महाराणा प्रताप व उनसे जुडा हल्दीघाटी व खमनौर का मैदान (Maharana Pratap and war Of Haldighati)
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Maharana Pratap 13th Rana Of sisodiya dynastry |
इतिहास लेखन अपने आप मे एक जटिल काम है, क्योंकि इसमे प्राचीन काल के मिले मामूली से संकेत को विस्तार से लिखना, समझना और समझाना होता है। मगर इतिहास में भी कई ऐसी घटनाएं है जिन पर सवालिया निशान लगे हंै स्थानीय जनता के साथ ही इतिहासकार भी इन घटनाओं की प्रमाणिकता पर सवाल उठा चुके है। ऐसी घटनाओं में एक घटना थी बख्शी जगबन्धु द्वारा शुरू हुई पाइका विद्रोह की जिसे उडीशा सरकार द्वारा केंद्र सरकार को अनुरोध किया गया है कि 1857 की क्रांति स्वतंत्रता के लिए लडी गयी पहली घटना न होकर उससे भी कई वर्ष पहले 1817-21 में उडीशा के पाइका में हुआ विद्रोह को स्वतंत्रता संग्राम के लिए पहली लडाई की मान्यता दी जाये। ऐसी ही एक अन्य कहानी है, मेवाड के सूर्यवंशी राजपूत शासक महाराणा प्रताप और उनसे जुडे हल्दीघाटी की। हल्दीघाटी के युद्व की कहानी जैक श्नाइडर के डायरेकशन में 2006 में बनी हालीवुड फिल्म 300-स्पार्टन से कुछ हद तक समानता रखती है। इस फिल्म में राजा लियोनाइडस अपने 300 सैनिकों के साथ 1 लाख परशियन सैनिकों से लडता है। और कैसे एक संकरी सी घाटी मे उन लाखों सैनिकों में से अधिकांश को मौत के घाट उतार देता है? हल्दीघाटी का युद्ध भी एक ऐसी ही स्थिति के बारे मे है जहां महाराणा प्रताप हल्दीघाटी के एक संकरी घाटी में मुगल सैनिको को कुछ समय तक रोककर तहस नहस करते है। मगर युद्ध के परिणाम मे अभी तक संशय है कि कौन इस युद्ध में विजयी हुआ। मुगल इतिहासकार इस युद्ध में अकबर की विजय मानते हैं मगर इसके विपक्ष में कई इतिहासकार कुछ अलग ही प्रमाण प्रस्तुत कर हल्दीघाटी के युद्ध के परिणाम पर प्रश्न चिन्ह लगा देते है। उनके तर्को में है कि क्यों इस युद्ध के बाद आँसफ खाँ व राजपूत राजा मान सिंह जो मुगलो की ओर से हल्दीघाटी के युद्ध लडे था, से युद्ध के बाद अकबर खासा नाराज था, तथा उनके जागीर भी कम कर दिये थे? इसके साथ ही हल्दीघाटी के युद्ध के समय मुगल सेना का राजपूत सेना का पीछा न करना व मेवाड पर प्रत्यक्ष अधिकार न होना तथा 1576 के बाद भी महाराणा प्रताप ने जमीदारों को भूमि के पट्टे आबंटित किये जाना। ऐसे कई तथ्यो को ध्यान मे रखकर राजस्थान के इतिहासकार चंद्रशेखर शर्मा ने इस पर शोध करना शुरू किया और इस नतीजे पर पहुचे कि हल्दीघाटी के युद्ध मे कही न कही महाराणा प्रताप की ही जीत हुई थी।
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महाराणा प्रताप के बारे में प्राप्त जानकारियों को क्रमवद्ध करने से पहले जानिये महाराणा प्रताप व हल्दीघाटी के युद्ध के बारे कुछ रोचक तथ्य Some amazing facts about Maharana Pratap and Haldghati
- महाराणा प्रताप एकमात्र राजपूत राजा थे जिन्होंने मुगल सम्राट अकबर के सामने आत्मसमर्पण करने से इनकार कर दिया था।
- महाराणा प्रताप के बारे मे कहा जाता है कि उनका कद लगभग 7.5 फीट और वजन करीब 115-120 किलो के आसपास था। सिटी रॉयल गैलरी संग्रहालय, उदयपुर में संरक्षित 1 भाला व 2 भारी है जिसे कभी महाराणा प्रताप इस्तेमाल किया करते थे।
