ष इस आक्रमण के लिये सेना भेजी थी, अर्थात वर्ष 1635 में यह आक्रमण किया होगा। मुगल इतिहासकारों ने वर्णित किया है कि रानी ने राजधानी से 30 मील दूर ही मुगल सेना को खदेड दिया था। युद्ध स्थल के बारे मे दो स्थानों का वर्णन मिलता है एक है दून घाटी में, जो कि कुछ प्रासंगिक भी लगती है। दूसरा वर्णित स्थल है रणीहाट। मै इस स्थल जो कि अधिकांश किताबो में मिलता है दून वाली कहानी बता रहा हू। 

नवाजत खाँ की अगुवाई वाली मुगल टुकडी ने दून घाटी से लेकर चंडीघाटी, वर्तमान का ऋषिकेश का भाग, के अधिकांश भाग पर कब्जा कर लिया था। यह घेराबंदी रानी को अंदर से सताये जा रहा था। इस एक ही युद्ध में रानी ने युद्ध कौशल के साथ ही एक महान कूटनीतिक कौशल का भी लोहा मनवाया। राज्य में इस भयंकर युद्ध के समय संसाधन व सैनिकों को एकजुट करना सबसे बडी चुनौती थी। ऐसे में रानी ने सेना को युद्ध की तैयारी हेतु एक कूटनीतिक चाल चली। उन्होनें मुगल फौजदार नवाजत खाँ को संदेशा भिजवाया कि वह बादशाह की अधीनता स्वीकार करने के लिए तैयार है और साथ ही युद्ध के हर्जाने के रूप में बादशाह शाहजहां के शाही खजाने के लिये जल्द ही दस लाख रूपये उपहार के रूप में भेजेंगी। नवाजत खाँ रानी द्वारा कूटनीतिक वार को समझ नही पाया और इस प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। अतः वह राजस्व की वसूली के इंतजार में लगभग एक माह तक उसी क्षेत्र में डेरा डाले रहा। उधर दूसरी ओर रानी कर्णावती दिन-रात एक करके अपनी सेना का मनोबल बढा रही थी और मुगल सेना का हमला विफल करने की योजना बना रही थी। इस एक महीने के समय ने राज्य को पर्याप्त समय दे दिया था, कि वह योजना के तहत मुगल सेना को चारों ओर से घेर ले और हुआ भी कुछ ऐसे ही, रानी की सेना ने नवाजत खाँ की सेना के निकलने के सारे रास्ते बंद करवा दिये। हर वह द्वार जहां से मुगल सेना क्षेत्र में प्रवेश हुई थी गढवाली  सेना से पट थी। इधर मुगल सेना के शिविर पर खाद्य सामग्री की भी कमी होती जा रही थी, और देखते ही देखते उसके कई सैनिक बीमार भी पड गये थे। स्थिति को भापते हुए परमार सेना ने मुगल सेना पर आक्रमण कर दिया। उसके कई सैनिक मार दिये गये कई भाग गये जिसमें मुगल फौजदार नजाबत खां भी शामिल था जो जंगलों से छुपता हुआ मुगल अधीनस्त क्षेत्र मुरादाबाद पहुचा,(कहां जाता है कि बाद मे युद्ध मे पराजय के कारण उसने खुदकुशी कर ली थी,) इसके साथ ही कई सैनिको को रानी के आदेश से बंदी बनाया गया। रानी कर्णवती ने मुगलो को सबक सिखाने के लिए बंदी सैनिकों के सामने एक शर्त रखी कि यदि जिदां रहना है तो बिना नाक के रहना पढेगा। इतिहासकारों का मानना है कि इससे रानी मुगल सेना को बताना चाहती थी कि गढवाल राज्य मुगलिया सल्तनत से घबराने वाला राज्य नही है। सैनिको ने जान के बदले नाक कटवाना उचित समझा जबकि कुछ तो आज्ञा उल्लघन के कारण मौत के घाट उतार दिये गये। रानी के इस वीरता और इस निर्णय के कारण वह इतिहास में नाक कटी रानी के नाम से मशहूर हो गयी। यह घटना अपने आप में एक मिशाल है शायद ही इतिहास में इस प्रकार के निर्णय या बदला कहीं और पढने या सुनने को मिलता है वह भी एक ऐसे देश में जहां मुगल साम्राज्य जैसा प्रख्यात सैन्य व प्रशासनिक शक्ति हों, और बदला लिया एक ऐसे राज्य की रानी ने जो मुगल साम्राज्य का एक फीसदी भी नही था और राजाविहीन था।
शाहजहां इस अपमान का बदला लेने के लिए कुछ वर्ष बाद अरीज खान नामक फौजदार को एक बार फिर से गढ़वाल पर हमले के लिये भेजा था लेकिन वह भी दून घाटी से आगे नहीं बढ़ पाया था। इसी बीच वर्ष 1637 में उसने अपनी राजधानी दिल्ली में स्थानांतरित की और इस क्षेत्र को भूल जाना ही बेहतर समझा। शाहजहां के पुत्र औरंगजेब ने भी इस क्षेत्र में दो बार हमले करवाये हालांकि उसके हमले का कारण कुछ और था।

