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Tuesday, April 21, 2020

History of bageshwar बागेश्वर, भगवान शिव का बाघ रूप में निवास स्थान I

बागेश्वर, भगवान शिव का बाघ रूप में निवास स्थान


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पर्वतराज हिमालय की गोद सरयू, गोमती और विलुप्त सरस्वती के संगम पर स्थित भगवान बागनाथ का मंदिर क्षेत्र के लोगों के श्रद्धा का केंद्र के साथ ही  बागनाथ मंदिर धर्म के साथ पुरातात्विक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। नगर को मार्केंडेय ऋषि की तपोभूमि के नाम से जाना जाता है। भगवान शिव के बाघ रूप में यहां निवास करने से इसे व्याघ्रेश्वर नाम से जाना गया, जो बाद में बागेश्वर हो गया। बहुत पहले भगवान शिव के इसी रूप का प्रतीक एक देवालय यहां पर स्थापित था।  भगवान शिव माता पार्वती के साथ इस स्थान पर निवास करते हैं। महाशिवरात्रि, मकर संक्रांति के अलावा अन्य पर्वों पर मंदिर में जलार्पण करने वालों का यहां सैलाब उमड़ पड़ता है। अनादिकाल से ही इस स्थान के धाम के रूप मे विशेष महत्व है ऋषि मार्कण्डेय द्वारा स्थापित किया गया यह वैदिककालिन शिव मंदिर उत्तर का काशी, जैसे कई उपनामों से भी पुकारा जाता है। प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक यह स्थान कई विशेष घटनाओं का गवाह रहा है। 15वीं शताब्दी में उत्तराखंड की अमर प्रेम कहानी राजूला-मालूशाही की शुरूआत तो भगवान शिव के आर्शीवाद से ही शुरू हुई थी। 20वीं सदी में असहयोग आदोलन के दौरान उत्तराखंड से कुली बेगार, कुली बर्दाश्य जैसी कुप्रथा का अंत भी भगवान शिव की इसी पावन धरती पर सरयू-गोमती के संगम पर ही हुआ। सूर्य के उत्तरायण होने पर लगने वाला मकर संक्राति का मेला वर्षों से विशेष आस्था का केन्द्र है। वर्तमान नागर शैली के बागनाथ मंदिर को चंद्र वंशी राजा लक्ष्मी चंद ने सन 1602 में पुनराद्धार किया था। मंदिर के समीप ही भैरवनाथ का मंदिर बना है। बाबा काल भैरव मंदिर में द्वारपाल रूप में निवास करते हैं। 
बागनाथ मंदिर में सातवीं से सोलहवीं सदी ईसवी तक की अनेक महत्वपूर्ण प्रतिमाएं हैं। इनमें उमा-महेश्वर, पार्वती, महिषासुर मर्दिनी, एक मुख एवं चतुमुर्खी शिव लिंग, त्रिमुखी शिव, गणेश, बिष्णु, सूर्य तथा सप्त मातृका और दशावतार पट आदि की प्रतिमांए हैं। जो इस बात की प्रमाणिकता सिद्ध करती हैं कि सातवीं सदी से कत्यूर काल में इस स्थान पर अत्यंत भव्य मंदिर रहा होगा। यहां पर मकर संक्रांति तथा शिवरात्रि पर भव्य मेला लगता है।


