Dell Laptop

Saturday, April 11, 2020

भारत का अंतिम हिन्दू राजा पृथ्वीराज चैहान I The pride Of Indian History Prithviraj Chauhan I love story of Prithviraj Chauhan and gadhdwal princess Sanyogita

 भारत का अंतिम हिन्दू राजा

भारतीय इतिहास में राजपूतो का गौरवशाली इतिहास रहा है जिन्होने 7वी शताब्दी से लेकर 12वीं शताब्दी तक के पूरे समय में भारत पर राज किया। उन्होने पश्चिमी क्षेत्रो से होने वाले आक्रमणों को कई सदियों तक कुचले रखा। प्रमाणित तौर पर पहली बार मो0 कासिम ने 712 ई0 में उपमहाद्वीप क्षेत्र पर आक्रमण किया तब से या उससे भी पहले कई बार भारत पर आक्रमण की योजनाए बनायी गयी। जैसा कि भारतीय क्षेत्र पहले सोने की चिड़िया कहलायी जाती थी अतः धन दौलत लुटने व अपने धर्म के प्रचार के लिए आक्रमणकारी भारतीय क्षेत्र को विजित करना चाहते थे। किन्तु भारत की मजबूत राजपूती सेनाओ से हारते रहे। यह कहानी भी इसी प्रकार के एक अग्निवंशी राजपूत राजा कि है जो कि इतिहास में पृथ्वीराज-तृतीय, पृथ्वीराज चैहान या फिर राय पिथोरा के नाम से भी जाना जाता है। वैसे राजपूतों के कई शाखाएं है जिनका वर्णन महाभारत काल से लिखित रूप में मिलता है सूर्यवंशी, चन्द्रवंशी, अग्निवंशी आदि। इन्ही में से अग्निवंशी शाखा के पृथ्वीराज चैहान को न सिर्फ उनकी वीरता बल्कि उदारता, प्रेम प्रसंग और एक विद्धान के तौर पर भी जाना जाता है। पृथ्वीराज चैहान व चैहान वंश का भारतीय इतिहास में एक विशेष महत्व भी है, क्योंकि अधिकांश इतिहासकारो ने मध्य भारतीय इतिहास की शुरूआती उसी दौर से करते है जब तराई के द्वितीय युद्ध के बाद गौरी द्वारा यह क्षेत्र विजित किया गया था। यानी चैहान वंशी के साथ ही मध्य भारत की शुरूआत भी हो जाती है। पृथ्वीराज चैहान की जब-जब बात आती है तो तराई का युद्ध और जयचन्द्र की ईष्र्या और जयचंद्र की बेटी संयोगिता के साथ पृथ्वीराज चैहान का प्रेम प्रसंग के बारे में जरूर जिक्र आता है। आइये समझते है पृथ्वीराज चैहान के बारे में कुछ महत्वपूर्ण बिन्दु -


Koh-i-Noor I कोहिनूर से जुड़ा इसका इतिहास I क्या ब्रिटेन, भारत को वापस करेगा कोहिनूर

जब मुइज्जुद्दीन मुहम्मद उर्फ मुहम्मद गौरी एक विशाल सेना के साथ मुल्तान और उच्छ समेत भारत विजय करने की योजना बना रहा था, ठीक उसी समय मात्र चैदह साल का लड़का, पृथ्वीराज अजमेर की गद्दी पर बैठा। उसके हाथ में पूरा हिन्दुस्तान था, जिसे वह आने वाले दिनो में अपने वश में करने वाला था। वह कितना महान धर्नुधर और ज्ञानी था इसका अंदाजा चंद्रवरदायी द्वारा लिखा गया एक काव्य रूप में वर्णित है, जो कि दुर्भाग्यवश पृथ्वीराज चैहान के अंतिम दिनों की एक विशेष घटना पर आधारित है।