- महाराणा प्रताप के युद्ध कौशल को ंइसी बाता से पहचाना जा सकता है कि वे जो कवच पहनते थे उसका वजन 72 किलो का था, 25 किलो की तलवार लेकर वह जब दुश्मन पर वार करते तो सैनिक का शरीर सहित घोडे के भी दो टुकडे कर देते थे। उनका भाला भी लगभग 80 किलो के आसपास के वजन का बताया जाता है।
- महाराणा प्रताप के जीवन में भामाशाह, जो रणथंभौर के किलेदार के पुत्र और महाराणा के बचपन के मित्र व सलाकार थे, की महत्वपूर्ण भूमिका है। भामाशाह, जो इतिहास में अपनी दानवीरता के लिये जाने जाते है। जब महाराणा प्रताप अपने परिवार के साथ जंगलों में भटक रहे थे, तब भामाशाह ने अपनी सारी जमा पूंजी महाराणा को समर्पित कर दी।
- महाराणा प्रताप की 11 पत्नियां, 22 बेटे और 5 बेटियां थीं।
- इतिहासकार मानते हैं कि अकबर ने अपनी अधीनता स्वीकारने के लिए ने महाराणा को मुगल साम्राज्य का आधे भाग की जागीद देने की पेशकश की थी। जिसे महाराणा प्रताप ने अपने स्वाभिमान के खिलाफ मानते हुए ठुकरा दिया।
- हल्दीघाटी का नाम हल्दीघाटी इसकी मिट्टी मे हल्दी जैसा रंग व गुण होने के कारण पडा। हल्दीघाटी का युद्ध सिर्फ हल्दीघाटी मे ही नही बल्कि खमनौर के मैदान मे भी लडा गया था। मुगल इतिहासकार अबुल फजल ने भी इसे “खमनौर का युद्ध” कहा है। यह युद्ध मात्र 4 घंटे तक चला जिसमे लगभग 17000 सैनिक मारे गये।
- इस युद्ध में महाराणा की सेना, मुगल सेना की एक चैथाई थी, ब्रिटिश इतिहासकार कर्नल जेम्स टॉड के अनुसार महाराणा की सेना में 22000 सैनिक व महाराणा कि सेना मे 80000 सैनिको के होने का अंदेशा है। टाॅड के इस मत को लेकर अधिकांश इतिहासकारों नही है उनका तर्क है कि जिस समय हल्दीघाटी का युद्ध हुआ था। उस समय मुगल सैनिको की ही कुल संख्या 60000 थी। इस पर इतिहासकार मुहणौत नैझसी कई मुगल इतिहासकारों व यदुनाथ सरकार का संदर्भ लेकर यह संख्या 5000 व 20000 मानते है।
- महाराणा प्रताप ने हल्दीघाटी के युद्ध के बाद अपना अधिकांश जीवन चावंड शहर में बिताया और वहां अपनी राजधानी का पुनर्निर्माण किया। राजस्थान के चावंड गांव में उनके नाम पर एक स्मारक बनाया गया है।
- हल्दीघाटी का युद्ध सैनिको के अलावा जानवरों के बीच भी लडा जा रहा था। जहां एक और महाराणा की सेना में पूणा और रामप्रसाद नाक के हाथी थे व चेतक नाम का घोडा था वही मुगल सेना में गजमूक्ता व गजराज नाम के हाथियों की सेवा थी। कहा जाता है कि रामप्रसाद ने अकेले ही 17 मुगल हाथियों को मार डाला था। इसके महावत की मौत के बाद यह मुगलो के हाथ लग गया था। इसके लिए अकबर ने खास इंतेजाम किया था, और उसने इसका नाम पीर प्रसाद रखा था। ये भी कहा जाता है कि रामप्रसाद ने अपने महावत की याद में खाना खाना छोड दिया था, और बाद में मर गया।
- हल्दीघाटी के युद्ध की एक दिलचस्प बात यह थी कि प्रताप की सेना का नेतृत्व एक अफगान हाकिम खान सूर और मुगल सेना द्वारा हिंदू राजा मान सिंह द्वारा किया गया था।
- महाराणा प्रताप को अक्सर ब्लू हॉर्स के राइडर के रूप में जाना जाता है। चूंकि उनके घोडे चेतक की आंखें नीली थीं।
- हल्दीघाटी के युद्ध में झाला सरदार मन्ना अपनी बहादुरी व सुझबुझ के लिए इतिहास मे हमेशा के लिए अमर हो गये। जिन्होने विपत्ती के समय महाराणा के राजमुकुट पहन कर मुगल सेना को भ्रमित किया कि वह ही महाराणा है जिससे चेतक महाराणा को लेकर आसानी से दूर सुरक्षित ले गया। महाराणा को बचाने के लिए चेतक घायल होते हुए भी 21 फिट चैडी नदी को अपनी जांन देकर भी पार किया तथा महाराणा को सुरक्षित बचाया।