बागेश्वर का नामोत्पत्ति


आज के बागेश्वर नाम की उत्पत्ति आदिकाल से जुडी हुई एक कहानी के कारण हुई। यह कहानी वैदिक काल से जुडी हुई है जिसका काल सामान्यतया 1600 ई0पू0 से 1000 ई0पू0 यानी आज से 3000-3600 साल पुरानी की है। पौराणिक कथा के अनुसार मुनि वशिष्ठ, जो भगवान राम मे गुरू थे, ने मां सरयू को अयोध्या में श्रीराम के जन्म पर आयोजित समारोह में सम्मिलित होने के लिए आवहान किया और कठोर तपबल करके ब्रह्मा के कमंडल से निकली मां सरयू को लेकर इस क्षेत्र से निकल रहे थे। जैसे ही मुनि मां सरयू के साथ गोमती संगम पर ब्रह्मकपाली, वह स्थान जहां पित्रों का तर्पन किया जाता है पर पहुंचे। उस समय ब्रह्मकपाली के समीप ऋषि मार्कण्डेय भगवान की तपस्या में लीन थे। ऋषि की तपस्या भंग ना हो, इसलिए सरयू वहां ही रुक गयी, और देखते देखते पूरे क्षेत्र में जल भराव होने लगा। मुनि वशिष्ठ ने समाधान हेतु भगवान शिवजी की आराधना करनी शुरू की। मुनि वशिष्ठ की तपस्या से प्रसन्न शिवजी ने समस्या के समाधान हेतु स्वंय बाघ का रूप एवं मां पार्वती को गाय का धारण करवाकर एक स्वान रचाया, और ब्रह्मकपाली के समीप बाघ रूपी भगवान शिव ने गाय पर झपटने का प्रयास किया। गाय के रंभाने की आवाज  से मार्कण्डेय मुनि की तपस्या भंग हुई और वह गाय को बाघ से बचाने के लिए दौड़ पडे, (वैदिक काल में गाय सबसे ज्यादा पूज्यनीय होती थी।) जैसे ही वह बाघ (व्याघ्र) के पास पहुचे, भगवान शिव और मां पार्वती अपने मूल रूप में आ गये और ऋषि को सारी कहानी सुनाई की कैसे उन्होने इस क्षेत्र को जलमग्न होने से बचाने वह ऋषि की तपस्या में को विघ्न पहुचाने के लिए यह खेल रचा था और दोनो ने ऋषि मार्कण्डेय को इच्छित वर और मुनि वशिष्ठ को आशीर्वाद दिया। इसके बाद ही सरयू आगे बढ़ सकी और अपने अविरल प्रवाह से आज भी इस क्षेत्र की पवित्रता और महत्ता को बनाये हुए है। भगवान शिव ने इस स्थान पर व्याघ्र का रूप लेने के कारण इस स्थान को व्याघ्रेश्वर कहा जाने लगा, जो कालान्तर में उच्चारण के बदलाव के कारण बागीश्वर तथा फिर आज को बागेश्वर बागेश्वर हो गया। कुछ पौराणिक ग्रंथों मे यह भी मान्यता है कि जब ऋषि मार्कण्डेय को भगवान शिव ने व्याघ्र रूप मे दर्शन दिये और इच्छित वर मांगने को कहा इस पर ऋषि ने भगवान शिव को इसी स्थान पर व्याघ्रेश्वर के रूप में निवास करने हेतु आग्रह किया, जिस पर भगवान शिव सहमत हो गये। जब शिव-पार्वती के साथ ंइस स्थान पर पधारे तो आकाशवाणी हुई, जिसमें शिव का स्तुतिगान हुआ। अतः स्थान वाक्ईश्वर या बागीश्वर कहलाया।
वशिष्ठ मुनि - कहा जाता है कि संसार की उत्पत्ति के समय ईश्वर द्वारा मुनियों को ज्ञान की प्राप्ति हुई उसमें कुल सात मुनि ही थे। जिनमे से एक मुनि वशिष्ठ भी थे। अतः मुनि वशिष्ठ एक सप्तर्षि हैं, जिन्होंने वेदों का दर्शन किया या कुछ हद तक कह सकते है कि रचना की। उनकी पत्नी अरुन्धती है। वह योग-वासिष्ठ में राम के गुरु हैं। वशिष्ठ राजा दशरथ के राजकुल गुरु भी थे। वर्तमान आकाश में चमकते सात तारों के समूह में पंक्ति के एक स्थान पर वशिष्ठ को स्थित माना जाता है।