        “चार बांस चैबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण, ता ऊपर सुल्तान है मत चूके चैहान।”
पृथ्वीराज रासो में वर्णित अंश जो कि पृथ्वीराज चैहान के अंतिम दिनों का है जब उन्हें मुहम्मद गौरी द्वारा कैद कर गजनी ले जाया गया और अंधा बना दिया गया। अंधा करके मुहम्मद गौरी ने उनसे उनकी अंतिम इच्छा पूछी तो उन्होने अपने बचपन के मित्र और राजदरवारी कवि के काव्य पाठ पर तीरंदाजी करने की इच्छा जताई। और उक्त पक्ति के माध्यम से उन्होने गौरी के बैठै होने की  सटीक  लगा ली, जिसके अगले ही पल अपने बाण से उसे भेद दिया। जो कि दर्शाता है कि उनको शब्दबाण में कितना महारथ हासिल था। 

पृथ्वीराज चैहान 

भारतेश्वर, पृथ्वीराजतृतीय, सपादलक्षेश्वर, राय पिथोरा आदि नामों से मशहूर, पृथ्वीराज चैहान भारतीय इतिहास में एक अमर नाम है। यह शकम्बरी के चैहान वंश से संबंधित थे। शुरूआती शकम्बरी के चैहान की राजधानी शकम्बरी थी जिन्होनें हर्षवर्धन (वर्धन वंश) के उपरान्त अपने राज्य की नींव ड़ाली। तत्कालीन चैहान वंश का राज्य क्षेत्र उत्तरी महाराष्ट्र से दिल्ली और पूर्वी मध्य प्रदेश से लेकर राजस्थान तक था, और इन्होंने अपनी राज्य की राजधानी शकम्बरी के स्थान पर, स्थानांतरित करके अजयमेरू या आज का अजमेर में को चुना। पृथ्वीराज तृतीय का जन्म चैहान राजा सोमेश्वर और रानी कर्पूरादेवी (जो एक कलचुरी राजकुमारी थी, कलचूरियों का राज्य क्षेत्र चेंदी तथा राजधानी त्रिपुरी था) के घर में हुआ था। राजा सोमेश्वर के दो पुत्र और एक पुत्री थी, पृथ्वीराज और उनके छोटे भाई हरिराज दोनों जन्म आधुनिक गुजरात राज्य के पाटन नाम स्थान में हुआ था, इनकी छोटी बहन का नाम पृथा और पुत्र का नाम गोविन्दराज था, जो कि पृथ्वीराज चैहान की मृत्यु के बाद गोविन्दराज-चतुर्थ के नाम से राजा बना। गोविन्दराज के अलावा पृथ्वीराज चैहान के 5 अन्य पुत्र/पुत्रियां और 13 रानियां थी संयोगिता उनमें से 13वीं रानी थी। वैसे तो उनके जन्म के वर्ष का उल्लेख नहीं है, लेकिन कुछ ज्योतिष ग्रहों के आधार पर पृथ्वीराज के जन्म के वर्ष का अनुमान कर 1166 ई0 मे मानते है। पृथ्वीराज की  शिक्षा विग्रहराज द्वारा स्थापित किये गये सरस्वती कण्ठाभरण विद्यापीठ (जिसे तोड़कर कुतुबुद्दीन ऐवक ने आज का अढ़ाई दिन का झोपड़ा बना दिया) में हुआ था। अस्त्र-शस्तों के साथ ही पृथ्वीराज चैहान की भाषाओ में भी निपुणता थी। इनके समय चैहान वंश में मुख्यतः 6 भाषाए संस्कृत, प्राकृत, मागधी, पैशाची, शौरसेनी और अपभ्रंश प्रचलित थी। जिनका ज्ञान पृथ्वीराज चैहान को अच्छे प्रकार से था। पृथ्वीराज चैहान शब्दभेदी बाण चलाने में भी पारंगत थे। पृथ्वीराज रासो मे दावा किया गया है कि उन्होंने 14 भाषाएँ सीखीं, जो शायद एक अतिशयोक्ति भी हो सकती हैं। रासो दावा करता है कि वह इतिहास, गणित, चिकित्सा, सैन्य, चित्रकला, दर्शन (मीमांसा), और धर्मशास्त्र सहित कई विषयों में पारंगत हो गया। दोनों ग्रंथों में कहा गया है कि वे तीरंदाजी में विशेष रूप से कुशल थे। इनकी मृत्यु के बारे में भी कोई ठोस प्रमाण नही है कि इनकी मृत्यु कब और कहा हुई। इनके राजदरबारी और बचपन के मित्र चन्द्रवरदायी द्वारा इनकी मृत्यु गजनी में हुई थी। इनकी मृत्यु के पश्चात चैहान वंश की बागडोर इनके पुत्र गोबिन्दराज-चतुर्थ ने संभाली।