महाराणा प्रताप का संक्षिप्त मगर गहन अध्ययन Birth Of Mahanara Pratap
महाराणा प्रताप, जो कि सिसोदिया वंश के 13वें राणा थे, का जन्म् 9 मई, 1540 को कुंभलगढ़ मे, सिसोदिया वंश के 12वे राणा उदय सिंह और रानी जयवंता के बडे बेटे के रूप मे हुआ था। सिसोदिया वंश 556 ई. में स्थापित हुए गुहिल वंश ही है, जो बाद मे गहलौत वंश बना और 13वी सदी मे ंइसके विभाजन के बाद एक शाखा को सिसोदिया राजवंश के नाम से जाना गया। महाराणा प्रताप के जन्म के समय पंडितों ने भविष्यवाणी की कि राजकुमार राज्य के लिए गौरव लेकर पैदा हुए है, और युगों तक इतिहास मे अमर हो जायेगे। इसका असर भी कुछ ही समय में दिखने लगा, क्योंकि राणा उदय सिंह ने प्रताप के जन्म के बाद अफगानों से चित्तौड़गढ़ के खोए हुए किले को जीतने में कामयाब रहे। राजकुमार प्रताप ने बचपन के दिनो से ही अपना एक अलग मुकाम बनाना शुरू कर दिया था। उनकी शौतेली मा धीर बाई चाहती थी कि भावी राजा उसका बेटा व प्रताप का सौतेला भाई जगमाल राजा बने। अतः भाई के प्यार के कारण प्रताप ने बचपन से ही राजमहल छोड अरावली के घने जंगलो को अपना बसेरा बना लिया। जैसा कि इन जंगलो में भील नाम के आदिवासी भारी संख्या मे आज भी निवास करते है, उस समय भी यह जंगल भीलों का बसेरा था, और भीलो तथा मेवाड राजपरिवार के संबंध अच्छे नही थे। ऐसे में राजकुमार प्रताप ने न केवल भीलो से संबध अच्छे किये बल्कि हल्दीघाटी के युद्ध मे इनकी सेवा भी ली। अतः बचपन से ही कई घटनाओं ने प्रताप के जीवन पर गहरा प्रभाव डाला, और भीलो के बीच प्रसिद्ध हो गये। कुछ जगह तो ऐसा भी विवरण मिलता है कि राणा उदय सिंह ने प्रताप को महान योद्धा बनाने हेतु योजनाबद्ध तरीके से ही जंगल निवास हेतु भेजा था।
शादी व बाद का जीवन
महाराणा प्रताप का विवाह 17 साल की उम्र मे अजबदे पंवार के साथ वर्ष 1557 को हुआ, जिनसे 16 मार्च 1559 में महाराणा प्रताप का उत्तराधिकारी राजा अमर सिंह का जन्म हुआ। 28 फरवरी 1572 को होली के दिन गोगुंदा मे राणा उदय सिंह की मृत्यु होने पर उसी दिन महादेव बावडी में मेवाड के सामन्तों ने महाराणा प्रताप का प्रथम राजतिलक करवाया, जबकि विधिवत दूसरा राज्याविषेक उसी वर्ष कुम्भलगढ़ के किले मे किया गया। जब महाराणा प्रताप ने मेवाड की बागडोर संभाली राजपूत स्वतंत्रता की स्थिति बेहद खराब हो चुकी थी। इस समय तक लगभग अधिकांश राजपूत राजा अकबर की अधीनता स्वीकार कर चुके थे। यहां तक कि उनके भाइयों, मीर शक्ति सिंह और जगमाल ने मुगल सम्राट से हाथ मिला चुके थे।
हल्दीघाटी के युद्ध की पृष्ठभूमि व हल्दीघाटी का युद्ध Who Won the war of Haldighati
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हल्दीघाटी का युद्ध सिर्फ हल्दीघाटी मे ही नही बल्कि खमनौर के मैदान मे भी लडा गया था। |
