भारत-नेपाल सीमा विवाद का ब्रिटिश कनेक्शन व सुगौली संधि - Sugauli treaty
Sugauly Treaty established the boundary line between British India and Nepal, was signed on 2 December 1815 and ratified by 4 March 1816.
वैसे तो यह मुद्दा नेपाल द्वारा समय-समय पर उठाया गया। लेकिन जब से नेपाल में कम्यूनिस्ट पार्टी की सरकार बनी है तब से उसने इस मुद्दे को और जोर शोर से उठाया कि महाकाली के पूर्व की भूमि सुगौली संधि के तहत नेपाल का भाग है। नेपाल ने पुनः 9 मई 2020 जब हमारी बीआरओ द्वारा कैलाश मानसरोवर को जोड़ने वाली प्रमुख लिपुलेख क्षेत्र कालापानी-लिम्पियाधुरा व चीन की सीमा तक सडक बनाने का कार्य शुरू किया जा रहा है ऐसे में नेपाल ने इस विषय को लेकर फिर से भारत सरकार से पत्र लिखकर आग्रह किया, कि सुगौली की संधि के तहत यह भाग नेपाल सरकार के अंतर्गत आता है। क्योकि इस संधि द्वारा तत्कालीन ब्रिटिश कम्पनी और नेपाल के राजा के बीच जो समझोता हुआ था उसके तहत काली नदी को दोनो राज्यों की सीमा का निर्धारण किया गया था। इस पर भारत सरकार ने इसे पूरी तरह से भारत का भूभाग बताकर सडक निमार्ण कार्य को जारी रखा है।
इस विषय पर लिखने का तात्पर्य सिर्फ इतना है कि इसके माध्यम से संक्षिप्त में उत्तराखंड पर राज करने वाले प्रमुख राजवंशो व फिर नेपाल के गोरखों व अंत अंग्रेजो के साथ उनकी सुगौली संधि के बारे में जानना है। इस विषय को शुरू करे उससे पहले यह बताना चाहता हूँ कि सुगौली की संधि मात्र एक संधि नही थी। यह बटवारे की दास्ता भी बया करती है। जब विभाजन की बात की जाये तो सिर्फ भारत-पाकिस्तान की बात की जाती है। मगर इस विभाजन से कई वर्ष पूर्व ही एक और विभाजन हुआ था। जिसका जिक्र उतना होता है नही जितना कि शायद यहां के लोगो ने महसूश किया होगा। माता सीता की जन्म स्थली मिथिला आज नेपाल का भाग है जो कभी भारत का हिस्सा था, इसके साथ ही नेपाल का मध्यदेश भी अधिकांशतः भारत से ही संबंधित था।
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कालापानी का महत्व Kalapani-Lipulekh
कालापानी का क्षे़त्र भारत के लिए व्यापारिक व सामरिक दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण भाग है। इस क्षेत्र के लिपुलेख दर्रा से चीनी व्यापार व उनकी गतिविधियों पर नजर रखने के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। कालापानी चीन, नेपाल और भारत की सीमा के मिलनबिंदु पर 372 वर्ग कि.मी का क्षेत्र है। भारत इसे उत्तराखंड का हिस्सा मानता है जबकि नेपाल इसे अपने नक्शे में दर्शाता है। 1962 से ही कालापानी पर भारत की आईटीबीपी की पहरेदारी है।
विवाद का कारण
नेपाल और तब के ब्रिटिश इंडिया के बीच मार्च 1816 में सुगौली की संधि हुई थी, जिसमे कि दिसम्बर 1816 में कुछ परिवर्तन किया गया। इसमें समझौता के तहत कालापानी इलाके से होकर बहने वाली काली नदी भारत-नेपाल की सीमा मानी गई है। सीमा को लेकर सर्वे करने वाले ब्रिटिश ऑफिसर दिसम्बर 1816 में काली नदी के उद्गम स्थल भी चिह्नित कर दिया था जिसमें आगे चलकर कई सहायक नदियां भी मिलती हैं। मगर इस पर नेपाल का दावा है कि विवादित क्षेत्र के पश्चिमी भाग से निकलने वाली धारा या नदी ही वास्तविक नदी है, इसलिए कालापानी नेपाल के इलाके में आता है। वहीं, भारत नदी का अलग उद्गम स्थल बताते हुए इस पर अपना दावा करता है।