चौंसठ योगिनी मंदिर मुरैना


प्रारंभिक शासनकाल

वर्ष 1169 ई0 में चैहान वंश के राजा पृथ्वीराज द्वितीय की मृत्यु के बाद सोमेश्वर को चैहान वंश का राज संभाला, तो पृथ्वीराज भी गुजरात से अजमेर चले गए। जब इनके पिता सोमेश्वर की मृत्यु 1177 ई0 में हुई तो, उस वक्त पृथ्वीराज की आयु मात्र 11 वर्ष की थी। (जिसका उल्लेख उनके पिता सोमेश्वर के शासनकाल का अंतिम शिलालेख और पृथ्वीराज के शासनकाल का पहला शिलालेख में भी वर्णित हैं। ) क्योंकि वह नाबालिक थे अतः उनकी माता ने सेनापति कदंब की सहायता से कुछ समय के लिए प्रशासन का राज काज संभाला। सेनापति कदंब के अन्य नामों जैसे कैमासा, कैमाश या कैम्बासा के रूप में भी जाना जाता है। इतिहासकार दशरथ शर्मा के अनुसार, पृथ्वीराज ने 1180 ई0 के आसपास राज्य की प्रमुख बागडोर संभाली।

बयानाप्रदेश अभियान 1177 ई0 -

ख्यातीबयानाप्रदेश के यादववंशीय के साथ प्रथम बार युद्ध अजयराज के काल में हुआ। उस समय बयानप्रदेश की पूर्वी सीमा यमुनानदी और दक्षिणी सीमा चम्बल नदी थी जिसमें आज के अलवर, भिवानी, रिवाडी, बयाना आदि प्रमुख नगर आते थे। इसके बाद विग्रहराज ने भी यादववंशीय की बढ़ती शक्ति को रोका जरूर था। मगर यादववंशियो का असली दमन पृथ्वीराज चैहान ने ही किया। उस समय बयानाप्रदेश में सोहणपाल का शासन था।


नागार्जुन का विद्रोह 1177-

पिता की मृत्यु के बाद जब पृथ्वीराज चैहान शाकम्भरी के सिंहासन पर बैठे थे, उस समय चैहान वंश का साम्राज्य सामन्तों की सहायता से चलता था। क्योंकि पृथ्वीराज अभी अल्पआयु थे अतः उनकी माता कर्पूरदेवी ने सिंहासन संभाला। सोमेश्वर की मृत्यु के बाद अनेक सामन्तों ने स्वतंत्रता के लिए युद्ध की घोषणा कर दी थी किन्तु कर्पूरदेवी ने सेनापति कैमास और भुनैकमल्ल की सहायता से उन विद्रोही सामन्तों का दमन कर दिया। उसके बाद विग्रहराज के पुत्र नागार्जुन ने अजयमेरू आज का अजमेर, पर उत्तराधिकारी के रूप में विद्रोह कर दिया। किन्तु पृथ्वीराज चैहान ने कुशलता से न केवल विद्रोह को कुचला बल्कि नागार्जुन को योगिनीपुर (दिल्ली कि पास ) में निर्वासित जीवन जीने पर भी मजबूर कर दिया।