बागेश्वर का क्रमिक इतिहास


बागेश्वर की स्थापना संबंधी विवरण में पहले सिर्फ बागनाथ ही अतित्व में था, जो धीरे-धीरे नगरीकृत होकर और मंदिर की महत्ता के कारण आज का बागेश्वर बन गया। शिव पुराण के मानस खंड के अनुसार इस नगर को शिव के गण चंडीश ने शिवजी की इच्छा के अनुसार बसाया था। माना जाता है कि जब भगवान शिव जब महाक्षेत्र वाराणसी से कैलाश की ओर प्रस्तान कर रहे थे, तो उनके गण चंडीश ने उनके क्षणिक विश्राम हेतु सरयू और गोमती के मध्य स्थित नीलपर्वत से सूर्य तीर्थ के ऊध्र्व भाग में वरूणा और अग्नि तीर्थ के ऊपर असी तीर्थ की और इन दोनो मे मध्य छोटा महाक्षेत्र या वाराणसी की स्थापना की। इस प्रकार दूसरी वाराणसी की स्थापना होने पर भगवान शिव मां पार्वती के साथ कुछ दिनों तक निवास किया। इसके बाद कार्तिकेयपुर वंश के प्रथम शासक बसन्तदेव व पुत्र द्वारा लगभग 690 ई0- 730 ई0 मे मध्य इस मंदिर को भूमि दान का उल्लेख मिलता है। कत्यूरियो शासको ने भी व्याघ्रेश्वर को राजराजेश्वर का मान दिया। कत्यूरी शासक भूदेव का कुटिला लिपि में एक शिलालेख जो कि सन 859 ई0 का मालूम होता था बागेश्वर बागनाथ मंदिर के दक्षिण में स्थापित कराया गया था जो कि वर्ष 1914-15 मे आयी बाढ में बह जाने से अब अप्राप्त है। यह एकमात्र प्राचीन ऐतिहासिक प्रमाण भी था। इसके बाद अनेक मांडलिक राजाओ द्वारा इस मंदिर का प्रबंधन किया। वर्ष 1586 ई0 में चन्द राजा रूद्र चन्द के द्वारा बैजनाथ विजित किया, इसी के साथ बागनाथ मंदिर को भी राजसंरक्षण मे लिया। यह चंद वंश मे प्रथम ऐतिहासिक प्रमाण के तौर पर भी है कि कब बागनाथ मदिर की महत्ता चंदो से समझी। चंद वंश के ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार वर्ष 1602 ई0 मे राजा लक्ष्मी चन्द ने बागनाथ के वर्तमान मुख्य मन्दिर एवं मन्दिर समूह का पुनर्निर्माण कर इसके वर्तमान रूप को अक्षुण्ण रखने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। इसके अलावा तीन और चंद राजाओ द्वारा भी भूमिदान का वर्णन मिलता है, जिसमे वर्ष 1672 ई0 राजा बाजबहादुर चंद, 1763 ई0 में राजा दीप चंद और 1786, 1787 एवं 1788 में राजा मोहन चंद द्वारा भूमिदान का वर्णन है।
ये सभी तथ्य दिखाते है कि सभी राजवंशो ने मंदिर को राजसंरक्षण मे लिया था, तो फिर इस मंदिर परिसर में अपूज्य व खंडित कलात्मक मूर्तियां क्या इंगित करवा रही है। इससे यही प्रमाण मिलता है कि इन राजवंशो के अलावा भी कुछ बाहरी शैतानी ताकतो ने भी इस क्षेत्र को कुछ समय के लिया लूटा जरूर होगा। जिसमें सबसे पहले 1743 में तिब्बती हुणो द्वारा व 1776 में रोहिला नवाब अली अहमद खां के सरदार हाफिज रहमत खां का नाम आता है जिन्होने इस मंदिर की दिवारो को क्षति भी पहुचाई मगर इसके अस्तित्व को छू तक नहीं सके।

सर्वप्रथम इतिहासकार एटकिन्सन ने अपनी पुस्तक हिमालय गजेटियर में बागेश्वर की स्थायी आबादी 500 बतायी है वर्ष 1886 का आंकडा है। जहां तक बागेश्वर के घरो और बस्तियों की बात है तो कुमाऊ गजेटियर व अन्य में इस भाग मे लगभग 19वीं सदी के प्रारम्भ में आठ-दस घरों की एक छोटी सी बस्ती होने का आंकडा है जो कि मन्दिर परिसर से संलग्न थी। इस बस्ती के अलावा सरयू नदी के पार सरकारी डाक बंगले, दुग बाजार और नदीगांव क्षेत्र का वर्णन भी मिलता है। अंग्रेजो को इसके आसपास के पर्वतीय इलाके काफी भाने लगे और अपने ऐशो आराम के लिए वे इस क्षेत्र को संचार सुलभ बनाने के लिए रेल लाईन से जोडने तक का प्रावधान करने लगे। सर्वप्रथम 1905 में अंग्रेजी शासकों द्वारा टनकपुर-बागेश्वर रेलवे लाईन का सर्वेक्षण किया गया, जिसके साक्ष्य आज भी यत्र-तत्र बिखरे मिलते हैं। मंदिर के साथ ही बागेश्वर क्षेत्र को राष्ट्रीय स्तर पर एक विशेष पहचान तब मिली जब यहा वर्ष 1921 के उत्तरायणी मेले के अवसर पर कुली बेगार, कुली बर्दाश्य आदि कुप्रथाओं को लेकर कुमाऊँ केसरी बद्री दत्त पाण्डेय, हरगोविंद पंत, श्याम लाल साह, विक्टर मोहन जोशी, राम लाल साह, मोहन सिह मेहता, ईश्वरी लाल साह आदि के नेतृत्व में सैकड़ों आन्दोलनकारियों ने कुली बेगार के रजिस्टर बहा कर इस कलंकपूर्ण प्रथा को समाप्त करने की कसम इसी सरयू तट पर ली थी। यह पर्वतीय क्षेत्र से जुडे आंदोलनकारियो का का राष्ट्रीय आन्दोलन असहयोग आंदोलन में एक विशेष योगदान था, जिससे प्रभावित होकर स्वयं गांधी जी वर्ष 1929 में अपने कुमाऊ दौरे के दौरान विशेष रूप से बागेश्वर पहुँचे।
स्वतंत्रता बाद धार्मिक महत्ता के कारण धीरे-धीरे इस क्षे़त्र की जनसंख्या बढने लगी साल 1960 के आसपास यह स्थान 250-400 घरों वाले एक कस्बे का रूप धारण कर चुका था। जैसा कि एटकिन्सन के अनुसार वर्ष 1886 में इस स्थान की स्थायी आबादी 500 बतायी है।