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दुगड्डा-लैंसडौन मार्ग पर फतेहपुर 


मुगलो पर इस विजय में पंवार सेनापति दोस्त बेग की प्रमुख भूमिका रही थी, कुछ इतिहासकार महान परमार सेनापति भड माधोसिंह भण्डारी की भी इस युद्ध में उपस्थिति व भूमिका मानते है हालांकि कुछो को मानना है कि माधोसिंह भंण्डारी इस युद्ध से पूर्व ही किसी युद्ध में मारे गये थे। जिस स्थान पर अंत में परमार सैनिको ने अंत में मुगलो को हराकर फतह किया वह आज पौढी गढवाल जिले मे दुगड्डा-लैंसडौन मार्ग पर फतेहपुर नाम का स्थान है। कहा जाता है कि इस स्थान पर मुगल सेना पर फतह करने के कारण ही इस स्थान का नाम फतेहपुर रखा गया। 

इतिहासकार एटकिन्सन व डाॅ0 यशवंत सिंह कठोच ने युद्धस्थल के रूप में रणीहाट को वर्णित किया है जहां आज भी मान्यता है कि रानी के शत्रुओ को बिन्सर देवता ने ओलावृश्टि से विनष्ट कर दिया था। तथा रानी ने युद्ध विजय पश्चात देवता के नये शिखर का निर्माण किया और स्वर्ण-छत्र चढाया। इस युद्ध में पहले तो रानी की सेना ने मुगल सेना को बुरी तरह से काट डाला था।  

इस युद्ध विजयोपरान्त 1635 ई0 में ही रानी ने दूण घाटी पर पुनः अधिकार कर लिया था, जो कि सिरमौर नरेश द्वारा हडपा गया था। संरक्षिका के तौर पर एक वर्ष के अंर्तगत ही रानी ने अपनी वीरता और सूझबूझ का ऐसा परिचय दिया कि जनता का विश्वास हो चला था कि राज्य को वैसा ही नेतृत्व प्राप्त है जैसा राजा महिपतिशाह के समय था। धीरे-धीरे रानी का वर्चस्व बढता गया और प्रजा-प्रिय हो चुकी थी। जिसका जिक्र उस समय के नाथपंथी व तंत्र मंत्र की साबरी ग्रन्थों में भी मिलता है। रानी का 1640 ई0 का हाटगाँव को ताम्रपत्र भी डाॅ0 कठोच को मिला जिससे उन्होने अंदेशा लगाया कि अभी तक कर्णावती राज्य की संरक्षिका थी। और 8 साल संरक्षिका रहने के बाद वर्ष 1642 में पृथ्वीपतिशाह को शासनाधिकार सौंप दिया था।

दूण क्षेत्र विजित कर रानी ने उसकी राजधानी नवादा में राजभवन व बावडी(कूएं) बनवाये जिसके अवशेष आज तक भी देखे जा सकते है। इसके अलावा रानी ने देहरादून में राजपूर नहर व करणपुर गांव भी बसाया था।

बुद्धिमत्ता, रण कुशलता तथा सुयोग्य शासिका के रूप में महारानी कर्णावती की तुलना गोण्डवाना की संरक्षिका रानी दुर्गावती से की जा सकती है। रानी दुर्गावती 1564 ई0 में मुगल सेना के आसफखाँ से अपने राज्य की रक्षा के लिए वीरतापूर्वक व स्वाभिमानी तरीके से लडती रही। हालांकि महारानी दुर्गावती वीरगति को प्राप्त हो गयी थी मगर उन्होने मुगल सेना को अपनी छोटी टुकडी पर कभी भी हावी नही होने दिया।
इसी के साथ रानी कर्णावती की कहानी समाप्त होती है। उनके बाद 47वे राजा के रूप मे पृथ्वीपतिशाह सिंहासन पर बैठते है जिनके भी मुगलो से संबंध कटुर ही थे। पृथ्वीपतिशाह के निर्णय ने एक बार फिर मुगल बादशाह को दिखा दिया कि राज्य छोटा हो सकता है मगर हिम्मत व दरियादिली मुगलिया सल्तनत से कई गुना अधिक है। पृथ्वीपतिशाह ने औरंगजेब से बचकर भागे दाराशिकोह का पुत्र शाहजादा सुलेमान शिकोह को अपने राज्य मे न सिर्फ संरक्षण दिया। बल्कि सुरक्षित भी रखा। जिसे पर औरंगजेब ने कहा था कि जिस किसी राजा ने सुलेमान शिकोह को अपना संरक्षण दिया है मै उस राज्य का नामोनिशान मिटा दूगा।


दोस्तो आज की कहानी का अंत यही होता है आशा करता हूँ कि हमारी वीरभूमि की ये सच्ची कहानिया आप लोगो द्वारा पसंद की जा रही है। यदि हाँ तो कृप्या कमेंट करें और अन्य कहानिया लाने के लिये आदेश दे।
धन्यवाद, नमस्कार

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