उत्तराखंड में प्रारम्भिक राजवंश
कोल, किरात आदि कई जातियो को उत्तराखंड की मूल या प्रारम्भिक जातियों में गिना जाता है मगर ऐतिहासिक श्रोतों के आधार पर कुणिन्द शासन उत्तराखंड में प्रथम राजनीतिक शक्ति के रूप में वर्णित है जिसका वर्णन मौर्य काल के साहित्य में भी मिलता है। कुणिन्द के बाद क्रमशः यौधेय, शक, व नाग जातियों ने इसके कुछ या अधिकांश भाग पर राज किया। 6ठीं व 7वीं शताब्दी में कन्नौज में मौखरि राजवंश ने इस क्षेत्र पर अपना अधिकार कर लिया। उसके बाद भारत के महान शासन थानेश्वर के हर्षवर्धन ने मौखरियों को पराजित कर इस क्षेत्र को वर्धन वश्ंा के अधीन कर दिया।
हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद लगभग 700 ई0 के आसपास कार्तिकेयपुर राजवंश के 3 परिवारों के लगभग 14 राजाओं ने 1030 ई0 तक उत्तराखंड पर सुशासन किया। कार्तिकेयपुर राजवंश का बाहरी राज्यों के साथ भी घनिष्ठ मित्रता थी, इस काल की कलाकृतियों में बाहरी प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखता भी है, जैसे मंदिरों का द्रविड शैली, नागर शैली आदि में निर्माण। कार्तिकेयपुर के साथ ही कत्यूरी वंश ने भी शासन किया, जिसे कुछ विद्वान कार्तिकेयपुर राजवंश भी मानते है। जब कत्यूरी साम्राज्य अपने पराकाष्ठा पर था तो सम्पूर्ण उत्तराखंड के साथ-साथ आधुनिक हिमाचल व उप्र के कुछ भाग भी उनके अधीन थे। धीरे-धीरे कत्यूरियों का राज्य ढीला पडता गया, जिस कारण से कुमाऊ मे चन्द शासक व गढवाल मे परमार शासको का राज स्थापित होता गया। और कुछ छोटे-छोटे राज्य गढ के रूप में भी सीमान्त कुमाऊ क्षेत्र में स्थापित थे, जैसे सीरा डोटी, असकोट आदि। मुख्यतः चन्द व परमार वंश का ही सम्पूर्ण उत्तराखंड में राज था। ये दोनो वंश क्रमशः 1790 ई0 व 1804 ई0 तक कुमाऊ व गढवाल मे शासन करते रहे।
नेपाल के गोरखाओं का उत्तराखंड पर राज
गोरखाओ ने कुमाऊ और गढवाल पर क्रमशः 25 व 10.5 साल इन्यायपूर्ण शासन किया, जिसे आज भी आम जनता में गोरख्याली कहा जाता है। इसकी शुरूआत वर्ष 1790 ई0 से हुआ। 1789-90 के आसपास कुमाऊ मे चन्द राजा महेन्द्र चन्द था, और राज्य का प्रशासन काफी उथल-पुथल चल रहा था। इसी का फायदा उठाते हुए महेन्द्र चन्द का राजनीतिक सलाहाकार या दीवान हर्षदेव जोशी ने, लालच में आकर नेपाल के राजा को कुमाऊ की राजनीतिक अस्थिरता के बारे में व यहा के प्रशासन व सैन्य खामिया बता कर कुमाऊ पर आक्रमण करने की सलाह दी। उस समय नेपाल का राजा रण बहादुर था। उसने मौका का फायदा उठाते हुए जनवरी 1790 में सेनापति अमर सिंह की अगुवायी में हस्तिदल चैतरिया, जगजीत पांडे, शूर थापा की टुकडियों का कुमाऊ विजय के लिए भेजा। गोरखाओं को रोकने के लिए चन्द्र सेनापति लाल सिंह भी काली