स्वतंत्रता के समय 1947 में बागेश्वर नाम बागनाथ मंदिर के समीप स्थित बाजार तथा उसके आसपास के क्षेत्र के लिए प्रयोग किया जाता था, हालांकि इसके आसपास कुछ गांव मौजूद थे केवल अभी के बागेश्वर शहर का ही विकास नहीं हुआ था। वर्ष 1948 मे बागेश्वर को ग्राम सभा बनाया गया जिसमे उस समय आसपास के 9 छोटे-बडे गांवो को भी मिलाया गया। बागेश्वर को 1952 में टाउन एरिया बना दिया गया, जो कि वर्ष 1955 तक टाउन एरिया रहा। 1955 में इसे नोटीफाइड एरिया घोषित किया गया। 1957 में इसे निकाय का दर्जा मिला और प्रथम बार स्थानीय निकाय हेतु चुनाव हुए। वर्ष 1965 में इसे नगर पालिका के गठन हेतु प्रस्ताव तत्कालीन उ0प्र सरकार को भेजा गया, जो वर्ष 1968 में मंजूरी के बाद इसी साल बागेश्वर नगर पालिका का गठन कर दिया गया, उस समय नगर की जनसंख्या लगभग साढे तीन हजार (3500) थी। 14 सितम्बर 1997 तक यह क्षेत्र अल्मोडा जिला के अधीन आता था किन्तु 14 सितम्बर 1997 को इस क्षेत्र को अल्मोडा जिला से अलग कर एक नये जिले का गठन किया गया। तब से लेकर अब तक प्रशासनिक व आर्थिक तौर पर इस क्षेत्र का काफी विकास हो रहा है।

मंदिर इतिहास-
कत्यूरी काल (7वीं-9वी सदीं)- 4 लघु मंदिर थे।
चंदकाल में 1602 ई0 में लक्ष्मीचंद द्वारा पुर्नरूद्धार
वर्ष 2012 में प्रवेश द्वार मुख्य गेट

उत्तराखंड की अमर प्रेम कहानी राजूला-मालूशाही कत्यूरी

बागेश्वर के प्रमुख मेले व उनका महत्व 



उत्तरायणी मेला



उत्तरायणी मेला सम्पूर्ण कुमायुं का प्रसिद्ध मेला है। मेला अवधि में संगम तट पर दूर-दूर से श्रद्धालु, भक्तजन आकर मुडंन, जनेंऊ सरंकार, स्नान पूजा अर्चना करते है तथा पुण्य लाभ कमाते है विशेषकर मकर संक्रान्ति के दिन प्रातःकाल से ही हजारों की संख्या में स्त्री पुरूष बच्चे बूढें महिलाऐ संगम में डुबकी लगाते हैं। वर्ष में सूर्य छः माह दक्षिणायन में व छः माह उत्तरायण में रहता है। मकर संक्रान्ति से सूर्य उत्तरायण में प्रवेश करता है। इसका एक धार्मिक महत्व है। इस दिन बागेश्वर धाम मे की गयी पूजा अर्चना काशी मे की गयी पूजा के समान ही महत्व रखती है। प्राचीन काल से ही लोग आम हो या खास संतान प्राप्ति के लिए इस दिन यहा स्नान कर भगवान शंकर से संतान प्राप्ति हेतु प्रण मांगते थे। इस क्षेत्र की मसहूर प्रेम कहानी राजूला मालूशाही का जन्म भी इसी धाम से आर्शीवाद स्वरूप प्राप्त हुआ। मकर संक्राति के समय सरयू-गोमती के संगम में डुबकी लगाने से सारे पाप धुल जाते हैं। मेला अवधि मे बाहर से आये हुये कलाकारों द्वारा विशेष नाटकों का आयोजन होता है स्थानीय कलाकारों द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रमों के दौरान स्थानीय संस्कृति का प्रदर्शन किया जाता हैं। प्राप्त प्रमाणों के आधार पर माना जाता है कि चंद वंशीय राजाओं के शासनकाल में ही माघ मेले की नींव पड़ी थी । 14 जनवरी 1921 को मकर सक्रांति के दिन उत्तरायणी के दिन इसी संगम स्थल पर बद्रीनाथ पाण्डे के नेतृत्व में कई हजारो आंदोलनकारियो ने अंग्रेजो की कई बेकार प्रथा से सम्बंधित रजिस्टर को इसी संगम में बहा दिया था। इसी प्रथा के कारण कुली बेगार प्रथा का अंत हुआ और इस आन्दोलन का सफल नेतृत्व करने में बद्री दत्त पांडे को “कुर्मांचल केसरी” की उपाधि दी गयी थी। 1929 में महात्मा गाँधी ने इस संगम पर “स्वराज भवन” का शिल्यांश किया। जिसका उपयोग स्वतंत्रा संग्राम के दौरान राजनैतिक और राष्ट्रीय चेतना फैलाने के लिए किया जाता था 