बुन्देलखण्ड अभियान 1182 ई0-

जेजाकभुक्ति बुन्देलखण्ड का ही एक भाग था। जिसमें आज का अधिकांश मध्यप्रदेश का क्षेत्र आता है। इसकी उत्तरी सीमा यमुनानदी, उत्तरपश्चिमी सीमा चम्बलनदी, जबकि दक्षिणपूर्व में विशाल बुन्देलखण्ड का पर्वतीय भाग शामिल है। इसकी मुख्य राजधानी कलिंजर और द्वितीय महोबा थी, खजुराहो को इसकी सांस्कृतिक राजधानी माना जाता था। इस प्रांत मे मुख्यतः, कलिंजर, अजयगढ, बैरीगढ़, महोबा, मडफा आदि प्रमुख गढ़ थे। इस समय माहेबा प्रांत में चन्देल राजा पर्मर्दिदेव का शासन था। यह युद्ध न केवल पृथ्वीराज चैहान के विजय बल्कि महोबा के सेनानायक दो भाईयो अल्ला उदल की वीरता के लिए भी याद किया जाता है। अल्ला-उलद के बारे मे कहा जाता है कि दोनो चंदेल शासक परमर्दिदेव मे सेनानायक थे, किन्तु जब पृथ्वीराज चैहान ने महोबा पर हमला किया था, उस उक्त योजना के अनुरूप सेना कार्य नही होने के कारण इन्होंने परमर्दिदेव का साथ छोड़ कर पृथ्वीराज चैहान के प्रमुख विरोधी जयचंद्र की सेना में शामिल हो गये थे। किंतु परमर्दिदेव द्वारा जयचंद्र से सहायता मागने और जयचंद्र की पृथ्वीराज से ईष्र्या होने के कारण जयचंद्र ने सहायता हेतु सेना भेजी जिसका नेतृत्व अल्ला-उदल कर रहे थे, और अंत में पृथ्वीराज चैहान द्वारा युद्ध विजय के साथ ही इन दोनो वीरो की भी मौत हो गयी। यह अभियान दो अन्य कारणों से भी याद किया जाता है एक जेजाकभुक्ति की महारानी नाइकीदेवी की योजना तथा पृथ्वीराज चैहान की दरियदिली जिसमें उन्होने महोबा विजय के बावजूद भी उनके राज्य को नहीं हड़पा। इसे अभियान का उल्लेख मदनापुर शिलालेख मे किया गया है।


चालुक्यों (सोलंकी) से युद्ध 1183 ई0 और तरायन युद्ध की नींव

गुजरात के चालुक्यों से चैहान वंश का हमेशा से खतरा रहा था। पृथ्वीराज चैहान के पिता सोमेश्वर के शासनकाल में चालुक्वंशीय अजयपाल को बार बार हमला कर चैहानो की शक्ति को क्षति पहुचाई थी। जब पृथ्वीराज चैहान जेजाभुक्ति अभियान पर थे उस समय चालुक्य राजा भीमदेव द्वितीय ने महोबा के राजा परमार्दिदेव की पुत्री व जेजाभुक्ति की महारानी नाइकीदेवी के अनुरोध पर अजयमेरू पर आक्रमण करने की योजना बनाई। भीमदेव द्वितीय बड़ा ही साहसी और वीर योद्धा था। उसने कई बार मुहम्मद गौरी के आक्रमण न केवल विफल किया था, बल्कि उसे पराजित भी किया था। अब जैसे ही नाइकीदेवी ने योजना के तहत भीमदेव द्वितीय से अजयमेरू पर आक्रमण कराया तो पृथ्वीराज चैहान को जेजाभुक्ति अभियान बीच में छोड़कर अपने राज्य में भीमदेव द्वितीय से बदला लेने के लिए जाना पड़ा। हालांकि वह भीमदेव की सेना को अजमेर से खदेड़ने मे कामयाब हो गये, किंतु इसके बाद उसने गुजरात पर आक्रमण की योजना बनाई, पर गुजरात के शासक भीम द्वितीय पृथ्वीराज को मात दी। इस पराजय से बाध्य होकर पृथ्वीराज को पंजाब तथा गंगा घाटी की ओर मुड़ना पड़ा। यही से इतिहास का एक पन्ना खुद को लिखने का सिलसिला चल पड़ा।


