फांसी से पहले भगत सिंह ने बुलंद आवाज में देश के नाम एक संदेश भी दिया था. उन्होंने इंकलाब जिंदाबाद का नारा लगाते हुए कहा, "मैं ये मानकर चल रहा हूं कि आप वास्तव में ऐसा ही चाहते हैं. अब आप सिर्फ अपने बारे में सोचना बंद करें, व्यक्तिगत आराम के सपने को छोड़ दें, हमें इंच-इंच आगे बढ़ना होगा. इसके लिए साहस, दृढ़ता और मजबूत संकल्प चाहिए. कोई भी मुश्किल आपको रास्ते से डिगाए नहीं. किसी विश्वासघात से दिल न टूटे. पीड़ा और बलिदान से गुजरकर आपको विजय प्राप्त होगी. ये व्यक्तिगत जीत क्रांति की बहुमूल्य संपदा बनेंगी.
फांसी के बाद जब जेल वॉर्डन भी फूट-फूट कर रोने लगा
भगत सिंह के साथ उनके साथियों राजगुरु और सुखदेव ने भी हंसते- हंसते फांसी के फंदे को आगे बढ़कर चूम लिया था. जिस दिन उन्हें फांसी दी गई थी उस दिन वो मुस्कुरा रहे थे. मौत से पहले तीनों देशभक्तों ने गले लगकर आजादी का सपना देखा था. ये वो दिन था जब लाहौर जेल में बंद सभी कैदियों की आंखें नम हो गईं थीं. यहां तक कि जेल के कर्मचारी और अधिकारियों के भी फांसी देने में हाथ कांप रहे थे. फांसी से पहले तीनों को नहलाया गया. फिर इन्हें नए कपड़े पहनाकर जल्लाद के सामने लाया गया. यहां उनका वजन लिया गया. मजे की बात ये कि फांसी की सजा के ऐलान के बाद भगत सिंह का वजन बढ़ गया था. फांसी के मचान पर जाने से पहले एक बार फिर तीनों से उनकी आखिरी ख्वाहिश पूछी गई। तीनों ने एक साथ जवाब दिया हम एक दूसरे से गले मिलना चाहते हैं। फांसी के फंदे के सामने ही वो तीनों ऐसे गले मिले जैसे एक नए कल की शुरुआत होने वाली है। कांपकपाते हाथों से जल्लाद ने भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के चेहरे पर नकाब ढके और तीनों को फांसी दे दी गई। फांसी के बाद जेल वॉर्डन बैरक की तरफ भागा और फूट-फूटकर रोने लगा। वो कह रहा था कि 30 बरस के सफर में उसने कई फांसियां देखी हैं। लेकिन फांसी के फंदे को इतनी बहादुरी और ऐसी मुस्कराहट के साथ कबूल करते उसने पहली बार देखा था।
हवा में रहेगी मेरे ख्याल की खुशबू,
ये मुश्ते-खाक फानी है, रहे, रहे न रहे।
ये शेर उसी गजल का आखिरी शेर है भगत सिंह ने अपने छोटे भाई कुलतार सिंह को लिखे पत्र में लिखा था। पत्र फांसी से 20 दिन पूर्व तीन मार्च 1931 को लिखा गया था।
फांसी के बाद जब जेल वॉर्डन भी फूट-फूट कर रोने लगा
भगत सिंह के साथ उनके साथियों राजगुरु और सुखदेव ने भी हंसते- हंसते फांसी के फंदे को आगे बढ़कर चूम लिया था. जिस दिन उन्हें फांसी दी गई थी उस दिन वो मुस्कुरा रहे थे. मौत से पहले तीनों देशभक्तों ने गले लगकर आजादी का सपना देखा था. ये वो दिन था जब लाहौर जेल में बंद सभी कैदियों की आंखें नम हो गईं थीं. यहां तक कि जेल के कर्मचारी और अधिकारियों के भी फांसी देने में हाथ कांप रहे थे. फांसी से पहले तीनों को नहलाया गया. फिर इन्हें नए कपड़े पहनाकर जल्लाद के सामने लाया गया. यहां उनका वजन लिया गया. मजे की बात ये कि फांसी की सजा के ऐलान के बाद भगत सिंह का वजन बढ़ गया था. फांसी के मचान पर जाने से पहले एक बार फिर तीनों से उनकी आखिरी ख्वाहिश पूछी गई। तीनों ने एक साथ जवाब दिया हम एक दूसरे से गले मिलना चाहते हैं। फांसी के फंदे के सामने ही वो तीनों ऐसे गले मिले जैसे एक नए कल की शुरुआत होने वाली है। कांपकपाते हाथों से जल्लाद ने भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के चेहरे पर नकाब ढके और तीनों को फांसी दे दी गई। फांसी के बाद जेल वॉर्डन बैरक की तरफ भागा और फूट-फूटकर रोने लगा। वो कह रहा था कि 30 बरस के सफर में उसने कई फांसियां देखी हैं। लेकिन फांसी के फंदे को इतनी बहादुरी और ऐसी मुस्कराहट के साथ कबूल करते उसने पहली बार देखा था।
हवा में रहेगी मेरे ख्याल की खुशबू,
ये मुश्ते-खाक फानी है, रहे, रहे न रहे।
ये शेर उसी गजल का आखिरी शेर है भगत सिंह ने अपने छोटे भाई कुलतार सिंह को लिखे पत्र में लिखा था। पत्र फांसी से 20 दिन पूर्व तीन मार्च 1931 को लिखा गया था।
क्या भगत सिंह, सुखदेव, एवं राजगुरु की फांसी को रुकवाया जा सकता था?
ReplyDeleteइसमें महात्मा गांधी का कितना योगदान था?