अकबर महाराणा प्रताप की बहादुरी के किस्से सुन चुका था। अतः उसने 1572-73 मे अपने चार दल महाराणा के पास अधीनता स्वीकारने के लिए भेजा। जिसमें जलाल खाँ नवंबर 1572, जून 1573 आमेर का राजपूत राजा मानसिंह, अक्टूबर 1573 में आमेर का भगवानदास व अंत में दिसबंर 1573 को राजा टोडरमल को भेजा। मगर हर बार महाराणा द्वारा स्वाभिमानी जवाब से अकबर ने उनको युद्ध में बंदी बनाने की योजना अजमेर के किले (आज का संग्रहालय या मैगजीन) मे बनायी। अकबर ने 3 अप्रैल 1576 को इतिहास की सबसे बडी लडायी मे से एक, हल्दीघाटी का युद्ध, के लिए अपने सेनापति के रूप में मान सिंह व आँसफ खाँ को भेजा। इस बात की सूचना जैसे ही महाराणा प्रताप को लगी तो उन्होने योजनाबद्ध तरीके से मुगल सेना को गोगुंदा व खमनौर की पहाडियों के बीच के तंग घाटी मे ही मुगल सेना को सबस सिखाने के लिए अपनी सेना वह तैनात कर दी। लगभग 10 दिन इंतजार करने के बाद 18 जून को हल्दीघाटी में दोनो सेनाओं के बीच भयंकर युद्ध लडा गया। इस युद्ध में अफगान सेनानायक हकीम खाँ महाराणा की ओर से लड रहा था। और राजपूत राजा मान सिंह अकबर की ओर से। कहा जाता है कि महाराणा के सैनिको ने मुगल सेना को शुरू में बुरी तरह तहस-नहस कर दिया था। किंतु एक अफवाह, कि अकबर स्वंय सेना से साथ सहायता लेकर आ रहा है, से मुगल सेना में फिर से जान डाल दी। मगर अब भी उनकी स्थिति खराब ही थी क्योकि इस संकरी घाटी से उनके सैनिक महाराणा के सैनिको के सामने टिक नही पर रहे थे। कुछ समय सब्र किसी तरह मुगल सेना महाराणा की सेना को बनास नदी के किनारे खमनौर के पास वाले मैदान तक ले गयी, जहां जबरदस्त नरसंहार हुआ, जिस कारण इस मैदान को आज भी रक्तताल कहा जाता है। कहा जाता है कि यह युद्ध मात्र 4 घंटे तक चला, मगर आज 400 भी साल बाद जब इसके बारे में कहा या सुना जाता है महाराणा प्रताप की को किताबों मे दिखी हुई स्वाभिमानी छवि आखों के सामने वैसे ही प्रतीत होती है जैसे कि उस युद्ध के साक्षी हो। युद्ध की स्थिती मुगल की ओर झुक रही थी
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महाराणा प्रताप मुगल सेनापति मानसिंह पर प्रहार करते हुए |
महाराणा प्रताप का इशारा पाकर उनका घोडा चेतक ने अपनी टांग से मानसिंह के हाथी मरदाना के सिर पर वार किया और महाराणा ने भाले से मान सिह पर जोरदार प्रहार किया। मगर यह भाला उसके अंगरक्षक को जा लगा। इस घटना में हाथी के सूँड में लगे जहरीले खंजर से चेतक की टाँग भी कट गयी व महाराणा प्रताप को मुगल सैनिकों ने चारो ओर से घेर लिया। इसी बीच वीर झाला सरदार मन्ना मुगलिया सेना को चीरता हुआ महाराणा के पास आया और महाराणा से निवेदन किया कि मेवाड के स्वतंत्रता के लिए आपका जिंदा रहना बहुत जरूरी है अतः आप अपना राजचिन्हन उतार कर मुझे दे दीजिए और आप युद्ध मैदान से चले जाये। अन्य सैनिको महाराणा को चेतक पर बैठने का आग्रह किया। चेतक एक मात्र घोडा ही नही बल्कि अपने आप मे एक सेनापति था। वह युद्ध स्थिति को भांप गया और महाराणा को दूर सुरक्षित स्थान पर पहुचाने के लिए बलीचा गांव के पास एक विशाल नाला पार करने हेतु अपनी जान दे दी। अपने प्रिय साथी चेतक के गुजर जाने पर महाराणा प्रताप फूट-फूटकर रोने लगे। तभी उनका भाई शक्तिसिंह, जो कि कुछ वर्षों तक अकबर से जा मिला था, और अब हल्दीघाटी के युद्ध मे पुनः अपने भाई महाराणा प्रताप की सहायता करने हेतु शामिल हुआ। महाराणा की वीरता और स्वाभिमानता को देखते हुए चेतक का पीछा करते हुए वहा पहुचा और अपनी कृत्यों के लिए क्षमा मांगने लगा। मगर दूसरी ओर मुगल सेना झाला सरदान को महाराणा समझ कर उन पर टूट पडी मन्ना बहुत बहादूरी से लडते हुए वीरगति को प्राप्त हो गये। मेवाड के सिसोदिया के तरह ही