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Tuesday, October 13, 2020

October 13, 2020

First Chess IM of Uttarakhand शतरंज आई0एम सक्षम रौतेला, उत्तराखंड के पहले व मौजूदा समय में देश के 125 आई0एम0 में शामिल

शतरंज आई0एम सक्षम रौतेला, उत्तराखंड के पहले व मौजूदा समय में देश के 125 आई0एम0 में शामिल

During Tournment














सफलता पाने के लिए मेहनत के सिवा कोई दूसरा शार्टकट नहीं है। यह कथन ही नहीं बल्कि सफलता का एक मंत्र है, जिसने इस मंत्र का महत्व समझा सफलता उसके आस पास ही घुमती है। इसका जीता जागता उदाहरण है उत्तराखण्ड के एक होनहार शतरंज खिलाडी सक्षम रौतेला। जिन्हे हाल ही में फीडे (शतरंज की विश्व संस्था) ने शतरंज इंटरनेशनल मास्टस के खिताब से नवाजा है।  

सक्षम मूलतः उत्तराखण्ड के बागेश्वर जिले के रहने वाले है, जो कि शतरंज के लिए उचित वातावरण वाले स्थानों में शायद नही गिना जा सकता है, क्योंकि शतरंज एक ऐसा खेल है जिसमें अभ्यास भी टुर्नामेंट खेलने से ही होता है जिसके लिए खिलाडी को हर हफ्ते, हर महीने एक जगह से दूसरी जगह सफर करना व टुर्नामेंट खेलना पड़ता है। ऐसी जगह से शतरंज की शुरूआत करना और मात्र 7 साल में आई0एम0 खिताब लेना वाकई उनके मेहनत, लगन, धैर्य व कभी न हार मानने वाली प्रवृति को दर्शाता है। 

Click शतरंज का इतिहास व शतरंज में भारत की मौजूदा स्थिति


Top 10 Junior Indian chess player 

सक्षम के लिए साल 2019 बहुत निर्णायक था क्योंकि जहां एक ओर हाईस्कूल के बोर्ड की परीक्षा थी तो वही दूसरी ओर वह शतरंज में काफी अच्छा प्रदर्शन कर रहे थे, और उन्हे पूरी उम्मीद थी कि वह इस साल अपना आई0एम0 टाइटल प्राप्त कर सकते है। मगर इसके बीच उन्होंने 10वीं की बोर्ड परीक्षा को तवज्जों देना मुनासिब समझा और अच्छे ग्रेड के साथ 10वीं बोर्ड परीक्षा उत्तीर्ण की। बोर्ड की परीक्षा में व्यवस्था होने पर भी उन्होंने शतरंज का अभ्यास नहीं छोडा, जिसका फल उन्हे उसी वर्ष दिसम्बर में अपना पहला आई0एम0 नाॅर्म के रूप में मिला। अब उनको दो और नार्म की जरूरत थी जो उन्होंने जनवरी-फरवरी 2020 में यूरोप में हुए प्रतियोगिता में हासिल किया। अक्टूबर 2020 में फीडे की त्रिमासिक मीटिंग के बाद उनके आई0एम0 खिताब को मंजूरी मिल गयी है। वर्तमान समय मे भारत मंे 125 आई0एम0 और 66 जी0एम0 है, जिसमें सक्षम 125वें नम्बर के आई0एम0 है।

फीडे की वर्तमान रेटिंग के अनुसार वह उत्तराखंण्ड के ही नहीं बल्कि उत्तर भारत के राज्यों (अगर दिल्ली व चंडीगढ़ का शामिल न करें तो।) में सबसे ज्यादा ईएलओ रेटेड खिलाडी भी है।


वर्तमान समय में देश में प्रदेशवार Chess IM



Current Chess IM with Indian States

पिछले सात सालों में उन्होंने राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई आयु वर्ग व ओपन प्रतियोगिताए जीती है।

सक्षम शतरंज के साथ ही बैटमिंटन के भी अच्छे खिलाडी है जो वर्ष 2015 में जिला स्तरीय चैम्पियनशिप जीते थे।