महाशिवरात्रि का महत्व

हर चंद्र मास, जो चंद्रमा के अपने अक्ष पर एक घूर्णन का समय है (29.5 दिन) का चैदहवाँ दिन अथवा अमावस्या से पूर्व का एक दिन शिवरात्रि के नाम से जाना जाता है। एक कैलेंडर वर्ष में आने वाली सभी शिवरात्रियों, सामान्यतया एक चंद्र मास मे एक शिवरात्री आती है, में से, महाशिवरात्रि, को सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना जाता है, जो फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को या ग्रेगोरियन कलेंडर में फरवरी-मार्च माह में आती है। पौराणिक कथाओं के अनुसार इस दिन सृष्टि का आरम्भ अग्निलिंग (जो महादेव का विशालकाय स्वरूप है) के उदय से हुआ। इसी दिन भगवान शिव का विवाह माता पार्वती के साथ हुआ था। साल में होने वाली 12 शिवरात्रियों में से महाशिवरात्रि को सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है, भारत सहित पूरी दुनिया में महाशिवरात्रि का पावन पर्व बहुत ही उत्साह के साथ मनाया जाता है। महाशिवरात्रि आध्यात्मिक पथ पर चलने वाले साधकों के लिए बहुत महत्व रखती है। साथ ही यह उनके लिए भी बहुत महत्वपूर्ण है जो पारिवारिक समाज का पालन करते हैं और संसार की महत्वाकांक्षाओं में मग्न हैं। पारिवारिक परिस्थितियों में मग्न लोग महाशिवरात्रि को शिव के विवाह के उत्सव की तरह मनाते हैं। सांसारिक महत्वाकांक्षाओं में मग्न लोग महाशिवरात्रि को, शिव के द्वारा अपने शत्रुओं पर विजय पाने के दिवस के रूप में मनाते हैं। परंतु, साधकों के लिए, यह वह दिन है, जिस दिन महाशिव कैलाश पर्वत के साथ एकात्म हो गए थे। वे एक पर्वत की भाँति स्थिर व निश्चल हो गए थे। यौगिक परंपरा में, शिव को देवता की तरह नहीं पूजा जाता बल्कि उन्हें आदि गुरु माना जाता है, यानी वह प्रथम गुरू, जिनसे ज्ञान का प्रकाश हुआ या उपजा। ध्यान की अनेको युगों के पश्चात, जिस दिन भगवान शिव पूर्ण रूप से स्थिर हो गए। वही दिन महाशिवरात्रि का था। उनके भीतर की सारी गतिविधियाँ शांत हुईं और वे पूरी तरह से स्थिर हुए, इसलिए साधक महाशिवरात्रि को स्थिरता की रात्रि के रूप में मनाते हैं।

चौंसठ योगिनी मंदिर मुरैना। Indian Monument a parental design of Parliament. 64 Yogini temple. what is 64 Yogini.


बागेश्वर जिले के प्रमुख पर्यटन स्थल



चंडिका मंदिर-

यह सुंदर तथा प्राचीन चंडिका देवी का मंदिर है। बागेश्वर शहर से लगभग 2 किलोमीटर की दूरी पर चंडिका मंदिर स्थित है जोकि देवी दुर्गा के नौ रूपों में से एक है। यह मंदिर बहुत ही आकर्षित और दर्शनीय है, जहां देवी दुर्गा का नौ दिवसीय त्यौहार मनाया जाता है। यह त्यौहार पर्यटकों को बहुत आकर्षित करता है और पर्यटक इस त्यौहार का हिस्सा बनना पसंद करते हैं। यहां पर नवरात्रो मे काफी भीड रहती है।

श्रीहाडु मंदिर- बागेश्वर से करीब 5 किमी की दूरी पर स्थित यह मंदिर श्रद्धालुओ की मन्नतें पूरी होने के लिए प्रसिद है। यहां पर विजयदशमी के दिन मेला लगता है। जिसमें हजारो स्त्री पुरूष भाग लेते है।


गौरी गुफा या गौरी उडियार-

स्थानिय भाषा में गुफा को उडियार कहा जाता है, मां गौरी की प्रतिमा के लिए प्रसिद्ध यह गुफा मंदिर बागेश्वर से लगभग 8 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। गौरी उडियार मंदिर बागेश्वर के पवित्र मंदिरों में से एक है जोकि एक प्राकृतिक गुफा के अन्दर स्थित है। इस पवित्र गुफा में भगवान शिव की प्रतिमा भी स्थापित है। जो कि वैदिक कालीन होने की संभावना प्रकट करती है। 