तराईं का प्रथम युद्ध - पृथ्वीराज चैहान और गौरी 1191 ई0


अपने राज्य के विस्तार को लेकर पृथ्वीराज चैहान हमेशा सजग रहते थे और इस बार अपने विस्तार के लिए उन्होने पंजाब को चुना था। संघर्ष तबरहिन्द (वर्तमान भटिंडा), पंजाब पर दोनों के दावों को लेकर आरम्भ हुआ। जैसे कि इस समय संपूर्ण पंजाब पर मुइज्जुद्दीन मुहम्मद उर्फ मुहम्मद शाबुद्दीन गौरी, का शासन था। पृथ्वीराज के लिए गौरी से युध्द किए बिना पंजाब पर शासन नामुमकिन था, तो इसी उद्देश्य से पृथ्वीराज ने अपनी विशाल सेना को लेकर गौरी पर आक्रमण कर दिया। अपने इस युध्द मे पृथ्वीराज ने सर्वप्रथम हांसी फिर सरस्वती और बाद सरहिंद पर अपना अधिकार किया। परंतु इसी बीच अहिल्वाड़ा मे विद्रोह हुआ और पृथ्वीराज को वहां जाना पड़ा और उनकी सेना ने अपनी कमांड खो दी और सरहिंद का किला फिर खो दिया। अब जब पृथ्वीराज अहिल्वाड़ा से वापस लौटे, और अब भटिंडा की पर आक्रमण करने के लिए सेना लेकर निकल पड़े, और तेरह महीनों के घेरे के बाद उसे अपने कब्जे में कर लिया। इस युद्ध में गोरी सेना के पाँव उखड़ गए और स्वयं मुइज्जुद्दीन मुहम्मद अधमरे हो गया इसकी जान एक युवा खलिजी घुड़सवार ने बचाई। यह युध्द सरहिंद किले के पास तराइन नामक स्थान पर हुआ, इसलिए इसे तराइन का युध्द भी कहते है. इस युध्द मे पृथ्वीराज ने लगभग 7 करोड़ रूपय की संपदा अर्जित की, जिसे उसने अपने सैनिको मे बाट दिया। कई इतिहासकार मानते है कि यह युद्ध विजय के बाद भी पृथ्वीराज चैहान ने पंजाब से गोरियों को खदेड़ने का कोई प्रयास नहीं किया। यह शायद उनही एक भूल थी, और फिर तराइन की दूसरी लड़ाई के पूर्व वह मुइज्जुद्दीन को दिए एक प्रस्ताव में पंजाब को मुइज्जुद्दीन के हाथों छोड़ने के लिए तैयार थे।


