विरांगना जिसने तैमूर लंग तक को हरा दिया।
इतिहास में कुछ ऐसे व्यक्तित्व हुए हैं जिनके बारे में लोग ज्यादा जानते नही है। या उनके बारे मे ज्यादा बताया या लिखा नहीं गया है। जिनको अपने क्षेत्र विशेष मे तो लोकदेवता के तौर पूजा जाता है मगर बाकी दुनिया मे उसका उल्लेख तक नही मिलता है। आज मैं एक ऐसी ही वीरांगना के बारे में लिखने जा रहा हूँ, जिसे क्षेत्रीय लोग कुलदेवी के रूप में पूजते है। जो सुन्दरता मे रानी पद्मावत, वीरता में रानी लक्ष्मीबाई और सेना संचालन मे अहिल्याबाई के समान थी। इन सभी को इतिहास मे एक दर्जा दिया गया है मगर इस रानी का जिक्र स्थानीय लोकथाओ तक ही सीमित रह गया है, जिसका नाम था मौला देवी, जिनको जिया रानी, कुमाऊ की रानी लक्ष्मीबाई आदि कई अन्य नामों से भी जाना जाता है। जिसके नाम से आधुनिक रानीबाग व रानीखेत जैसे स्थानों के नाम पडे है। यह कहानी है लगभग 14वी शताब्दी की उस समय उत्तराखंड के एक विशेष भाग में कत्यूरी शासको का राज था। कुछ भाग पर परमार, चंद व पुंडीर राजा भी साथ मे ही शासन करते थे। जिया रानी का पौता मालूशाही हुआ, जिसने प्यार की एक अमर कथा लिखी थी।
जिया रानी के बारे मे लिखने से पहले में उन पहलुओ से अवगत कराना चाहता हूँ, जिनका कि इस कहानी में बार-बार वर्णन मिलता रहेगा। इसमें मुख्यतः कत्यूरी राजा प्रीतम देव ब्रह्म देव, पुंडीर शासक अजयदेव, तुर्की सेना मुख्यतः तैमूर लंग, का वर्णन है।
पुंडीर शासक-
हरिद्वार या मायापुर में पुंडीर वंश का शासन था, जो कि चैहान वंश के पृथ्वीराज चैहान के सामन्त थे। 12वीं सदी में जब तुर्को ने भारत पर आक्रमण किया तो अलग-अलग युद्ध में इसके महान शासको जैसें चन्द्र पुंडीर, उनका पुत्र धीरसेन पुंडीर और धीरसेन का पुत्र पौवस पुंडीर ने इन तुर्को से युद्ध किया व शहीद हो गये। देश में मुहम्मद गौरी तरायन के प्रथम युद्ध में पृथ्वीराज चैहान से हारने के बाद वर्ष 1192 में पुनः आक्रमण कर चैहान को पराजित कर देता है तथा दिल्ली की गद्दी पर तुर्को का राज हो जाता है, मगर हरिद्धार में पुडीर राज्य का अस्तित्व 1192 के बाद भी 200 साल तक वजूद मे रहता है। लगभग वर्ष 1380 मे अमरदेव पुंडीर राजा बनता है। जिसकी पुत्री थी मौला देवी। पुंडीर राजा ने युद्ध में सहायता के कारण अपनी बेटी मौला देवी की शादी कत्यूरी शासक प्रीतमदेव से कर दी थी। पुंडीर शासक वत्सराजदेव तैमूर लंग से हारकर नकौट क्षेत्र में छुप गया था, जहां आज भी इनके वंशज रहते है और मखलोगा पुंडीर के नाम से जाने जाते हैं,
क्या आप जानते है जियारानी के पौते है मालूशाही। जो राजूला-मालूशाही अमर प्रेम कहानी का हीरों है स्टोरी पढ़े
कत्यूरी राजवंश व शासक प्रीतमदेव ( शासन 1380-1400)