बैजनाथ मंदिर समूह-

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यह ऐतिहासिक एव पौराणिक शहर गोमती व गरूड गंगा नदियो के संगम तथा कत्यूरी घाटियो के मध्य स्थित है। जो कि गढ़वाल हिमालय के मध्य में स्थित है। बैजनाथ की बागेश्वर से दूरी 20 किमी के लगभग है। पौराणिक कथा के अनुसार भगवान शिव और पार्वती का विवाह यहां गूर नदी और गोमती नदी के संगम पर हुआ था। बैजनाथ मंदिर भगवान शंकर को समर्पित बहुत ही प्राचीन तथा आकर्षक मंदिर है। यह मंदिर एक महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल है जो अपनी प्राचीन मूर्तियों के लिए जाना जाता है। इतिहास के पन्ने बताते हैं कि बैजनाथ 7 वीं से 11 वीं शताब्दी ईस्वी के आसपास कत्यूरी राजवंश की राजधानी हुआ करता था, जिसका प्रारंभिक नाम कार्तिकेयपुर था। बैजनाथ मंदिर भी कत्यूरी राजाओ द्वारा बनवाया गया था, जिसमें भगवान शिव, देवी पार्वती, भगवान गणेश, भगवान ब्रह्मा और विभिन्न अन्य हिंदू देवताओं की मूर्तियों को स्थापित किया गया था।


कोट की माई का मेला

कोट की माई का मंदिर गरूर से ग्वालदम जाने वाले रास्ते पर बैजनाथ से 3 कि.मी. की दूरी पर 300मी ऊँची चोटी पर स्थित है। यहाँ पहुँचने के लिए सडक से 1 कि.मी. की खड़ी चढ़ाई चढ़नी पड़ती है। प्राचीन काल में रणचूला नाम से विख्यात इस स्थान पर कभी कव्यूरी राजाओं ने अपना किला बनवाया था । गढ़वाल यात्रा के समय जगतगुरु शंकराचार्य भी इस स्थान पर कव्यूरी राजाओं के अतिथि बने थे। उन्होंने बैजनाथ मंदिर की शिला की यहाँ प्राणप्रतिष्ठा की और पूजन आरम्भ करवाया । बाद में वे ही कोटा की माई के नाम से पूजित हुई । इसी स्थान पर बाजबहादुर चंद द्वारा गढवाल से लायी नंदादेवी की मूर्तिया भी स्थापित करायी थी।



ग्वालदम 


ग्वालदम, गढ़वाल और कुमाऊं के बाॅर्डर मे स्थित एक सुंदर क्षेत्र है।  जो कई जंगलों और छोटी झीलों से भरा हुआ है। समुद्रतल से लगभग 1700 मीटर की ऊंचाई पर देवदार के जंगलों और सेब के बागों के बीच स्थित यह गाँव नंदादेवी, त्रिशूल और नंदादेवी जैसी चोटियों के कुछ विस्तृत और मनोहारी नजारों को दिखाता है। इस क्षेत्र की विशेषता प्राकृतिक सुन्दरता के अतिरिक्त स्थानियो के बीच कुमांऊ और गढवाल की सयुक्त पराम्परा भी देखने को मिलती है, जो इस क्षेत्र की अद्वितीय पहचान है। इसी के पास बधाण गढी नाम का ऐतिहासिक प्राचीन गढ है।



पांडुस्थल-

यह स्थल बागेश्वर से 25 किमी की दूरी मे स्थित एक रमणीय स्थल है। मान्यता है कि बैजनाथ और बागनाथ धाम के मध्य स्थित पांडुस्थल में कौरवो व पांडवो के मध्य युद्ध लडा गया था। कौरवों और पांडवों के बीच हुए युद्ध का साक्षी पांडू स्थल बागेश्वर के सबसे सुन्दर दृश्यों में से एक है। इस स्थान पर सुन्दर ग्लेशियरों का नजारा बहुत ही अद्भुत होता है। पर्यटक यहाँ ट्रेकिंग के लिए आते है और इस ट्रेकिंग की लम्बाई लगभग 15 किलोमीटर है। ट्रेकिंग के साथ हिमालय के इस शानदार दृश्य का नजारा देखना बहुत ही अच्छा अनुभव होता हैं।

भद्रकाली का मंदिर कांडा

बागेश्वर से लगभग 25 किमी की दूरी पर बागेश्वर-चैकडी सडक मार्ग पर स्थित यह प्राकृति का एक बहुत ही सुंदर व मनमोहक स्थल है। यह मंदिर मां काली के रूप मे से एक भद्रकाली को समर्पित है। 