झाला सरदार भी अपनी वीरता और साहस के लिए इतिहास मे अमर है। झाला मन्ना के दादा झाला बीदा ने भी खानवा के युद्ध मे राणा साँगा की जान बचाने का प्रयास किया था मगर बाबर की सेना ने उन्हे पहचान लिया था। इस प्रकार यह युद्ध एक तरह से निर्णायक ही शाबित हुआ, क्योकि अकबर ने यह युद्ध महाराणा को मारने या फिर उनके राज्य को अपने साम्राज्य मे मिलाने हेतु शुरू करवाया था। अतः युद्ध खत्म होते के बाद न तो वह महाराणा को मार ही सका और न ही मेवाड को हडप सका।
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हल्दीघाटी युद्ध के बाद महाराणा प्रताप का जीवन
इसके बाद महाराणा प्रताप कमलनाथ पर्वत के पास आवरगढ़ को अपनी अस्थायी राजधानी बनायी। जिसकी सूचना पाकर अकबर ने अब्दुल रहीम खानखाना को 1580 मे उनके खिलाफ युद्ध के लिए भेजा था। इस अभियान के दौरान एक विशेष घटना होती है जिससे पता चलता है कि महाराणा प्रताप कितने दरियादिली व सच्चे उसूलो वाले राजा थे। जिन मुगलो को अपने राज्य से खदेडने के लिए उन्होने असाधारण प्रण लिया था। उसी मुगल साम्राज्य के सेनापति के परिवार को जब महाराणा के पुत्र अमरसिंह ने बंदी बनाया और महाराणा के पास लाया, तो महाराणा अपने पुत्र व राजकुमार अमरसिंह के इस कृत्य से बहुत नाराज हुए उन्होने अमर सिंह को अब्दुल रहीम के परिवार को सम्मानपूर्वक वापस छोडकर आने को कहा। महाराणा प्रताप धीरे-धीरे मुगल राज्य के छोटे-छोटे मगर महत्वपूर्ण किलो को जितने मे सफल रहे। इसी क्रम में महाराणा ने 5 दिसम्बर 1584 को आमेर के भारमल के पुत्र जगन्नाथ कछवाहा को व 1585 मे छप्पन के लूणा के चावण्डियो को पराजित करके चावंड को 1585 मे अपनी राजधानी बनायी, जो कि अगले 28 वर्षों तक मेवाड की राजधानी रही। वही 19 जनवरी 1597 को महाराणा प्रताप की मृत्यु हो गयी थी, जहां बान्डोली में आज भी उनकी समाधि है।
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Maharana Pratap's sepulcher in Bandoli बाण्डोली, चावंड में महाराणा प्रताप की समाधि |
Akbar About Maharana Pratap After his death News
कहा जाता है कि जब महाराणा प्रताप के मृत्यु की खबर अकबर तक पहुची तो उसे भी बडा दुख हुआ। इस पर अकबर के दरवारी दुरसा आढा ने अकबर की स्थिति को देखते हुए लिखा है
कि राणा प्रताप तेरी मृत्यु पर बादशाह ने दाँत में जीभ दबाई और निःश्वास आँसू टपकाए, क्योंकि तूने अपने घोडे को नही दगवाया और अपनी पगडी को किसी के सामने नहीं झुकाया, वास्तव में तू सब तरह से जीत गया।
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मैने कई श्रोतो जैसे राजस्थान स्कूल टैक्स बुक, एनसीआरटी आदि से जानकारी इकट्ठा कर यहां सही से प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। ऐसे में हो सकता है कि कुछ स्थानो के संबंध में या किसी विशेष घटना पर मेरे द्वारा पढ़ने या समझने या फिर लिखने मे कुछ गलतिया भी हो सकती है। मैने लगभग सभी तथ्यों को बडी गंभीरता संग्रहित करने का प्रयास किया है और लगभग सभी तथ्यो की दोबारा पुष्टि करने की कोशिश की है। इसके बावजूद भी कही पर किसी तथ्य या जानकारी की गलती होने पर आप लोगो से उम्मीद करता हूँ कि आप लोगो द्वारा सुधार हेतु मुझे सूचित किया जायेगा।
धन्यवाद, नमस्कार
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