कत्यूरी राजवंश भारत के उत्तराखण्ड राज्य का एक मध्ययुगीन राजवंश था, जिसे ही उत्तराखंड का पहला ऐतिहासिक राजवंश माना जाता है। जो कुषाणों के परवर्ती शासक थे। हालांकि कुछ इतिहासकार कत्यूरों को कुषाणों के वंशज कहते हैं, जबकि कुछ जैसे अंग्रेज पावेल प्राइस कत्यूरों को ‘कुनिन्द’ मानता है।माना जाता है कि यह राजवंश अयोध्या के शालिवाहन शासक के वंशज थे, जो ‘गिरिराज चक्रचूड़ामणि’ की उपाधि धारण करते थे, यानी सूर्यवंशी राजपूत थे (राजपूत सूर्यवंशी, चन्द्रवंशी, अग्नीवंशी कई प्रकार के होते है)। इनका सु-शासन कुमाऊँ या पूरे उत्तराखंड में 6ठी--12वीं सदी तक था, जो कई शाखायें मे राज करते थे। आज भी बागेश्वर-बैजनाथ स्थित घाटी को भी कत्यूर घाटी कहा जाता है। इनके द्वारा बनाये गये कत्यूरी शैली के द्वाराहाट, जागेश्वर, बैजनाथ आदि स्थानों के प्रसिद्ध मंदिर आज भी कलाकृति का उत्तम उदाहरण हैं। माना जाता है कि कुमाऊ मे भगवान विष्णु ने कूर्म अवतार लिया था जिस कारण इन्होने अपने राज्य को ‘कूर्मांचल’ कहा था, जो आज का कुमाऊ हो गया था।
यह था कत्यूर राजवंश का संक्षिप्त इतिहास। इस के कुल 49 शासक हुए थे, और इस कहानी का संबंधी इसके 47वें शासक प्रीतम देव, जिन्हेें ‘पिथौराशाही’ नाम से भी जाना जाता है, से है इनकी राजधानी खैरागढ़ थी। चूकि तब का यह क्षेत्र काफी दुरूह था जिस कारण इस क्षेत्र पर उस समय के तुर्की आक्रमण का प्रभाव कम था। जिस समय तुर्कों ने उत्तर भारत पर हमला किया तो वह उत्तराखंड के मैदानी क्षेत्र तक आ गये थे। जिसमे हरिद्वार का पुडीर राज्य भी था। पुंडीर अमरदेव द्वारा सहायता मांगने पर राजा प्रीतम देव ने अपने भतीजे ब्रह्मदेव (इसके एक पुत्र का नाम भी ब्रह्मदेव था।) को सेना के साथ सहायता के लिए भेजा। जिससे प्रभावित होकर राजा अमरदेव पुंडीर ने अपनी पुत्री मौला देवी का विवाह राजा प्रीतमदेव उर्फ पृथ्वीपाल से कर दिया।
नोट-कहा जाता है कि कत्यूरी प्रीतम देव के नाम पर वर्तमान पिथौरागढ़ जिले का नाम पड़ा। दुलाशाही इसी का पुत्र था, जिसका पुत्र मालूशाही राजूला-मालूशाही का नायक है
तुर्की व तैमूर लंग-
तुर्कों में सबसे पहले महमूद गजनी ने भारत पर 11वीं सदी में आक्रमण किया। इसका मुख्य उद्देश्य धन दौलत लूटकर अपने साम्राज्य को समृद्ध करना व इस्लाम का प्रचार करना था। इसके बाद मुहम्मद गौरी ने 1192 मे तरायन के युद्ध से भारत की सत्ता अपने गुलामों को सौंप कर वापस गजनी चला गया। इन्ही गुलामों ने दिल्ली में गुुलाम वंश व दिल्ली सल्तनत की स्थापना की और आस पास के राज्यो को हडपना शुरू किया। इसी क्रम में इन्होने उत्तराखंड के तराई क्षेत्र को अपने रूहेला सरदारो के माध्यम से बहुत लूटा।वर्ष 1398 में मध्य एशिया के हमलावर तैमुर ने भारत पर हमला किया और दिल्ली मेरठ को रौंदता हुआ वो हरिद्वार पहुंचा जहाँ उस समय वत्सराजदेव पुंडीर शासन कर रहा था, उन्होंने वीरता से तैमुर का सामना किया। मगर शत्रु सेना की विशाल संख्या के आगे उन्हें हार का सामना करना पड़ा। समूचे हरिद्वार में भयानक नरसंहार हुआ,जबरन धर्मपरिवर्तन हुआ और राजपरिवार को भी उतराखण्ड के नकौट क्षेत्र में शरण लेनी पड़ी वहां उनके वंशज आज भी रहते हैं और मखलोगा पुंडीर के नाम से जाने जाते हैं।
उत्तराखंड की अमर प्रेम कहानी राजूला-मालूशाही कत्यूरी
जिया रानी