तराई का दूसरा युद्ध - मुहम्मद गौरी और पृथ्वीराज चैहान 1192 ई0

तराइन की दूसरी लड़ाई को भारतीय इतिहास का एक मोड़ माना जाता है। मुइज्जुद्दीन ने इसके लिए बहुत तैयारियाँ की थी। मुइज्जुद्दीन इस बार 1,20,000 सैनिकों के साथ मैदान में उतरा जिसमें बड़ी संख्या में बख्तरबंद घुड़सवार और 10,000 धनुर्धारी घुड़सवार शामिल थे।  जैसे कि राजा जयचंद्र की पृथ्वीराज के प्रति कटुता बडती गयी तथा उसने पृथ्वीराज को अपना दुश्मन मान लिया। राजा जयचंद्र ने पृथ्वीराज के खिलाफ अन्य राजपूत राजाओ को भी भड़काने लगा। जब उसे मुहम्मद गौरी और पृथ्वीराज के युध्द के बारे मे पता चला, तो वह पृथ्वीराज के खिलाफ मुहम्मद गौरी के साथ खड़ा हो गया। दोनों ने मिलकर साल 1192 मे पुनः पृथ्वीराज चैहान पर आक्रमण किया। पृथ्वीराज चैहान ने अपनी ओर से शासन में लापरवाही की या यू कहे कि उन्हे स्थिति का अंदाजा लगाने या लगने तक काफी देर हो चुकी थी। इस अभियान के लिए पृथ्वीराज चैहान का सेनाध्यक्ष, स्कंन्द, किसी अन्य जगह उलझ कर रह गया, जिससे इसे युद्ध में नेतृत्व की भी कमी रहीं।  यह युध्द भी तराई के मैदान मे हुआ, इस युध्द के समय जब पृथ्वीराज के मित्र चंदबरदाई ने अन्य राजपूत राजाओ से मदद मांगी, किन्तु संयोगिता के स्वयंबर की हुई घटना और राजा जयंचंद्र के भड़काने के कारण राजपूत राजाओ ने उनकी मदत से इंकार कर दिया। ऐसे मे पृथ्वीराज चैहान अकेले पढ़ गए और उन्होने अपने 3 लाख सैनिको के द्वारा गौरी की सेना का सामना किया। क्यूकि गौरी की सेना मे अच्छे घुड़ सवार थे, उन्होने पृथ्वीराज की सेना को चारो ओर से घेर लिया। ऐसे मे वे न आगे पढ़ पाये न ही पीछे हट पाये। और जयचंद्र के गद्दार सैनिको ने राजपूत सैनिको का ही संहार किया और पृथ्वीराज की हार हुई। युध्द के बाद पृथ्वीराज और उनके मित्र चंदबरदाई को बंदी बना लिया गया। अब पूरे पंजाब, दिल्ली, अजमेर और कन्नोज मे गौरी का शासन था। पृथ्वीराज चैहान के बाद कोई भी राजपूत राजा उत्तर भारत में फिर अपना राज स्थापित नही कर पाया। इसी कारण पृथ्वीराज चैहान, एक राजपूत राजा के तौर पर और भी अहम हो जाते है।


पृथ्वीराज चैहान की मृत्यु  

तराई के द्वितीय युद्ध में पराजित होने के पश्चात् पृथ्वीराज की मृत्यु किस प्रकार हुई, इस विषय में इतिहासकारों के विभिन्न मत मिलते हैं। कुछ के मतानुसार पहले उन्हे बंदी बना कर दिल्ली में रखा गया था और बाद में गौरी के सैनिकों द्वारा मार दिये गये। कुछ का मत है कि उसे बंदी बनाकर गजनी ले जाया गया, वहा उन्हे यतनाए दी गयी तथा उनकी आखो को लोहे के गर्म सरियो द्वारा जलाया गया, इससे वे अपनी आखो की रोशनी खो बैठे। जब पृथ्वीराज से उनकी मृत्यु के पहले आखिरी इच्छा पूछी गयी, तो उन्होने भरी सभा मे अपने मित्र चंदबरदाई के शब्दो पर शब्दभेदी बाण का उपयोग करने की इच्छा प्रकट की। और इसी प्रकार चंदबरदई द्वारा बोले गए दोहे का प्रयोग करते हुये तथा अपनी बुद्धि कौशल से पृथ्वीराज द्वारा गौरी का संहार कराकर उससे बदला लिया था। फिर गौरी के सैनिकों ने उन्हे मार डाला था।  और जब संयोगिता ने यह खबर सुनी, तो उसने भी अपना जीवन समाप्त कर लिया।


