Friday, April 24, 2020

Peshawar I Khudai Khidmatgar पेशावर कांड 23 अप्रैल 1930 के नायक उत्तराखंड के वीर चन्द्र सिंह गढवाली जिनकी वीरता से गांधी जी भी थे काफी प्रभावित।

चन्द्र सिंह भंडारी से वीर चन्द्र सिंह गढवाली बनने की अद्भूत कहानी


23 अप्रैल को पूरे देश में पेशावर कांड की बरसी मनाई जाती है या यू कहें कि उत्तराखंड के वीर के वीरता को याद किया जाता है। वैसे तो 23 अप्रैल भारतीय इतिहास में एक हिंसक दिन के रूप मे जाना जाता है। साथ ही इस दिन को देश के साथ ही उत्तराखंड में प्रतिवर्ष वीर पर्व के रूप मे याद किया जाता है। यह दिन की महत्ता और इसमे उत्तराखंड के वीर के योगदान को देखते हुए मोती लाल नेहरू ने 1930 में इस दिन को गढवाल दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की थी। आज से लगभग 80 साल पहले जब पूरे देश पर अंग्रेजो की हुकुमत थी, एक घटना में जिसमे उत्तराखंड के बहादुर व देशभक्त वीर सिपाही ने अंग्रेजो को आख दिखाते हुए उनकी सेना मे सेवारत होने के बावजूद उनका हुक्म मानने से इनकार कर दिया था। दिन था 23 अप्रैल और वर्ष था 1930 का जब पेशावर मे कुछ पठानों के अंग्रेजो के विरूद्ध शांति पूर्ण जुलूस निकाला था और एक सैन्य टुकडी को उसे दबाने के लिए भेजा गया था उसी सेना मे एक नायक हवलदार के रूप में वीर चंद्र सिंह तब के भंडारी और आज के गढवाली, जो कि गढवाल राइफल मे थे ने अपने कैप्टन की उस बात को नकारा दिया जिसमें उन्हे आदेश दिया गया था कि वह उन निहत्थे पठानों पर गोली चलाये। उनकी इस बहादुरी को याद करते हुए पूरे देश में इसे पेशावर दिवस के रूप में आज भी मनाया जाता है और इसके नायके श्री वीर चन्द्र सिंह को याद किया जाता है आज के दिन उनके गृह क्षेत्र रैंणीसेरा व गैरसैंण जो कि चैखुटिया से लगा भाग है, में कार्यक्रम होते है और मूर्ति पर माल्यार्पण किया जाता है।

उनके बारे मे जानने से पहले जानते है उनसे जुडे कुछ महत्वपूर्ण कथन या तथ्य


  • स्वतंत्रता मे उनके योगदान को देखते हुए 23 अप्रैल 1994 में भारत सरकार ने उनके नाम पर 1 रूपये का डाक टिकट जारी किया।
  • उन्हे पेशावर कांड के वीर नायक के नाम से भी जाना जाता है।
  • उत्तराखंड का पामीर दूधातोली के कोदियाबगड़ की सुन्दरता से वह बहुत प्रभावित थे। इसी क्षेत्र में आज इनकी समाधी भी है जहां प्रतिवर्ष 12 जून में उनकी याद मे मेला लगता है। कहा जाता है कि उन्होने नेहरू से इस क्षेत्र मे भारत की ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने की मांग की थी।
  • उनके नाम पर भारत सरकार, उप्र सरकार व उत्तराखंड की सरकार ने कई कल्यकारी योजनाए चलायी थी/है। जिसमे उत्तराखंड सरकार की  जून 2004 को लागू वीर चन्द्र सिंह गढवाली पर्यटन स्वरोजगार योजना शामिल है, जिसके तहत 40 लाख रूपये तक निवेश में 33 प्रतिशत (15 लाख) या कुछ मामलो में 50 प्रतिशत 20 लाख तक की सब्सिडी दी जाती है।
  • मोतीलाल नेहरू ने उनकी वीरता और देशभक्ति को देखते हुए कहा कि 23 अप्रैल को गढवाल दिवस के रूप में मनाया जाय और साथ ही लोगो से अपील की कि वीर चन्द्र सिंह गढवाली को देश न भूलें।
  • गांधी जी जिन्होने उन्हे गढवाली की उपाधि दी थी ने उनके वीरता और समर्पण भाव को देखते हुए कहा था कि मेरे पास वीर चन्द्र गढवाली जैसे 4 आदमी होते तो देश कब का ही आजाद हो जाता।
  • आई0एन0ए0 के संस्थापक जनरल मोहन सिंह के कहा था कि पेशावर विद्रोह ने हमे आजाद हिंद फौज बनाने व संगठित करने की प्रेरणा दी।


