Sunday, April 12, 2020

Kaffu Chauhan A great warrior Of Uttarakhand I उत्तराखंड के वीर योद्धा कफ्फू चौहान I अजय पाल और कफ्फू चौहान का युद्ध I

उत्तराखंड के वीर योद्धा कफ्फू चौहान


उत्तराखंड की धरती ने हमेशा से ही वीर योद्धा को जन्म दिया है, प्राचीन काल हो या आज का युग इसके वीरो की बहादुरी और दलियादिली के किस्से हर जगह है, जहा तक कि प्राचीन इतिहास की बात की जाय तो óोतो की कमी के कारण कुछ योद्धा सिर्फ स्थानीय किस्सों कहानियों तक ही सीमित रह गये है। आधुनिक काल में जब अंग्रेजो ने 1815 ई0 में इस क्षेत्र पर अपना अधिकार किया था तब से ही वे यहा के वीरो योद्धाओं में साहस और हिम्मत से आश्चर्यचकित रह गये थे। उन्होंने इस वीरों के साहस को देखते ही अपनी अंगरक्षक सेना में पहली पक्ति पर उत्तराखंड के नौजवान वीरो को ही रखा। आज इस लेख में एक ऐसे ही वीर योद्धा जिसे यहा के लोग लोककथाओं व स्थानीय किस्सों में तो याद करते ही है साथ ही वे इस क्षेत्र के वीरता के प्रतीक भी माने जाते है जिनकी लोग पूजा तक करते है। वह थे उपूगढ़ के गढ़पति कफ्फू चौहान।
जैसा कि हममे से अधिकतर लोग जानते होगे कि प्राचीन काल या यू कहे कि मध्य काल तक गढ़वाल में 52 गढ़ थे। जैसे चांदपूरगढ़, कण्डारागढ़, कोलीगढ़, उपूगढ़ आदि। गढ़वाल क्षेत्र में 9वीं सदी से ही पवांर राजाओं का वर्चस्व रहा है। इनमें से 37वें राजा अजय पाल (1490 ई0- 1519 ई0 तक) जिनको को कई अन्य विभूतियो से भी स्मरण किया जाता है ने पहली बार इन 52 गढों को एकीकरण का विस्तारवादी कार्य किया। जिस कारण यह क्षेत्र आज का गढ़वाल कहलाता है। इन 52 गढ़ों में से ही एक गढ़ उदयपुर का उपूगढ़ के गढ़पति थे राजा कफ्फू चौहान, जिनकी 16वीं सदी की शौर्यगाथा, के किस्से आज भी लोकगीतों में सुनने को मिलते हैं। उपूगढ़ का क्षेत्र आज के टिहरी गढ़वाल का हिस्सा है। 16वीं सदी में गढ़वाल के पवांर वंश के 37वें राजा अजयपाल उपूगढ़ पर कब्जा करना चाहता थे, पर उपूगढ़ का गढ़पति किसी बाहरी की दासता स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे। 


क्यों कफ्फू चौहान नही चाहता था दासता

जैसा कि उस समय यह क्षेत्र (लगभग 35000 वर्गकिलोमीटर का क्षेत्र) कुछ मिलाकर बहुत ही छोटा क्षेत्र था, और वह भी 52 गढ़ों में विभक्त था ऐसे में अनुमान लगाया जा सकता है कि आस-पास के गढ़पति एक दूसरे से कैसे युद्ध या एक दूसरे का क्षेत्र हडपने के लिए ईष्र्या रखते होगे या बाहरी मानते होगें। जहां तक उस समय की बात की जाय तो अधिकतर गढ़ों पर पंवार वंश या परमार वंश के राजाओं का अधिकार था, जिस वंश की नींव गुजरात से आये कनकपाल ने की थी, इसलिए भी अधिकतर गढ़पति पंवार वंश के राजाओं को बाहरी मानते थे। इन्ही कारणों से कफ्फू चौहान इस पंवार शासको की अधीनता स्वीकार करना नही चाहता था। जाहिर सी बात है कि जैसे अन्य पंवार वंशीय राजा गढ़ों का एकीकरण चाहते थे वैसे ही पंवार वंशीय 37वें राजा अजयपाल भी चाहता था। 