कुमाऊ आज का चम्पावत की और चल पड़ा। इस युद्ध में उसका और उसके सैनिकों में कमाल का पराक्रम दिखाते हुए गोरखा सेनापति अमर सिंह की सेना को पराजित करते हुए काली नदी के उस पार तक भगाने मे कामयाब रहा, मगर गोरखा इतनी जल्दी हार मानने वालों मे नही थे। अमर सिंह ने अपनी सेना में जोश भरा और वह दोगुनी उत्साह के साथ फिर से कुमाऊ की ओर चल पडे। इस बार युद्ध कटोल गढ में लडा गया जहा गोरखाओं से लाल सिंह में सैकडों सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया। इस युद्ध से जान बचातें हुए लाल सिंह तराई की ओर भागा। इधर राजा महेन्द्र चन्द जो लाल सिंह की मदद के लिए जा रहा था उसे जैसे ही इस घटन को समाचार मिला, वह भी अपने को सुरक्षित बचाने के लिए तराई की ओर भागा। यहा गोरखा सैनिक अब बिना किसी प्रतिरोध के अल्मोंडा की ओर चले पडे थे। गोरखाओ ने चैत्र कृष्ण प्रतिपक्ष अर्थात मार्च 1790 ई0 को अल्मोडा, जो चन्दो की राजधानी थी को अपने कब्जे में कर लिया था। कुमाऊ के चन्द शासन बडी आसानी से गोरखाओ के हाथ लग चुका था। अब वे और भी ज्यादा महत्वाकांक्षी हो चुके थे। अतः पुनः हर्ष देव जोशी की सहायता पाकर गढवाल पर आक्रमण कर दिया और 1791 ई0 में परमार शासन का एक महत्वपूर्ण किला लंगूरगढ को अपने कब्जे मे कर लिया। इसी बीच चीनी सेना द्वारा नेपाल पर हमले की खबर पाते ही गोरखाओं ने 1792 ई0 में राजा प्रधुम्न शाह के साथ संधि कर लंगूरगढ पर कब्जा छोड दिया। संधि के बावजूद भी गोरखा गढवाल पर हमले का बहाना ढूंढ रहे थे। एक ओर 1803 में गढवाल क्षेत्र को भयंकर भूकम्प ने तबाह कर दिया था, यह भूकम्प शायद इतिहास का सबसे बडा भूकम्प था। तो वही दूसरी ओर कुंवर पराक्रम शाह ने परमार सत्ता हथियाने के लिए गृहयुद्ध जैसी स्थिति बना दी थी। ये दोनो स्थितियों गोरखाओं के लिए एक निमन्त्रण के समान थी। अतः गोरखा सेनापति अमरसिंह, हस्तिदल चैतरिया, बमशाह व रणजोर थापा ने गढवाल पर अचानक हमला कर दिया। राजा प्रघुम्न शाह को कही भी इसका अंदेशा नही था कि गोरखा उन पर हमला करने वाले है वह तो संधि के मुताबिक अपने को गोरखाओं से सुरक्षित मान बैठा था। बाडाहाट (उत्तरकाशी) और चमुवा (चम्बा) मे युद्ध मे राजा की बूरी तरह हार हुई। राजा प्रघुम्न शाह राजपरिवार के साथ सहारनपूर मे शरण लेने चला गया। और वहा उसने अपने अनमोल आभूषण बेचकर तथा लण्ढौर राजा रामदयाल सिंह की सहायता पाकर, 12000 सैनिको के साथ पुनः गोरखाओ पर हमला कर दिया। देहरादून के खुडबुडा स्थान पर दोनो सेनाओं द्वारा विशाल युद्ध लडा गया। मगर राजा प्रघुम्न शाह वीरता से लडते हुए 14 मई 1804 को वीरगति को प्राप्त हो गया। साथ ही कुंवर पराक्रमशाह भागकर कांगडा में शरण लेने पहुच गया, प्रीतमशाह को गोरखाओं ने बदी बना लिया, तथा दो अन्य युवराज सुर्दशनशाह व देवीशाह या देवीसिंह गोरखाओं से भागकर हरिद्वार में शरण लेने पहुचे।
गोरखाओं व ईस्ट इंडिया कम्पनी के बीच युद्ध