सक्षम व उनके भाई सद्भव दोनों पिछले कई सालों से नेशनल टुर्नामेंटों में अपने राज्य का प्रतिनिधित्व करते हुए आ रहे है।


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माता पिता का दमदार किरदार

मात्र 7 साल में छोटे से जिले बागेश्वर, जहां शायद मूलभूत आवश्यकता की भी कमी हो, से आगे बढ़कर और इतने कम समय में हर वर्ष खेल के लिए 2 या 3 बार यूरोप व अमेरिका का दौरा करना, और वहां भी एक जगह मात्र 8-10 दिनो के लिए रूकना फिर दूसरी जगह जाकर गेम खेलना या  शायद सोचने में सामान्य लगे मगर असल में बहुत कष्टदायक है क्योंकि जहां एक ओर भारी व्यय है तो वही दूसरी ओर वातावरण की प्रतिकूलता व लंबे समय से लगातार सफर से मानसिक व शाररीक थकान। यह सब बिना मानसिक मजबूती त्याग, समर्पण व अपने बच्चों के भविष्य के लिए कुछ भी कर गुजर जाने की इच्छा के सम्भव नहीं है। सक्षम के लिए जहां एक ओर उनके पिता किसी भी आर्थिक स्थिति के लिए उनके साथ खड़े है, तो वही उनकी माता हर टुर्नामेंट में उनके साथ-साथ रहती है, जो हर अच्छे गेम के बाद उनको सामान्य बनाये रखने तथा बुरे गेम में उनका उत्साह बढ़ाती रहती है जिससे कि उनके बच्चे का हर कठित स्थिति हौसला आफजाई होता रहे। बच्चों के भविष्य के लिए अपने सपनों को ताक पर रखना व उनके सपनों के लिये जुट जाने का ही नतीजा है कि उत्तराखंड को अपना पहला शतरंज इंटरनेशनल मास्टर मिला है। 



क्या होता है शतरंज में आई0एम0 जी0एम0

खिलाड़ी को इंटरनेशनल मास्टर का खिताब शतरंज की सर्वोच्च संस्था “विश्व शतरंज महासंघ” द्वारा दिया जाता है. यह शतरंज की दुनिया में दिया जाने वाला ग्रांड मास्टर के बाद दूसरे नम्बर का सर्वोच्च खिताब है। वैसे ही, ग्रेंड मास्टर का खिताब भी शतरंज की सर्वोच्च संस्था “विश्व शतरंज महासंघ” द्वारा दिया जाता है. यह शतरंज की दुनिया में दिया जाने वाला यह सर्वोच्च खिताब है. जो खिलाडी इसे एक बार जीत लेता है वह इस खिताब को पूरी जिंदगी अपने पास रखता है अर्थात अपने नाम के आगे लगा  सकता है. हालाँकि “विश्व शतरंज महासंघ” ने इसके लिए कुछ नियम भी बनाये है यदि किसी खिलाड़ी पर “धोखा और भ्रष्टाचार” के आरोप सिद्ध हो जाते हैं तो उससे यह खिताब वापस भी ले लिए जाता है।

किसी भी खिलाडी को शतरंज शुरू करने से पहले एआईसीएफ, जो कि शतरंज की भारतीय संस्था है में रजिस्ट्रेशन करवाना होता है। जैसे ही खिलाडी रजिस्ट्रेशन करवाता है तो उसे एआईसीएफ द्वारा फीडे की ओर से एक आई0डी0 उपलब्ध करवायी जाती है। जैसे-जैसे खिलाडी जीतता जाता है उसे विरोधी खिलाडी की रेटिंग के अनुसार प्वाइंट मिलते जाते है यह उसी तरह के प्वाइंट होते है जैसे क्रिकेट में खिलाडियों को मिलते है, इन्ही प्वाइंटों के जुडने या घटने से फीडे रेटिंग बनती है जैसे-जैसे खिलाडी की रेटिंग बढ़ती जाती है विरोधी खिलाडियों से जीतने व हारने पर उसके प्वांइट उसकी रेटिंग के अनुसार ही बहुत कम बढ़ते व घटते है। इस प्रोसेस में आईएम0 व जी0एम0 की प्रक्रिया भी होती है।