कैसे हुआ मतभेद कि युद्ध की स्थिति बन गयी-

इतिहासिक तथ्यों की कमी और लोककथाओं के अनुसरण में भिन्नता के कारण आज इस विषय पर अनेक मत है कि कैसे उपूगढ़ के गढ़पति कफ्फू चौहान व पंवार शासक अजयपाल के बीच युद्ध की स्थिति आयी। इसे लेकर आज के दिन के दो प्रमुख मान्यताएं है, हालांकि दोनो में ज्यादा अंतर नही है दोनो ही इसी बात की और इशारा करते है कि गढ़पति कोई साधारण योद्धा नहीं है। इनमें अंतर है तो सिर्फ युद्ध की शुरूआत के कारणों का।



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पहला मत

राजा अजयपाल ने अपनी विस्तारवादी सोच में शुरू से ही स्पष्ट करना चाहता था। जब लगभग 1490-91 ई0 अजयपाल पंवार वश का शासक बना तो उसने अपनी विस्तार वादी सोच के साथ अपनी ताजपोशी के वक्त क्षेत्र के सभी गढ़पतियों व गणमान्यों को दरबार में राजा के प्रति अपनी सम्मान प्रकट करने व नजराना देने के लिए आमंत्रित किया। कुछ गढ़पति आये और कुछ ने उनके पक्ष में संदेशा भिजवाया, क्योंकि राजा बनने से पहले ही क्षेत्र के सभी गढ़ो को अंदाजा हो गया था कि अजयपाल किनता शक्तिशाली राजा है सो उससे मित्रता ही उन गढ़पतियों के हित मे है, परन्तु इसके वावजूद भी उपूगढ़ का गढ़पति कफ्फू चौहान तो आया नही उल्टा उसने राजा के नाम एक संदेशा भिजवाया- कफ्फू ने लिख भिजवाया कि वह ’जंगली जानवरों में शेर और पक्षियों में गिद्ध है, अतः वह अजय पाल के समक्ष झुककर अपने स्वाभिमान के खिलाफ नही जा सकता है।
उस वक्त अजयपाल के पास मात्र 8 गढ़ थे, और लगभग 14-15 गढ़ों के गढ़पतियां का अनआधिकारिक स्वीकृत प्राप्त कर चुका था। पर वो पूरे 52 गढ़ों पर कब्जा करना चाहता था या उनका एकीकरण करना चाहता था
जाहिर सी बात है कि एक साधारण गढ़पति ने पंवार वंश के शासक को इस प्रकार से संदेशा भिजवाया तो राजा आग बबूला हो गया होगा। किन्तु इसके बाद भी राजा ने उसे चेतावनी दी कि यदि वह उनकी अधीनता नही स्वीकारेगा, तो वह उनके किले पर आक्रमण कर देंगा, किन्तु राजा को पता नही था कि कफ्फू चौहान एक साधारण गढ़पति नही है, जिसे डरा धमकाकर चुप कराया जा सकता है। अब बारी थी कफ्फू चौहान के जवाब की तो उसने लिख भेजा कि राजा अजयपाल तुम्हारी अधीनता तो दूर की बात मैं खुद तुम्हारी राज्य पर हमला करूँगा और तुम्हारी राजधानी श्रीनगर व वहां के बाग-बगीचों को तहस-नहस कर दूंगा। इस घोर अपमान में बाद अजयपाल ने उपूगढ़ पर आक्रमण की तैयारी कर ली, उसने स्वयं ही सेना की कमान संभाली और उपूगढ़ पर हमला करने गंगा के उस पार किनारे जा पहुंचा जिसके दूसरे छोर पर लगभग 400 मी0 की ऊंचाई पर कफ्फू चौहान का किला स्थित था।