आइये जानते है वीर चन्द्र सिंह भंडारी जी के बारे में

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कौन है वीर चंद्र सिंह गढवाली (भंडारी)


इनका मूल नाम वीर चंद्र सिंह भंडारी था, इनका जन्म 25 दिसंबर 1891 में गढ़वाल के चमोली जनपद के अंतर्गत चैहान पट्टी के रैंणीसेरा गांव में हुआ था। इनके पिता जाथली सिंह भंडारी, एक सामान्य किसान थे, जो ज्यादा पढे-लिखे नही थे। अतः घर की माली हालत ठीक नही थी। इनका बचपन गरीबी में बीता जिसके कारण इनकी शिक्षा सिर्फ प्राइमरी तक हुई बल्कि छोटी उम्र में ही रोजगार के लिए घर व गांव छोड़कर चले गये थे एवं अंग्रेज अधिकारियो के साथ गाइड बनकर घर का खर्चा चलाने लगे थे। क्योकि बचपन से ही वह स्वाभिमानी थे इसके चलते वीर चंद्र सिंह गढ़वाली इस नौकरी से कभी खुश नहीं थे। 14 वर्ष के होते ही उनका विवाह हो गया था।
जैसा कि उत्तराखंड की भूमि में सदियों से ही अनेक वीरो ने जन्म है जिनकी गाथाएं आज भी मशहूर है। जैसे भड भंडारी माधो सिंह, कफ्फू चैहान, पुरूषोत्तम पंत आदि। अंग्रेज भी यहा के निवासियों की बहादुरी से काफी प्रभावित थे। जिसके चलते अंग्रेजो ने अंगरक्षक सेना मे सबसे ज्यादा उत्तराखंड के वीरो को शामिल किया था। वैसी ही खुबियां वीर चन्द्र सिंह में बचपन से ही थी, साथ ही स्वाभिमानी भी थे, जिस कारण उन्हे कोई छोटा-मोटा काम रास नही आ रहा था, वह जो भी काम कर रहे थे सिर्फ इसलिए कि घर को आर्थिक मदद कर सकें। इधर-उधर काम करते हुए आखिरकार वह समय आ गया था जहा वह जाना चाहते थे। साल था 1914 का यानी दुनिया या अंग्रेजो के लिए संकट का समय, क्योकि प्रथम विश्व युद्ध शुरू हो चुका था। अतः अंग्रेज अधिकारी घर-घर जाकर सेना मे भर्ती हेतु नवयुवकों को ढूढ रहे थे। इसी क्रम में सैंणीसेरा गांव में भी कैंप लगा तथा चंद्र सिंह भी 3 सितंबर 1914 सेना में शामिल हो गए। हालांकि सेना मे भर्ती हेतु उनके परिवार के सदस्य राजी नही थे। और 11 सितंबर 1914 को में उन्हें लैंसडाउन स्थित गढ़वाल राइफल की 2/39 बटालियन में तैनाती मिल गई।