जब कोई खिलाडी किसी टुर्नामेंट के औसतन 9 मैचों में दूसरे दो या उससे अधिक तीन आई0एम0 या जी0एम0 को 2450 की रेटिंग से खेलतें हुए हराता है तो उसे एक आई0एम0 नार्म से नवाजा जाता है। किसी भी खिलाडी को शतरंज आई0एम0 बनने के लिए इसी तरह के तीन नार्म पूरे करने होते है साथ ही उसकी कुल रेटिंग भी 2400 से उपर होनी चाहिए। 

इसी तरह से ग्रेंड मास्टर में खिलाडी को 2500 से ऊपर की रेटिंग और तीन नार्म लेने होते है।


Monday, May 11, 2020

May 11, 2020

Sugauli treaty भारत-नेपाल सीमा विवाद का ब्रिटिश कनेक्शन व सुगौली संधि

भारत-नेपाल सीमा विवाद का ब्रिटिश कनेक्शन व सुगौली संधि - Sugauli treaty


Sugauly Treaty established the boundary line between British India and Nepal, was signed on 2 December 1815 and ratified by 4 March 1816.
Sugauly Treaty established the boundary line between British India and Nepal, was signed on 2 December 1815 and ratified by 4 March 1816.

वैसे तो यह मुद्दा नेपाल द्वारा समय-समय पर उठाया गया। लेकिन जब से नेपाल में कम्यूनिस्ट पार्टी की सरकार बनी है तब से उसने इस मुद्दे को और जोर शोर से उठाया कि महाकाली के पूर्व की भूमि सुगौली संधि के तहत नेपाल का भाग है। नेपाल ने पुनः 9 मई 2020 जब हमारी बीआरओ द्वारा कैलाश मानसरोवर को जोड़ने वाली प्रमुख लिपुलेख क्षेत्र कालापानी-लिम्पियाधुरा व चीन की सीमा तक सडक बनाने का कार्य शुरू किया जा रहा है ऐसे में नेपाल ने इस विषय को लेकर फिर से भारत सरकार से पत्र लिखकर आग्रह किया, कि सुगौली की संधि के तहत यह भाग नेपाल सरकार के अंतर्गत आता है। क्योकि इस संधि द्वारा तत्कालीन ब्रिटिश कम्पनी और नेपाल के राजा के बीच जो समझोता हुआ था उसके तहत काली नदी को दोनो राज्यों की सीमा का निर्धारण किया गया था। इस पर भारत सरकार ने इसे पूरी तरह से भारत का भूभाग बताकर सडक निमार्ण कार्य को जारी रखा है।

इस विषय पर लिखने का तात्पर्य सिर्फ इतना है कि इसके माध्यम से संक्षिप्त में उत्तराखंड पर राज करने वाले प्रमुख राजवंशो व फिर नेपाल के गोरखों व अंत अंग्रेजो के साथ उनकी सुगौली संधि के बारे में जानना है। इस विषय को शुरू करे उससे पहले यह बताना चाहता हूँ कि सुगौली की संधि मात्र एक संधि नही थी। यह बटवारे की दास्ता भी बया करती है। जब विभाजन की बात की जाये तो सिर्फ भारत-पाकिस्तान की बात की जाती है। मगर इस विभाजन से कई वर्ष पूर्व ही एक और विभाजन हुआ था। जिसका जिक्र उतना होता है नही जितना कि शायद यहां के लोगो ने महसूश किया होगा। माता सीता की जन्म स्थली मिथिला आज नेपाल का भाग है जो कभी भारत का हिस्सा था, इसके साथ ही नेपाल का मध्यदेश भी अधिकांशतः भारत से ही संबंधित था।

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कालापानी का महत्व  Kalapani-Lipulekh