सामने अजयपाल की सेना देख कफ्फू चौहान ने अपने परिवारवालो को सारी घटना विस्तार से बतायी और साथ ही अपनी योजना भी कि जो भी हो मैं राजा के सामने झुक नही सकता मै इतना कायर नही हूँ, मैं असली क्षत्रिय परिवार से ताल्लुक रखता हूँ, अगर मैने ऐसा किया तो मेरी इस कायरता को देखकर स्वर्ग में मेरे पिता की आत्मा को कष्ट होगा, जो मैं बिल्कुल नही चाहता हूँ।
नदी के उस पार अजय पाल की सेना थी और अगले दिन राजा उपूगढ़ पर हमला करने वाला था तो कफ्फू चौहान को एक उपाय आया जिससे उसने गंगा पर बने पुल को जो कि उस समय रस्सीयों और लकडियों का बना होता था, काटकर गिरा दिया। कफ्फू चौहान के इस हरकत से राजा अजयपाल और भी क्रोधित हो गया। उसने सेना को आदेश दिया कि जल्द ही नया झूलेदार पुल का निर्माण कर महल को चारों तरफ से घेर लिया जाए। इधर झूला निर्माण कार्य चल रहा था उधर कफ्फू चौहान के परिवारवाले उसे समझाने मे लगे थे कि राजा से माफी मांग ले तथा संधि प्रस्ताव भेज दे ताकि राजा सब भूल कर गढ़पति को माफ कर दे और शायद जीवनदान दे दें। क्योकि सभी को लगता था कि राजा अजयपाल की सेना के सामने गढ़पति की सेना मुकाबला नही कर सकती है। मगर कफ्फू चौहान शायद इतिहास लिखने के लिए बना था वह कहा संधि प्रस्ताव भेजता, उसने ठान लिया यदि उसका सिर धड़ से अलग भी हो जाए तो भी वह राजा के समक्ष आत्मसमर्पण नहीं करेगा। उसे लगा कि पुल बनते ही राजा उसके किले को घेर लेगा तथा हमला कर देगा, इससे पहले ही उसने मुट्टी भर कुछ सैनिकों को लेकर राजा की सेना पर ही हमला कर दिया। बताया जाता है कि वह इतनी बहादुरी से लड़ रहा था मानों उस पर ईश्वर का वरदार हो, वह एक ओर से अकेले ही राजा अजय पाल की आधी सेना को धराशाही कर रहा था, और खून की नदियां बहा दी थी। वही दूसरी ओर उसकी सेना अपने सरदार के साथ अजयपाल की सेना की एक टुकड़ी से लड़ रही थी, जिसमे से अधिकतर अजयपाल के सेना के हाथों मारे जा चुके थे। युद्ध स्थल का सारा नजारा कफ्फू चौहान के गढ़ से दिख रहा था। उसके परिवार के सदस्यो को अंदेशा हुआ की कफ्फू भी युद्ध मे मारा जा चुका है, चूकिं महल के जिस युद्ध स्थल को जो भाग दिख रहा था वहां राजा अजयपाल द्वारा कफ्फू के सैनिकों की दुर्शशा हो रही थी, तो कफ्फू के परिवार के सदस्यों मा व अन्य ने सोचा कि कफ्फू द्वारा राजा अजयपाल को धमकी देने व अन्य कारणो से राजा उनको भी मार देगा। अतः उन्होंने निर्णय लिया कि शत्रु राजा अजयपाल के हाथों मारे जाने से बेहतर कि आत्महत्या कर ले तथा सभी अग्नी मे समाहित हो गये। इधर गढ़पति ने दुश्मन राजा को पीछे धकेलने मे कामयाब हुआ और अंशतः अपनी विजय से जब वह महल पहुचो तो वह इस भयानक दृश्य को देखकर मृत सा हो गया। इसी बीच राजा अजयपाल की सेना की बची हुई टुकड़ी उसका पीछा करते हुए महल में ही उसे घेर लिया तथा बंदी बना लिया। 