इन दिनों गोरखाओं ने न सिर्फ उत्तराखंड के भूभाग को ही बल्कि तब के लगभग अधिकांश ब्रिटिश भारत के उत्तरी भाग में आतंक मचाया हुआ था। ब्रिटिश इनके द्वारा अधिकृत भाग को नजरअंदाज करते जा रहे है। मगर वर्ष 1814 में लार्ड हेस्टिंगस भारत का गर्वनर जनरल बना। वह बडा महत्वाकांशी शासक था। उसने धीरे-धीरे गोरखाओं पर लगाम लगाना शुरू किया। इस बात की सूचना युवराज सुदर्शन शाह व देवीशाह को मिली तो उन्होनें अंगेजो से अपने राज्य को गोरखाओं से स्वतंत्र करवाने का अनुरोध किया इसी कडी में अंग्रेजो ने गोरखाओ के विरूद्व उत्तराखंड के भूभाग व अन्य क्षेत्रो को स्वतंत्र कराने हेतु अपनी 4 डिवीजन भेजी। दो नेपाल और दो आधुनिक उत्तराखंड क्षेत्र के लिए भेजी। मेजर मार्ले के नेतृत्व में 1000 सैनिको को काठमांडु, मेजर जे. एस. वुड के अधीन 4000 सैनिक गोरखपुर व अन्य दो, मेरठ डिवीजन के मेजर जनरल गेलेस्पी के नेतृत्व में 3500 सैनिको ने देहरादून क्षेत्र में व लुधियाना डिवीजन के मेजर जनरल आॅक्टालोनी के नेतृत्व में 6000 सैनिको ने यमुना-सतलज दोआब क्षेत्र में गोरखाओं से युद्ध के लिए भेजा था। इससे पहले युद्ध की औपचारिक घोषणा होती उससे पहले ही गेलेस्पी को देहरादून का नालापानी किला घेरने का आदेश दिया था, नालापानी या नालागढ को खलंगा व कलंगा किला भी कहा जाता है यह रिस्पना नदी के किनारे बायी ओर गोरखाओं का एक अहम किला था, जिस पर सेनापति अमर सिंह का भतीजा बलभद्र सिंह 500 सैनिक लेकर कमान संभाले था। ब्रिटिशों ने 1 नवम्बर 1814 को औपचारिक युद्ध की घोषणा की गयी। मगर योजना के अनुरूप गेलेस्पी ने खलंगा किले पर 31 अक्टूबर को हमला कर दिया, और एक भीषण युद्ध में वह मारा गया। अंग्रेजो ने 30 नवम्बर को इस किले को तहस नहस कर इस पर कब्जा कर लिया। बलभद्र सिंह देहरादून से तो भागने में कामयाब रहा मगर पश्चिम के पंजाब के राजा रणजीत सिंह की सेना द्वारा मारा गया। क्योंकि गोरखाओं से रणजीत सिंह भी बदला लेना चाहते है। इस युद्ध में बलभद्र सिंह की वीरता देखते हुए अंग्रेजो ने रिस्पना के किनारे गेलेस्पी के साथ उसका भी एक छोटा सा स्मारक बनाया था। इस प्रकार 4 दिसम्बर तक बैराटगढ, कालसी, जौंटगढ के साथ ही लगभग सम्पूर्ण देहरादून भाग पर अंग्रेजो ने कब्जा कर लिया, मई 1815 तक सम्पूर्ण गढवाल पर अधिकार कर लिया था तथा 22 अप्रैल 1815 को गढवाली गोरखा चैकी लोहबागढ को भी खाली करवा चुके थे। दूसरी ओर अंग्रेजो की एक टुकडी जिसे कैप्टन हियरसी लीड कर रहा था, ने पुनः एक बार हर्षदेव जोशी से मदद लेकर जिसमे उसका साथ उस समय के प्रमुख पदाधिकारी महरा, फडतियाल, तड़ागी आदि ने भी दिया। 23 अप्रैल के गणनाथ-डाँडा के युद्ध में गोरखा सेनापित हस्तिदल चैतरिया मारा गया, इसकी खबर पाते ही बमशाह ने भी 23 अप्रैल 1815 को आत्मसमर्पण कर दिया।
गोरखाओ की ईस्ट इंडिया कम्पनी से संधियां