गढवाल के भड़ यानी वीर माधो सिंह भंडारी को जाने यहां से


प्रथम विश्व युद्ध में वीरचन्द्र सिंह गढवाली की वीरता


लगभग ठीक एक वर्ष बाद 1 अगस्त 1915  अंग्रेजो ने गढवाल राइफल की एक टुकडी को फ्रांस में कार्रवायी के लिए भेज दिया जिसमें चन्द्रसिंह भी शामिल थे। पूरे एक वर्ष बाद 1 फरवरी 1916 को वह वापस अपने सेना कंपनी लैंसडौन में आ गये। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ही 1917 गढ़वाल राइफल ने अंग्रेजो के लिए तुर्की व मेसोपोटनिया समेत कई अन्य स्थानों पर लड़ाई लडी और जीते भी जिसमें जाहिर तौर पर वीर चन्द्रसिंह भी शामिल थे, उनकी बहादुरी से उनको पदोन्नती दी गयी। और वर्ष 1918 में बगदाद की लड़ाई में भी हिस्सा लिया। विश्व युद्ध के बाद अंग्रेजो ने कूटनीति या छल-कपट करके सैनिको को हताश करने वाला निर्णय दिया उन्होने युद्ध के दौर पदोन्नति वाले अधिकांश सैनिको के पद कम करके उन्हे घर बैठने का आदेश दिया। इसमे वीर चन्द्र सिंह भी थे जिनका हवलदार का पद छीनकर सैनिक पद दिया गया। जिससे उनके मन में अंग्रेजो के प्रति घृणा और नफरत की भावना पनपने लगी। इसी दौरान राष्ट्रीय स्तर पर कई क्रूर कृत्य हुए जैसे जलियावालाबाग कांड, रौलेट एक्ट आदि, जिसके विरोध गांधी जी राष्ट्रीय परिवेश आंदोहलन शुरू किये और समूचे देश उसने जुडता जा रहा था। इसी दौरान चन्द्रसिंह महात्मा गांधी के सम्पर्क में आये। लेकिन कुछ समय पश्चात अंग्रेजो ने गढवाली सैनिको की बटालियन के उन तमाम सैनिको को वापस बुला लिया जिनको प्रथव विश्व युद्ध के बाद डिमोशन देकर घर बैठा दिया था, उनमें चन्द्र सिंह भंडारी भी शामिल थे, चूकिं वह एक कर्तव्यनिष्ठ थे अतः अग्रेजो से नफरत के बावजूद अपनी बटालियन के लिए वह फिर सेना में शामिल हो गये, इस बात इनहे पुनः तरक्की दी गयी। इस बटालियन को 1920 में बजीरिस्तान भेजा गया। 


आर्य समाजी 


वर्ष 1921 से उनका अधिकांश समय आर्य समाज के कार्यकर्ताओं के साथ बीता, जिससे इनके अंदर स्वदेश प्रेम का जज्बा पैदा हुआ। 1920 में कांग्रेस के जगाधरी (पंजाब) में हुए सम्मेलन में भी वे गये पर फिर उन्हें युद्ध के मोर्चे पर भेज दिया गया। जब गांधी जी जून 1929 में कुमाऊ दौरे पर आये हुए थे। उन्हीं दिनों रानीखेत, जो उत्तराखंड का एक टूरिस्ट प्लेस, में हुए एक कार्यक्रम के दौरान गांधी जी भी आये थे। वहाँ चन्द्रसिंह भी शामिल हुए थे, फौजी टोपी पहनकर वह कार्यक्रम मे आगे की पंक्ति में बैठ थे। तब गांधी जी अपने मजाकिया अंदाज मे कहा कि वह इस फौजी टोपी से डरते नही है। चन्द्रसिंह गंाधी जी से पहले से ही काफी प्रभावित थे, उन्हे गया कि गांधी जी शायद गुस्सा हो गये, मगर उत्तर मे उन्होने कहा अगर आप कुछ सुझाये तो मैं इसे बदल भी सकता हूँ और गांधी जी द्वारा दी गयी खादी टोपी पहन ली। इस घटना ने चन्द्रसिंह के जीवन मे बडा बदलाव आयां

कुछ सैनिको का इस राष्ट्रीय आंदोलनों पर बढचढकर भाग लेना अंग्रेजों को रास नहीं आया और उन्होंने इन्हें खैबर दर्रे के पास भेज दिया। इस समय तक चन्द्रसिंह मेजर हवलदार के पद को पा चुके थे।