कालापानी का क्षे़त्र भारत के लिए व्यापारिक व सामरिक दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण भाग है। इस क्षेत्र के लिपुलेख दर्रा से चीनी व्यापार व उनकी गतिविधियों पर नजर रखने के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। कालापानी चीन, नेपाल और भारत की सीमा के मिलनबिंदु पर 372 वर्ग कि.मी का क्षेत्र है। भारत इसे उत्तराखंड का हिस्सा मानता है जबकि नेपाल इसे अपने नक्शे में दर्शाता है। 1962 से ही कालापानी पर भारत की आईटीबीपी की पहरेदारी है।



विवाद का कारण 


नेपाल और तब के ब्रिटिश इंडिया के बीच मार्च 1816 में सुगौली की संधि हुई थी, जिसमे कि दिसम्बर 1816 में कुछ परिवर्तन किया गया। इसमें समझौता के तहत कालापानी इलाके से होकर बहने वाली काली नदी भारत-नेपाल की सीमा मानी गई है। सीमा को लेकर सर्वे करने वाले ब्रिटिश ऑफिसर दिसम्बर 1816 में काली नदी के उद्गम स्थल भी चिह्नित कर दिया था जिसमें आगे चलकर कई सहायक नदियां भी मिलती हैं। मगर इस पर नेपाल का दावा है कि विवादित क्षेत्र के पश्चिमी भाग से निकलने वाली धारा या नदी ही वास्तविक नदी है, इसलिए कालापानी नेपाल के इलाके में आता है। वहीं, भारत नदी का अलग उद्गम स्थल बताते हुए इस पर अपना दावा करता है।

उत्तराखंड में प्रारम्भिक राजवंश 


कोल, किरात आदि कई जातियो को उत्तराखंड की मूल या प्रारम्भिक जातियों में गिना जाता है मगर ऐतिहासिक श्रोतों के आधार पर कुणिन्द शासन उत्तराखंड में प्रथम राजनीतिक शक्ति के रूप में वर्णित है जिसका वर्णन मौर्य काल के साहित्य में भी मिलता है। कुणिन्द के बाद क्रमशः यौधेय, शक, व नाग जातियों ने इसके कुछ या अधिकांश भाग पर राज किया। 6ठीं व 7वीं शताब्दी में कन्नौज में मौखरि राजवंश ने इस क्षेत्र पर अपना अधिकार कर लिया। उसके बाद भारत के महान शासन थानेश्वर के हर्षवर्धन ने मौखरियों को पराजित कर इस क्षेत्र को वर्धन वश्ंा के अधीन कर दिया।
हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद लगभग 700 ई0 के आसपास कार्तिकेयपुर राजवंश के 3 परिवारों के लगभग 14 राजाओं ने 1030 ई0 तक उत्तराखंड पर सुशासन किया। कार्तिकेयपुर राजवंश का बाहरी राज्यों के साथ भी घनिष्ठ मित्रता थी, इस काल की कलाकृतियों में बाहरी प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखता भी है, जैसे मंदिरों का द्रविड शैली, नागर शैली आदि में निर्माण। कार्तिकेयपुर के साथ ही कत्यूरी वंश ने भी शासन किया, जिसे कुछ विद्वान कार्तिकेयपुर राजवंश भी मानते है। जब कत्यूरी साम्राज्य अपने पराकाष्ठा पर था तो सम्पूर्ण उत्तराखंड के साथ-साथ आधुनिक हिमाचल व उप्र के कुछ भाग भी उनके अधीन थे। धीरे-धीरे कत्यूरियों का राज्य ढीला पडता गया, जिस कारण से कुमाऊ मे चन्द शासक व गढवाल मे परमार शासको का राज स्थापित होता गया। और कुछ छोटे-छोटे राज्य गढ के रूप में भी सीमान्त कुमाऊ क्षेत्र में स्थापित थे, जैसे सीरा डोटी, असकोट आदि। मुख्यतः चन्द व परमार वंश का ही सम्पूर्ण उत्तराखंड में राज था। ये दोनो वंश क्रमशः 1790 ई0 व 1804 ई0 तक कुमाऊ व गढवाल मे शासन करते रहे।