इस प्रकार गढवाल व कुमाऊँ में गोरखाओं की अंग्रेज सेना के हाथो पराजय होने के बाद 27 अप्रैल 1815 को कुमाऊँ में अंग्रेज कमांडर गार्डनर व गोरखा बमशाह व चामु भण्डारी के बीच व 15 मई 1815 को अंग्रेज जनरल आॅक्टरलोनी व गोरखा सेनापति अमर सिंह के बीच (मलाॅवगढ संधि) कुमाऊँ व गढवाल का सभी भूभाग अंग्रेजो को सौपने हेतु संधि हुई और गोरखा काली पार नेपाल चले गये। कुमाऊँ व गढवाल का भाग शांतिपूर्वक अंग्रेजो के पास आ गये मगर देश के दूसरे भाग में गोरखाओ द्वारा पुनः हस्तक्षेप किया जा रहा था। इसी सिलसिले में 2 दिसम्बर 1815 को नेपाल के राजा व अंग्रेजो के बीच ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के अधीन सम्पूर्ण भाग को लेकर एक संधि हुई। संधि के बावजूद गोरखाओं ने अंग्रेजो पर फरवरी 1816 मे संधि का उल्लघंन करते हुए आक्रमण करने की योजना बनायी। ई0 ई कम्पनी को इसका अंदाजा होते ही उन्होने आॅक्टरलोनी व कर्नल निकोल्स ने दोनो तरफो से नेपाल पर हमला कर दिया। जिसमें गोरखाओं ने आॅक्टरलोनी के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया। इस प्रकार 2 दिसम्बर 1815 की संधि का अंतिम रूप से अनुमोदन 4 मार्च 1816 किया गया। इस संधि पर नेपाल की ओर से राज गुरु गजराज मिश्र और अंग्रेजो की ओर से लेफ्टिनेंट कर्नल पेरिस ब्रेडशॉ ने हस्ताक्षर किये।
Map After Sugauly treaty |
सुगौली संधि की शर्तें
ब्रिटिश-नेपाल के बीच चले दो वर्षों तक युद्ध के बाद, शांति और मैत्री की एक संधि पर हस्ताक्षर वैसे तो 2 दिसम्बर 1815 को किया गया था किंतु नेपाल द्वारा संधि उल्लघंन के बाद इसे आधिकारिक रूप व अंतिम रूप से 4 मार्च 1816 को मान्यता मिली जो कि सुगौली मकवानपुर में नेपाल की ओर से चंद्रशेखर उपाध्याय और ब्रिटिश जनरल डेविड ऑक्टरलोनी के बीच हस्ताक्ष्किया गया। संधि मे कुछ प्रमुख शर्तें इस प्रकार थी-
- नेपाल के राजा ने कुछ तराई भाग जैसे काली और राप्ती नदियों के बीच, गंडकी और कोशी नदियों के बीच, मेची और तीस्ता नदियों के बीच, व राप्ती और गंडकी के बीच का अधिकांश तराई भाग ईस्ट इंडिया कंपनी को सौप दिया।
- भूमिहीनों की क्षतिपूर्ति के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी, 2 लाख रुपये राशि प्रतिवर्ष के रूप में देगी। भूमिहीनों की सूची राजा द्वारा तक की जायेगी।
- परन्तु दिसम्बर 1816 में एक अन्य समझौते हुआ जिसके अनुसार मेची नदी के पूर्व और महाकाली नदी के पश्चिम के बीच का तराई भाग नेपाल को वापस लौटा दिया। बदले में अंग्रेजो को दो लाख रुपए प्रतिवर्ष की क्षतिपूर्ति राशि देने की बाध्यता समाप्त कर दिया गया।
- इस संधि द्वारा नेपाल ने सिक्किम का सम्पूर्ण भाग भी उसे लौटा दिया तथा भविष्य में किसी प्रकार का गतिरोध होने पर ब्रिटिश कम्पनी को मध्यस्थ करने का अधिकार दिया।
- इस संधि के तहत काठमांडू में एक ब्रिटिश सेना की कमान रखने व कम्पनी की सेना में गोरखाओं की भर्ती की जाने पर भी सहमति बनी। साथ ही नेपाल के राजा, कम्पनी की अनुमति के बिना किसी भी ब्रिटिश, अमेरिकी या यूरोपीय नागरिक को अपनी किसी भी सेवा में ना तो नियुक्त नही कर सकता था।
- इस संधि के तहत अंग्रेजों ने मिथिला (तराई) का एक बड़ा भू-भाग नेपाल के अधीन कर दिया था. लिहाजा मिथिला की राजधानी जनकपुर अब नेपाल में अवस्थित है।
You write very well!!!!!
ReplyDeleteIts very informative.....