जैसा कि उपर वर्णन है कि जिया रानी का बचपन का नाम मौला देवी था। वह पुंडीर राजा अमरदेव पुंडीर की पुत्री व खैरागढ़ के कत्यूरी सम्राट प्रीतमदेव (1380-1400) की राजी थी। इतिहास में उनका अन्य जिया रानी (उस समय जिया का अर्थ मां होता था) प्यौंला या पिंगला भी बताया जाता हैं। इतिहासकारों के अनुसार धामदेव या दुलाशाही (1400-1424) व ब्रह्मदेव उनके पुत्र थे। जबिक मशहूर लोककथा नायक मालूशाही (1424-1440) उनका पोता था।कुछ इतिहासकार जियारानी को मालवा देश से संबंधित मानते है उनका मानना है कि मालवा, मध्य प्रदेश के अलावा पंजाब में भी फैला था इसी से जुडा मालवा का कोई भाग पहाडी क्षेत्र रहा होगा, जिसकी शाखा के शासक कुमाउ के बडे खाती राजपूत थे। मगर इस तथ्य को मानने वाले इतिहासकार इतिहास की अन्य कडियों को जोडने में असफल रहे। अतः आज जिया रानी को मालवा राजकुमारी या पुंडीर राजकुमारी माना जाता है।
जिया रानी एक भक्त व तपस्वी
जैसा कि प्रीतमदेव द्वारा अमरदेव पुंडीर की मदद के बदले पुंडीर राजा ने अपनी बेटी की शादी प्रीतमदेव से करा दी। कहा जाता है कि राजकुमारी मौला इस शादी से राजी नहीं थी इसके पीछे कई कारण बताये जाते है एक जो उनमे प्रमुख है वह कि राजा प्रीतमदेव की उम्र काफी थी। मौला देवी ने राजा से शादी अपने पिता की जिद से की थी, जिस कारण राजा और रानी में अनबन रहने व रानी द्वारा राजमहल त्यागने के विवरण मिला है। राजमहल छोडकर रानी गौला (गार्गी) और पुष्या नदियों के संगम पर खुबसूरत क्षेत्र (रानीबाग) में रहने लगी। चूंकि रानी आस्तिक, दानी, पुण्यकर्मी थी अतः उन्होने वही एक गुफा को अपनी तपस्या के लिए चुना। रानी इस क्षेत्र मे लगभग 10-12 साल तक रही। यही उन्होनंें फलों का विशाल बाग लगाया। इसी वजह से इस स्थान का नाम रानीबाग पड़ गया। धीरे-धीरे रानी ने सेना की एक छोटी टुकड़ी गठित कर ली थी तथा इस क्षेत्र को एक छावनी में तबदील कर ली थी।विरांगना जिया रानी
क्योंकि दोआब उन दिन राजस्व वसूली का प्रमुख क्षेत्र होता था अतः गंगा-जमुना-रामगंगा के दोआबों में तुर्कों का राज स्थापित हो चुका था, उनके सामन्तो में रुहेले या रोहिल्ले (रूहेलखण्डवाले) थे, जो राज्य विस्तार या लूटपाट के उत्तर के तराई भाग को हथियाना चाहते थे।1398 में तैमूर लंग के हरिद्वार पर आक्रमण करके पुंडीर शासक वत्सराजदेव पुंडीर को पराजित करने वहा से भागने पर मजबूर किया। उसने अपनी एक मजबूत टुकड़ी पहाड़ी राज्य (हल्द्वानी) की ओर हमला करने के लिए भेजी। दूसरी ओर रानी से खतरे को भापते हुए पहले ही कुमाऊँ राजपूतों की एक सेना का गठन किया लिया था। तैमूर की सेना और जिया रानी के बीच रानीबाग क्षेत्र में भीषण युद्ध हुआ, जिसमें तुर्क सेना की जबरदस्त हार हुई। खतरा अभी टला नहीं था कि सैनिक तैमूर लंग की सेना पर जीत से निश्चिन्त हो गए थे, लेकिन दूसरी तरफ से अतिरिक्त मुस्लिम सेना आ पहुँची और इस हमले में जिया रानी की सेना की हार हुई। उधर राजा प्रीतम देव को इस हमले की सूचना मिली तो वो जिया रानी से चल रहे मनमुटाव के बावजूद स्वयं सेना लेकर आए और मुस्लिम हमलावरों को मार भगाया। इसके बाद वो जिया रानी को अपने साथ पिथौरागढ़ ले गए।
अल्पवयस्क पुत्र की उत्तराधिकारी जियारानी