पिंडारी हिमनद- 

यह ग्लेशियर शुद्ध रूप से उत्तराखंड का दूसरा सबसे बडा ग्लेशियर है, जो कि चमोली, बागेश्वर और पिथोरागढ जिले तक विस्तृत है। इसका अधिकांश ट्रेकिग करने हेतु भाग बागेश्वर मे ही स्थित है जो ट्रेकिग की दृष्टी से यह क्षेत्र बहुत प्रसिद है। यह बागेश्वर से 65 किमी दूरी पर स्थित है, जहां पहुचने के लिए आधे रास्ता गाडी व आधा पैदन चलकर जाना पडता है। पूरे मार्ग पर अनुपम प्राकृतिक सौंदर्य का साम्राज्य फैला हुआ है। प्रतिवर्ष सैकडो देशी विदेशी पर्यटक यहां ट्रेकिंग करने आते है। ऊपर चोटी से लेकर नीचे घाटी तक फैले इस बर्फ के साम्राज्य में सीढीनुमा दरारे दर्शनीय है। दरारो के नीचे एक बडी प्राकृतिक हिमगुफा है। यहां पर चार पांच ओर गुफाए है जो सुरंगो की तरहा दिखाई देती है। यही से पिडंर नदी निकलती है। पिडारी हिमनद ट्रेक के लिए सांग में बैस केम्प लगता है जो बागेश्वर से 36 किमी की दूरी पर है। पिंडारी ग्लेशियर 30 किमी लम्बा और लगभग 400 मी0 चैडा है, जहां टेªकिंग हेतु 5 से 10 दिन का समय लगता है। यहाँ पर सितम्बर से अक्टूबर में ये ट्रेकिंग कार्यक्रम आयोजित किये जाते है। यहाँ आने वाले पर्यटक टेंट लगा कर रुकते है और रोज अपनी ट्रेकिंग यात्रा का आनंद लेते है।


सुंदरढुंगा

बागेश्वर से 36 किलोमीटर की दूरी पर स्थित सुन्दर गंगा ट्रेक बागेश्वर का बहुत ही लोकप्रिय स्थान है, जो कि बागेश्वर का सबसे बडा ग्लेशिर भी है। सुंदरढुंगा एक पत्थरो की सुंदर घाटी है जो पिडांरी क्षेत्र को एक सीमा में बांधे हुए है। यह पिडारी और कफनी के मध्य में स्थित है। यह दो हिमनद प्रकृति का एक अनुपम दृश्य है। यहां पहुंचने के लिए खाती गांव होकर आना पडता है। सुन्दरढुंगा ट्रेक को वैली ऑफ ब्यूटीफुल स्टोन्स के नाम से भी जाना जाता है। जोकि पर्यटकों को बहुत ही ज्यादा पसंद आने वाली जगह है।


बिगुल 

इस क्षेत्र का नाम बिगुल ब्रिटिश काल में के दौरान लगभग 1902 के आसपास पडा। क्योंकि आसपास के ग्रामीणों से कर वसूलने की घोषणा के लिए ब्रिटिश सरकार ने इस स्थान पर बिगुलस का इस्तेमाल किया था। बिगुल बागेश्वर शहर से लगभग 32 किलोमीटर दूर स्थित है, जोकि नंदा देवी और पंचाचूली चोटियों के मध्य होने कारण हिमालय अद्भुत दृश्य प्रदर्शन के कारण यह बागेश्वर के प्रमुख पर्यटक स्थानों में गिना जाता है। बिगुल के सबसे ऊँचे स्थान पर ढोलिनाग मंदिर है जो यहाँ के स्थानीय लोगों की आस्था का केंद्र बना हुआ है।


कौसानी 


बागेश्वर से 38 किमी की दूरी पर स्थित इस स्थान की प्राकृतिक खूबसूरती को देखते हुए महात्मा गाधी ने अपने उत्तराखंड के यात्रा के दौरान वर्ष 1929 में इस स्थान पर 14 दिनों तक रूके और इसे भारत का स्विट्जरलैंड की संज्ञा दी। कौसानी प्राचीन परिदृश्य के साथ शानदार घाटियां और सुरम्य हरियाली के लिए जाना जाता है। पुराने समय में कौसानी को बलना के नाम से जाना जाता था। यह शहर सबसे ज्यादा उस समय प्रसिद्ध हो गया था जब 1929 में महात्मा गांधी ने अनासक्ति योग पर अपने काम को पूरा करने के लिए इस स्थान को अपना अस्थायी निवास स्थान बनाया था। इसके अलावा यह स्थान हिंदी कवि सुमित्रानंदन पंत के लिए भी जाना जाता है। शुरुआत में कौसानी शहर कुमाउनी और गढ़वाली समुदायों द्वारा बसाया गया था, जो अल्मोड़ा जिले का एक हिस्सा था, लेकिन जब साल 1997 में बागेश्वर को अल्मोडा जिले से अलग एक जिले के रूप में बनाया तो कौसानी को बागेश्वर मे सम्मलित किया गया। कौसानी त्रिशूल और नंदा देवी की बर्फ से ढकी चोटियों के आकर्षक दृश्यों को प्रस्तुत करता है। देवदार और पाइंस की वनस्पतियों से ढकी हुई गढ़वाल हिमालय की शानदार पहाड़ियों के लुहावने दृश्य पर्यटकों को अपनी तरफ आकर्षित करते हैं।