नेपाल के गोरखाओं का उत्तराखंड पर राज


गोरखाओ ने कुमाऊ और गढवाल पर क्रमशः 25 व 10.5 साल इन्यायपूर्ण शासन किया, जिसे आज भी आम जनता में गोरख्याली कहा जाता है।  इसकी शुरूआत वर्ष 1790 ई0 से हुआ। 1789-90 के आसपास कुमाऊ मे चन्द राजा महेन्द्र चन्द था, और राज्य का प्रशासन काफी उथल-पुथल चल रहा था। इसी का फायदा उठाते हुए महेन्द्र चन्द का राजनीतिक सलाहाकार या दीवान हर्षदेव जोशी ने, लालच में आकर नेपाल के राजा को कुमाऊ की राजनीतिक अस्थिरता के बारे में व यहा के प्रशासन व सैन्य खामिया बता कर कुमाऊ पर आक्रमण करने की सलाह दी। उस समय नेपाल का राजा रण बहादुर था। उसने मौका का फायदा उठाते हुए जनवरी 1790 में सेनापति अमर सिंह की अगुवायी में हस्तिदल चैतरिया, जगजीत पांडे, शूर थापा की टुकडियों का कुमाऊ विजय के लिए भेजा। गोरखाओं को रोकने के लिए चन्द्र सेनापति लाल सिंह भी काली कुमाऊ आज का चम्पावत की और चल पड़ा। इस युद्ध में उसका और उसके सैनिकों में कमाल का पराक्रम दिखाते हुए गोरखा सेनापति अमर सिंह की सेना को पराजित करते हुए काली नदी के उस पार तक भगाने मे कामयाब रहा, मगर गोरखा इतनी जल्दी हार मानने वालों मे नही थे। अमर सिंह ने अपनी सेना में जोश भरा और वह दोगुनी उत्साह के साथ फिर से कुमाऊ की ओर चल पडे। इस बार युद्ध कटोल गढ में लडा गया जहा गोरखाओं से लाल सिंह में सैकडों सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया। इस युद्ध से जान बचातें हुए लाल सिंह तराई की ओर भागा। इधर राजा महेन्द्र चन्द जो लाल सिंह की मदद के लिए जा रहा था उसे जैसे ही इस घटन को समाचार मिला, वह भी अपने को सुरक्षित बचाने के लिए तराई की ओर भागा। यहा गोरखा सैनिक अब बिना किसी प्रतिरोध के अल्मोंडा की ओर चले पडे थे। गोरखाओ ने चैत्र कृष्ण प्रतिपक्ष अर्थात मार्च 1790 ई0 को अल्मोडा, जो चन्दो की राजधानी थी को अपने कब्जे में कर लिया था। कुमाऊ के चन्द शासन बडी आसानी से गोरखाओ के हाथ लग चुका था। अब वे और भी ज्यादा महत्वाकांक्षी हो चुके थे। अतः पुनः हर्ष देव जोशी की सहायता पाकर गढवाल पर आक्रमण कर दिया और 1791 ई0 में परमार शासन का एक महत्वपूर्ण किला लंगूरगढ को अपने कब्जे मे कर लिया। इसी बीच चीनी सेना द्वारा नेपाल पर हमले की खबर पाते ही गोरखाओं ने 1792 ई0 में राजा प्रधुम्न शाह के साथ संधि कर लंगूरगढ पर कब्जा छोड दिया। संधि के बावजूद भी गोरखा गढवाल पर हमले का बहाना ढूंढ रहे थे। एक ओर 1803 में गढवाल क्षेत्र को भयंकर भूकम्प ने तबाह कर दिया था, यह भूकम्प शायद इतिहास का सबसे बडा भूकम्प था। तो वही दूसरी ओर कुंवर पराक्रम शाह ने परमार सत्ता हथियाने के लिए गृहयुद्ध जैसी स्थिति बना दी थी। ये दोनो स्थितियों गोरखाओं के लिए एक निमन्त्रण के समान थी। अतः गोरखा सेनापति अमरसिंह, हस्तिदल चैतरिया, बमशाह व रणजोर थापा ने गढवाल पर अचानक हमला कर दिया। राजा प्रघुम्न शाह को कही भी इसका अंदेशा नही था कि गोरखा उन पर हमला करने वाले है वह तो संधि के मुताबिक अपने को गोरखाओं से सुरक्षित मान बैठा था। बाडाहाट (उत्तरकाशी) और चमुवा (चम्बा) मे युद्ध मे राजा की बूरी तरह हार हुई। राजा प्रघुम्न शाह राजपरिवार के साथ सहारनपूर मे शरण लेने चला गया। और वहा उसने अपने अनमोल आभूषण बेचकर तथा लण्ढौर राजा रामदयाल सिंह की सहायता पाकर, 12000 सैनिको के साथ पुनः गोरखाओ पर हमला कर दिया। देहरादून के खुडबुडा स्थान पर दोनो सेनाओं द्वारा विशाल युद्ध लडा गया। मगर राजा प्रघुम्न शाह वीरता से लडते हुए 14 मई 1804 को वीरगति को प्राप्त हो गया। साथ ही कुंवर पराक्रमशाह भागकर कांगडा में शरण लेने पहुच गया, प्रीतमशाह को गोरखाओं ने बदी बना लिया, तथा दो अन्य युवराज सुर्दशनशाह व देवीशाह या देवीसिंह गोरखाओं से भागकर हरिद्वार में शरण लेने पहुचे।