राजा प्रीतमदेव की बढती उम्र के कारण मृत्यु होने पर उनके छोटे पुत्र दुला शाही (धामदेव) को राजसिंहासन पर बैठाया गया। धामदेव अल्पायु होने की वजह से रानी मौला देवी ने उसके संरक्षक के तौर पर शासन किया तथा जनता के हित को सर्वप्रमुख रखते हुए निर्णय लिये। उनके इस परोपकार के लिए लोगो ने उन्हे माता (जिया) रानी का दर्जा दिया तथा तब से ही उन्हे जियारानी कहा जाने लगा।चित्रेश्वर लगाव
जियारानी को चित्रेश्वर से बेहद लगाव था, उस वक्त भी जब वह राजपरिवार से 12 वर्ष अलग रही तो यही चित्रेश्वर मे ही जप तप व भक्ति मे लगी रही। कहते हैं कि रानी ने अपनी अतिम सांस भी रानीबाग मे ही ली। जब उनका पुत्र दुलाशाही बडा हो गया था। जिया रानी यहाँ चित्रेश्वर महादेव के दर्शन करने आई थी। जैसे ही रानी नहाने के लिए गौला नदी में पहुँची, वैसे ही तुर्क सेना ने उन्हें घेर दिया। रानी शिव भक्त और सती महिला थी। उन्होंने अपने ईष्ट देवता का स्मरण किया और गौला नदी के पत्थरों में ही समा गई।तुर्कों सैनिकों ने उन्हें बहुत ढूंढा लेकिन उन्हें जिया रानी कहीं नहीं मिली। लोककथाओं मे माना गया है कि उन्होंने अपने आपको अपने लहँगे में छिपा लिया था और वे उस लहँगे के आकार में ही शिला बन गई थीं। गौला नदी के किनारे आज भी एक ऐसी शिला है जिसका आकार कुमाऊँनी पहनावे वाले लहँगे के समान हैं। उस शिला पर रंगीन पत्थर ऐसे लगते हैं मानो किसी ने रंगीन लहँगा बिछा दिया हो। वह रंगीन शिला जिया रानी का स्मृति चिन्ह माना जाता है।
शिलाओं का पौराणिक महत्व
गौला नदी के किनारे चित्रशिला है, जो कि एक विचित्र रंग की शिला है। मान्यता है कि इसमें ब्रह्मा, विष्णु, शिव की शक्ति समाहित है। पुराणों के अनुसार नदी किनारे वट वृक्ष की छाया में ब्रह्मर्षि ने एक पांव पर खड़े होकर, दोनों हाथ ऊपर कर विष्णु ने विश्वकर्मा को बुलाकर इस रंगबिरंगी अद्भुत शिला का निर्माण करवाया और उस पर बैठकर ऋषि को वरदान दिया।इस रंगीन शिला को जिया रानी का स्वरुप माना जाता है और कहा जाता है कि जिया रानी ने अपने सतीत्व की रक्षा के लिए इस शिला का ही रूप ले लिया था। रानी जिया को यह स्थान बेहद प्रिय था। यहीं उन्होंने अपना बाग भी बनाया था और यहीं उन्होंने अपने जीवन की आखिरी साँस भी ली थी। रानी जिया के कारण ही यह बाग आज रानीबाग नाम से मशहूर है।
जिया माता मंदिर चित्रेश्वर
कत्यूरी वंशज जिया रानी की पूजा अपनी कुल देवी की तरह करते है। आज भी प्रतिवर्ष मकर संक्राति 14 जनवरी को चित्रशिला में मेला लगता है जिसमे प्रीतमदेव व जियारानी की तुर्कों पर विजय का वर्णन हर्षोउल्लास से करते है, और जागर गाते हैं। इस दौरान यहाँ पर सिर्फ ‘जय जिया’ का ही स्वर गूंजता है। लोग रानी जिया को पूजते हैं और उन्हें ‘जनदेवी’ और न्याय की देवी माना जाता है। जिया रानी उत्तराखंड के कुमाऊँ क्षेत्र की एक प्रमुख सांस्कृतिक विरासत बन चुकी हैं।आशा करता हूँ मेरा यह प्रयास आपको अच्छा लगा होगा। इस बारे मे लिखने का आशय सिर्फ इतना था ताकि हम जान सके कि विदेशी इतिहास के मुकाबले हमारा अपना इतिहास कितना गौरवमयी है।
Good informationa
ReplyDeletefab work bro....
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