उत्तराखंड का गौरव। बलिदान और वीरता एक मिशाल वीर योद्धा भड़ माधों सिंह भंडारी।

दूसरा मत

यह मत इस विवाद को मात्र एक अजयपाल की विस्तारवादी सोच से उपजी एक सामान्य घटना बताया गया है जिसमें अजयपाल ने लगभग 45 गढ़ जीत लिए लेकिन 52 गढ़ों में से एक उपूगढ़ भी बचा था। अब उसने उपूगढ़ जितने की योजना बनायी और यहां के गढ़पति कफ्फू चौहान को आत्मसमर्पण करने को कहा जिसे गढ़पति ने नकार दिया था। तब राजा अजयपाल ने दिवाली के कुछ दिन पहले उपूगढ़ पर हमला कर दिया। कफ्फू चौहान ने अजयपाल की सेना से न सिर्फ वीरता से सामना का बल्कि उसे सीमा से 18 किलोमीटर दूर जोगियाणा तक खदेड़ दिया।
इसी बीच एक दुखद घटना हुई। किसी ने कफ्फू चौहान की मां और पत्नी को उसकी वीरगति की झूठी सूचना दे दी। दोनों ने गम में जलती चिता में कूदकर अपनी जान दे दी। जैसे ही कफ्फू चौहान ने अपनी माता और रानी की मौत के बारे में सुना तो उन्होंने अपने सिर के बाल काट दिए। कहते हैं कि कफ्फू चौहान को वरदान मिला था कि जब तक उनके सिर पर जटा रहेगी, उन्हें कोई हरा नहीं सकता। इसी बीच अजयपाल ने कफ्फू चौहान और उसकी सेना पर फिर से हमला कर दिया। कफ्फू चौहान बंदी बना लिए गए। कहते हैं कफ्फू चौहान को राजा अजयपाल ने मौत की सजा दी। 


कफ्फू चौहान की वीरगति

मत चाहे जो भी हो एक बात जाहिर होती है कि कफ्फू चौहान कितने बड़े वीर योद्धा थे। पहले मत के अनुसार उनकी बहादूरी के स्वाभिमानी रूप दिखाता है तो दूसरा मत इस बात को दर्शाता है कि जिस राजा के पास 45 गढ़ो की शक्ति हो, वो भी अजयपाल जैसे राजा के पास जो उत्तराखंड के सबसे महान शासकों मे सबसे उपर आता है, उसे युद्ध स्थल से दूर खदेडना एक असाधारण प्रतिभा ही होगी।
जो भी हो दोनो मत के अनुसार अंत में जब कफ्फू चौहान को बंदी बनाकर राजा अजयपाल के पास लाया गया तो उसने फिर से अपनी अधीनता स्वीकार करने पर रिहा कराने का वायदा किया मगर कफ्फू चौहान का जवाब नही बदला। अंततः राजा ने अपने सेनापति को आदेश दिया कि उसका सिर धड़ से इस प्रकार अलग कर दिया जाये, ताकि वह राजा के चरणों में आकर गिरे।

जब सैनिक कफ्फू का सिर काटने लगे तो उसने भयंकर क्रोध में अपने सिर को झटका और धरती की दो मुट्ठी धूल को अपने मुंह मे रखकर निगल गया और बड़ी बहादुरी तथा नफरत भरी मुस्कान से राजा अजय पाल की तरफ देखा, कहते हैं कि जब कफ्फू का सिर धड़ से जुदा हुआ तो वह राजा के चरणों पर गिरने के बजाए राजा के सिर पर जा टकराया.

राजा अजय पाल कफ्फू चौहान की इस बहादुरी व वीरगति के आगे न सिर्फ नतमस्तक हुआ बल्कि उसने बड़े सैनिक सम्मान के साथ गंगा के किनारे कफ्फू चौहान का अंतिम संस्कार भी किया।
कफ्फू चौहान की वीरता के किस्से आज भी लोकगीतों के तौर पर सुनाए जाते हैं। उप्पुगढ़ में रहने वाले चौहान जाति के लोग खुद को वीर कफ्फू चौहान का वंशज मानते हैं।


óोत- उत्तराखंड के इतिहास से जुडे विभिन्न पुस्तकों से।

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