गोरखाओं व ईस्ट इंडिया कम्पनी के बीच युद्ध

इन दिनों गोरखाओं ने न सिर्फ उत्तराखंड के भूभाग को ही बल्कि तब के लगभग अधिकांश ब्रिटिश भारत के उत्तरी भाग में आतंक मचाया हुआ था। ब्रिटिश इनके द्वारा अधिकृत भाग को नजरअंदाज करते जा रहे है। मगर वर्ष 1814 में लार्ड हेस्टिंगस भारत का गर्वनर जनरल बना। वह बडा महत्वाकांशी शासक था। उसने धीरे-धीरे गोरखाओं पर लगाम लगाना शुरू किया। इस बात की सूचना युवराज सुदर्शन शाह व देवीशाह को मिली तो उन्होनें अंगेजो से अपने राज्य को गोरखाओं से स्वतंत्र करवाने का अनुरोध किया इसी कडी में अंग्रेजो ने गोरखाओ के विरूद्व उत्तराखंड के भूभाग व अन्य क्षेत्रो को स्वतंत्र कराने हेतु अपनी 4 डिवीजन भेजी। दो नेपाल और दो आधुनिक उत्तराखंड क्षेत्र के लिए भेजी। मेजर मार्ले के नेतृत्व में 1000 सैनिको को काठमांडु, मेजर जे. एस. वुड के अधीन 4000 सैनिक गोरखपुर व अन्य दो, मेरठ डिवीजन के मेजर जनरल गेलेस्पी के नेतृत्व में 3500 सैनिको ने देहरादून क्षेत्र में व लुधियाना डिवीजन के मेजर जनरल आॅक्टालोनी के नेतृत्व में 6000 सैनिको ने यमुना-सतलज दोआब क्षेत्र में गोरखाओं से युद्ध के लिए भेजा था। इससे पहले युद्ध की औपचारिक घोषणा होती उससे पहले ही गेलेस्पी को देहरादून का नालापानी किला घेरने का आदेश दिया था, नालापानी या नालागढ को खलंगा व कलंगा किला भी कहा जाता है यह रिस्पना नदी के किनारे बायी ओर गोरखाओं का एक अहम किला था, जिस पर सेनापति अमर सिंह का भतीजा बलभद्र सिंह 500 सैनिक लेकर कमान संभाले था। ब्रिटिशों ने 1 नवम्बर 1814 को औपचारिक युद्ध की घोषणा की गयी। मगर योजना के अनुरूप गेलेस्पी ने खलंगा किले पर 31 अक्टूबर को हमला कर दिया, और एक भीषण युद्ध में वह मारा गया। अंग्रेजो ने 30 नवम्बर को इस किले को तहस नहस कर इस पर कब्जा कर लिया। बलभद्र सिंह देहरादून से तो भागने में कामयाब रहा मगर पश्चिम के पंजाब के राजा रणजीत सिंह की सेना द्वारा मारा गया। क्योंकि गोरखाओं से रणजीत सिंह भी बदला लेना चाहते है। इस युद्ध में बलभद्र सिंह की वीरता देखते हुए अंग्रेजो ने रिस्पना के किनारे गेलेस्पी के साथ उसका भी एक छोटा सा स्मारक बनाया था। इस प्रकार 4 दिसम्बर तक बैराटगढ, कालसी, जौंटगढ के साथ ही लगभग सम्पूर्ण देहरादून भाग पर अंग्रेजो ने कब्जा कर लिया, मई 1815 तक सम्पूर्ण गढवाल पर अधिकार कर लिया था तथा 22 अप्रैल 1815 को गढवाली गोरखा चैकी लोहबागढ को भी खाली करवा चुके थे। दूसरी ओर अंग्रेजो की एक टुकडी जिसे कैप्टन हियरसी लीड कर रहा था, ने पुनः एक बार हर्षदेव जोशी से मदद लेकर जिसमे उसका साथ उस समय के प्रमुख पदाधिकारी महरा, फडतियाल, तड़ागी आदि ने भी दिया। 23 अप्रैल के गणनाथ-डाँडा के युद्ध में गोरखा सेनापित हस्तिदल चैतरिया मारा गया, इसकी खबर पाते ही बमशाह ने भी 23 अप्रैल 1815 को आत्मसमर्पण कर दिया।