रुद्रधारी जलप्रपात और गुफाएँ

रुद्रधारी फाल्स कौसानी से सिर्फ 12 किलोमीटर दूर एक खास पर्यटन स्थल है जो धान के खेतों और देवदार के जंगलों से घिरा हुआ है। इस स्थान पर जलप्रपात के अलावा प्राचीन गुफाओं भी है, जिनका बारे में अभी तक रहस्य बना हुआ है कि ये कब और कैसे बनी। रुद्रधारी फाल्स के बारे में बताया जाता है कि इस जगह का भगवान शिव और विष्णु से संबंध है, यहां झरने के निकट भगवान शिव को समर्पित सोमेश्वर का मंदिर स्थित है।



सुमित्रानंदन पंत संग्रहालय कौसानी

कौसानी में जन्में महान हिंदी कवि सुमित्रानंदन पंत को समर्पित यह संग्राहलय उनके रचनात्मक कार्यों की एक विस्तृत श्रृंखला प्रस्तुत करता है। महान कवि सुमित्रानंदन पंत संग्रहालय कौसानी में एक कलात्मक जगह है, जो अपने आप में पुस्तक संग्रह का एक अलग ही दुनिया है। यहां पर अंग्रेजी और हिंदी में उनकी पुस्तकों का एक बड़ा संग्रह कांच की अलमारियों रखा गया है। हर साल उनकी सुमित्रानंदन पंत जयंती 10 मई के मौके पर संग्रहालय में एक काव्य चर्चा का आयोजन किया जाता है।


अनासक्ति आश्रम कौसानी


इस आश्रम को गांधी आश्रम के नाम से भी जाना जाता हैं। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान जब महात्मा गांधी 1929 में कुमाऊं के अल्मोड़ा, ताकुला, ताड़ीखेत की यात्रा पर थे तो कौसानी जाते समय  चनौदा किं, एक चाय बागान के मालिक के अतिथि गृह में दो दिन के लिए रुक गए। सुबह सुबह जब गांधी इस अतिथि गृह में योग करने बाहर आए तो उन्हें साक्षात हिमालय के दर्शन हुए और वो मंत्रमुग्ध रह गए। वो इस जगह की खूबसूरती और यहां के वातावरण में भरे आध्यात्म से इतना प्रभावित हुए कि वो दो की बजाय पूरे 14 दिन तक यहां रहे और ”अनासक्ति योग” पुस्तक को भी पूरा कर डाला। और इस जगह को गांधी जी ने अपने प्राचीन सौंदर्य से प्यार करने के बाद भारत के स्विट्जरलैंड के रूप में वर्णित किया था। यह आश्रम महात्मा गांधी को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए बनाया गया था इसीलिये महात्मा जी की अमर कृति ‘अनासक्ति योग ’ के नाम पर उनकी विश्राम स्थली को ‘अनासक्ति आश्रम’ का नाम दिया गया है। इस आश्रम में एक छोटा प्रार्थना कक्ष है जहां प्रार्थना हर सुबह और शाम आयोजित की जाती है। 
इस आश्रम से बर्फ से ढके  हिमालय का सुंदर दृश्य दिखाई देता हैं। यहाँ से चैखम्बा, नीलकंठ, नंदा घुंटी, त्रिशूल पर्वत, नन्दा देवी और पंचचुली दिखाई देता हैं

अन्य महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल-
अग्निकुंड मंदिर, कुकुडामाई मंदिर, शीतला देवी मंदिर, त्रिजुगी नारायण मंदिर, हनुमान मंदिर, नीलेश्वर धाम, स्वर्ग आश्रम, रामजी मंदिर, लोकनाथ आश्रम, अमित जी का आश्रम, ज्वाला देवी मंदिर, वेणी महादेव मंदिर, राधा कृष्ण मंदिर, भीलेश्वर धाम, सूरज कुंड, सिद्धार्थ धाम, गोपेश्वर धाम, गोलू मंदिर और प्रकटेश्वर महादेव आदि कई महत्वपूर्ण स्थल प्राचीन काल से ही धार्मिक कार्य हेतु प्रयोग होती रही है।

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