संयोगिता एवं पृथ्वीराज चैहान की अमर प्रेम कथा


पृथ्वीराज चैहान और उनकी रानी संयोगिता का प्रेम आज भी भारत के इतिहास मे अविस्मरणीय है। दोनों ही एक दूसरे से बिना मिले केवल एक दूसरे की तस्वीर देखकर और संयोगिता ने पृथ्वीराज चैहान की वीरता की कहानियां सुनकर, एक दूसरे से प्यार करने लगे थे। वही संयोगिता के पिता जयचंद्र, गढहवाल वंश के राजा जिनका राज्य क्षेत्र था, पृथ्वीराज की कौशलता, वीरता तथा उनकी राज्य विस्तार नीति के कारण उनसे ईष्र्या भाव रखता था, जिससे वह अपनी पुत्री का विवाह पृथ्वीराज चैहान से कराने के बारे मे तो सोच तो छोडो उसने पृथ्वीराज को नीचा दिखाने का मौका ढूंढते हुए अपनी पुत्री का स्वंयवर का आयोजन करवाया और आस-पडोस के साथ ही पूरे देश के सभी छा़ेटे बड़े राजाओ को आमत्रित किया, केवल पृथ्वीराज चैहान को छोड़कर। और तो और पृथ्वीराज को नीचा दिखाने के उद्देश्य से उन्होने स्व्यंवर मे पृथ्वीराज की मूर्ति द्वारपाल के स्थान पर रखी। दूसरी तरफ पृथ्वीराज चैहान को जब यह पता चला कि राजकुमारी संयोगिता भी उन्हे पसंद करती है तो उन्होने दृढ निश्चय किया और योजना बनायी कि कैसे संयोगिता के स्वयंवर मे जाया जाय, इसके लिए उन्होने रूप बदलने की योजना भी बनायी। किंतु राजकुमारी द्वारा संदेश मिलने के पश्चात उन्होंने अपहरण करने का निर्णय लिय, और राजकुमारी संयोगिता की इच्छा से उनका अपहरण भरी महफिल मे किया और उन्हे भगाकर अपनी रियासत ले आए, और दिल्ली आकर दोनों मे पूरी विधि से विवाह संपन्न हुआ। जो कि राजा पृथ्वीराज चैहान की 13 वीं रानी बनी। इसके बाद राजा जयचंद और पृथ्वीराज के बीच दुश्मनी और भी बढ़ गयी।



अन्य तथ्य 


एक विदेशी आक्रमणकारी मुहम्मद गौरी ने बार बार युद्ध करके पृथ्वीराज चैहान को हराना चाहा पर ऐसा ना हो पाया। पृथ्वीराज चैहान ने 17 बार मुहम्मद गौरी को युद्ध में परास्त किया और दरियादिली दिखाते हुए कई बार माफ भी किया और छोड़ दिया पर अठारहवीं बार मुहम्मद गौरी ने जयचंद की मदद से पृथ्वीराज चैहान को युद्ध में मात दी और बंदी बना कर अपने साथ ले गया। पृथ्वीराज चैहान और चन्द्रवरदाई दोनों ही बन्दी बना लिये गये और सजा के तौर पर पृथ्वीराज की आखें गर्म सलाखों से फोड दी गई। अंत में चन्द्रवरदाई जो कि एक कवि और पृथ्वीराज चैहान के खास दोस्त थे। दोनों नें भरे दरबार में गौरी को मारने की योजना बनाई जिसके तहत चन्द्रवरदाई ने काव्यात्मक भाषा में एक पक्तिं कही-
“चार बांस चैबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण, ता ऊपर सुल्तान है मत चूके चैहान।”
और अंधे होने के बावजूद पृथ्वीराज चैहान ने इसको सुना और बाण चलाया जिसके फलस्वरूप मुहम्मद गौरी का प्राणांत हो गया। फिर चन्द्रवरदाई और पृथ्वीराज चैहान दोनों ने पकड़े जाने पर फिर से बंदी जीवन व्यतीत करने के बजाय दोनों ने एक दूसरे को मार डाला। इस तरह पृथ्वीराज ने अपने अपमान का बदला ले लिया। उधर संयोगिता ने जब ये दुखद समाचार सुना तो उसने भी अपने प्राणों का अंत कर दिया।

No comments:

Post a Comment

Please Do not enter nay spam link on comment

Rich Dad Poor Dad : What The Rich Teach Their Kids About Money