गोरखाओ की ईस्ट इंडिया कम्पनी से संधियां


इस प्रकार गढवाल व कुमाऊँ में गोरखाओं की अंग्रेज सेना के हाथो पराजय होने के बाद 27 अप्रैल 1815 को कुमाऊँ में अंग्रेज कमांडर गार्डनर व गोरखा बमशाह व चामु भण्डारी के बीच व 15 मई 1815 को अंग्रेज जनरल आॅक्टरलोनी व गोरखा सेनापति अमर सिंह के बीच (मलाॅवगढ संधि) कुमाऊँ व गढवाल का सभी भूभाग अंग्रेजो को सौपने हेतु संधि हुई और गोरखा काली पार नेपाल चले गये। कुमाऊँ व गढवाल का भाग शांतिपूर्वक अंग्रेजो के पास आ गये मगर देश के दूसरे भाग में गोरखाओ द्वारा पुनः हस्तक्षेप किया जा रहा था। इसी सिलसिले में 2 दिसम्बर 1815 को नेपाल के राजा व अंग्रेजो के बीच ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के अधीन सम्पूर्ण भाग को लेकर एक संधि हुई। संधि के बावजूद गोरखाओं ने अंग्रेजो पर फरवरी 1816 मे संधि का उल्लघंन करते हुए आक्रमण करने की योजना बनायी। ई0 ई कम्पनी को इसका अंदाजा होते ही उन्होने आॅक्टरलोनी व कर्नल निकोल्स ने दोनो तरफो से नेपाल पर हमला कर दिया। जिसमें गोरखाओं ने आॅक्टरलोनी के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया। इस प्रकार 2 दिसम्बर 1815 की संधि का अंतिम रूप से अनुमोदन 4 मार्च 1816 किया गया। इस संधि पर नेपाल की ओर से राज गुरु गजराज मिश्र और अंग्रेजो की ओर से लेफ्टिनेंट कर्नल पेरिस ब्रेडशॉ ने हस्ताक्षर किये।

Map After Sugauly treaty
Map After Sugauly treaty

सुगौली संधि की शर्तें


ब्रिटिश-नेपाल के बीच चले दो वर्षों तक युद्ध के बाद, शांति और मैत्री की एक संधि पर हस्ताक्षर वैसे तो 2 दिसम्बर 1815 को किया गया था किंतु नेपाल द्वारा संधि उल्लघंन के बाद इसे आधिकारिक रूप व अंतिम रूप से 4 मार्च 1816 को मान्यता मिली जो कि सुगौली मकवानपुर में नेपाल की ओर से चंद्रशेखर उपाध्याय और ब्रिटिश जनरल डेविड ऑक्टरलोनी के बीच हस्ताक्ष्किया गया। संधि मे कुछ प्रमुख शर्तें इस प्रकार थी-