पेशावर काण्ड, वीर चन्द्र सिंह गढवाली का राष्ट्रीय नायक बनना


अब समय था वीर चन्द्र सिंह के जीवन का सबसे महत्व घटना को अंजाम देने व इतिहास के पन्नों में अपना नाम अमर करने की। दिन था, 23 अप्रैल, 1930 जगह थी पेशावर का किस्सा-ख्वानी बाजार। गाँधीवादी नेता खान अब्दुल गफ्फार खान जिनहे सीमान्त गाँधी भी कहा जाता है, को अंग्रेज सरकार के आलोचना के कारण गिरफ्तार किया गया था तथा 23 अप्रैल को उनकी पार्टी खुदाई खिदमगार के अहिंसावादी सदस्य अपने नेता की गैरकानूनी गिरफ्तारी के विरूद्ध 23 अप्रैल को शांतिपूर्ण जलूस निकाल रहे थे। जिसमे पश्तून पठान, सिक्ख और हिन्दू शामिल थे। इस घटना में गढवाली सेना की बटालियन जिसमे 72 गढवाली सिपाही थे, को हवलदार मेजर चन्द्रसिंह भंडारी नेतृत्व प्रदान कर रहे थे। अंग्रेज केप्टन रैकेट ने गोली चलाने का आदेश दिया। परन्तु देशभक्ति से ओतप्रोत चन्द्रसिंह ने इसे मानने से इनकार कर दिया और अपने सैनिको को कहा। ये कोई दुस्मन नही बल्कि हमारे अपने भाई है हम इन निहथ्थो पर गोली कैसे चला सकते है। अंग्रेज कैप्टन ने उन्हे गढवाली बैरक भेजकर उनसे हथिहार व अन्य सामान ले लिया और अंग्रेजी सैनिको को गोली चलाने का आदेश दिया, जिन्होने धुआंधार गोलीबारी की। अंग्रेजी रिकाॅर्ड के अनुसार इसमें 20 लोगो की जान गयी। जबकि भारतीयो के अनुसार इसमे लगभग 400-2000 लोगो की जान गई। नोबल पुरस्कार विजेता इतिहासकार जीन शार्प के अनुसार अंग्रेजी सैनिको ने निहथ्थों पर 6 घंटे तक फायरिंग की। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि यह हत्याकांड जलियांवाला कांड के समान ही क्रूर व हिंसक था। इस घटना के जांच अधिकारी लखनऊ के उस वक्त के मुख्य न्यायाधिस नैमतउल्लाह चैधरी को सौंपा गया और ब्रिटिश सरकार द्वारा पक्षपात करने के लिए उन्हे सर, लाॅर्ड और नाइटहुड की उपाधियां आॅफर की थी जिसे उन्होंने बिना अफसोस के ठुकरा दिया था। और निष्पक्ष जांच की। 
विरोध कुचलने गये गढवाली बटालियन के सभी सैनिको को पेशावर के ऐबटाबाद के जेल में नजरबंद कर दिया गया। बाद मे सभी सैनिको को नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया। 39 को कोर्ट मार्शल और 16 को लम्बी सजाये हुई। चन्द्रसिंह को मृत्युदंड दिया गया, जिनकी पैरवी मुकुन्दीलाल ने की थी, जिसके बाद चन्द्रसिंह की सजा कम करके उसे उम्र कैद की सजा दी गयी। 


भारत  छोडो आंदोलन में वीर चन्द्र सिंह गढवाली जी का योगदान


11 साल 3 महीने 18 दिन की सजा काटने के बाद 26 सितम्बर 1941 को सशर्त रिहा हुए कि इसके बाद वह गढवाल क्षेत्र में प्रवेश नही करेंगे। मोतीलाल नेहरू द्वारा स्थापित आनंद भवन इलाहाबाद आर बाद मे वर्धा में रहने लगे और वही 1942 के भारत छोडो आंदोलन के दौरान क्षेत्रीय संगठन द्वारा नेतृत्व चुना गया। चूंकि भारत छोडो आंदोलन के दौरान कई राष्ट्रीय नेताओ को नजरबंद किया गया। अतः उन्हे भी 6 अक्टूबर 1942 गिरफ्तार किया गया। अन्य नेताओं के साथ ही वर्ष 1945 को रिहा हो गये और अपनी भूमि वापस आने का प्रयास किय परन्तु अंग्रेजो ने इन्हे गढवाल क्षेत्र में प्रवेश नही करने दिया। अतः वह अपने परिवार के साथ कुछ साल हल्द्वानी में ही रहे। अंत में अंग्रेजो की पकड कम होती देख 22 दिसम्बर 1946 को राजनीतिक पार्टियों के सहयोग से आखिरकार गढवाल में प्रवेश किया। वह अपनी भूमि से 16 वर्ष वंचित रहे। भारत छोडो आंदोलन के दौरान उनकी सक्रियता को देखते हुए महात्मा गांधी ने उन्हे गढवाली कहकर संबोधित किया। तब से उनके नाम के साथ गढवाली उपनाम एक उपाधि के तौर पर प्रयुक्त किया जाता है। इसके अलावा उन्होने राजनीति में भी हाथ आजमाया और दूसरे लोकसभा चुनाव 1957 में गढवाल लोकसभा सीट से कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के रूप चुनाव लड़ते हुए काग्रेस के भक्त दर्शन से लगभग 21000 वोटो से हार गये थे।
लंबी अवधी से बीमारी के चलते आखिरकार 1 अक्तूबर, 1979 को दिल्ली मे राममनोहर लोहिया अस्पताल मे पेशावर कांड के इस महान सेनानी की मृत्यु हुई।

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