  1. नेपाल के राजा ने कुछ तराई भाग जैसे काली और राप्ती नदियों के बीच, गंडकी और कोशी नदियों के बीच, मेची और तीस्ता नदियों के बीच, व राप्ती और गंडकी के बीच का अधिकांश तराई भाग ईस्ट इंडिया कंपनी को सौप दिया। 
  2. भूमिहीनों की क्षतिपूर्ति के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी, 2 लाख रुपये राशि प्रतिवर्ष के रूप में देगी। भूमिहीनों की सूची राजा द्वारा तक की जायेगी। 
  3. परन्तु दिसम्बर 1816 में एक अन्य समझौते हुआ जिसके अनुसार मेची नदी के पूर्व और महाकाली नदी के पश्चिम के बीच का तराई भाग नेपाल को वापस लौटा दिया। बदले में अंग्रेजो को दो लाख रुपए प्रतिवर्ष की क्षतिपूर्ति राशि देने की बाध्यता समाप्त कर दिया गया।
  4. इस संधि द्वारा नेपाल ने सिक्किम का सम्पूर्ण भाग भी उसे लौटा दिया तथा भविष्य में किसी प्रकार का गतिरोध होने पर ब्रिटिश कम्पनी को मध्यस्थ करने का अधिकार दिया। 
  5. इस संधि के तहत काठमांडू में एक ब्रिटिश सेना की कमान रखने व कम्पनी की सेना में गोरखाओं की भर्ती की जाने पर भी सहमति बनी। साथ ही नेपाल के राजा, कम्पनी की अनुमति के बिना किसी भी ब्रिटिश, अमेरिकी या यूरोपीय नागरिक को अपनी किसी भी सेवा में ना तो नियुक्त नही कर सकता था।
  6. इस संधि के तहत अंग्रेजों ने मिथिला (तराई) का एक बड़ा भू-भाग नेपाल के अधीन कर दिया था. लिहाजा मिथिला की राजधानी जनकपुर अब नेपाल में अवस्थित है।


Saturday, May 9, 2020

May 09, 2020

Maharana Pratap and war Of Haldighat महाराणा प्रताप व उनसे जुडा हल्दीघाटी व खमनौर का मैदान

महाराणा प्रताप व उनसे जुडा हल्दीघाटी व खमनौर का मैदान (Maharana Pratap and war Of Haldighati)

Maharana Pratap 13th Rana Of sisodiya dynastry
Maharana Pratap 13th Rana Of sisodiya dynastry

इतिहास लेखन अपने आप मे एक जटिल काम है, क्योंकि इसमे प्राचीन काल के मिले मामूली से संकेत को विस्तार से लिखना, समझना और समझाना होता है। मगर इतिहास में भी कई ऐसी घटनाएं है जिन पर सवालिया निशान लगे हंै स्थानीय जनता के साथ ही इतिहासकार भी इन घटनाओं की प्रमाणिकता पर सवाल उठा चुके है। ऐसी घटनाओं में एक घटना थी बख्शी जगबन्धु द्वारा शुरू हुई पाइका विद्रोह की जिसे उडीशा सरकार द्वारा केंद्र सरकार को अनुरोध किया गया है कि 1857 की क्रांति स्वतंत्रता के लिए लडी गयी पहली घटना न होकर उससे भी कई वर्ष पहले 1817-21 में उडीशा के पाइका में हुआ विद्रोह को स्वतंत्रता संग्राम के लिए पहली लडाई की मान्यता दी जाये। ऐसी ही एक अन्य कहानी है, मेवाड के सूर्यवंशी राजपूत शासक महाराणा प्रताप और उनसे जुडे हल्दीघाटी की। हल्दीघाटी के युद्व की कहानी जैक श्नाइडर के डायरेकशन में 2006 में बनी हालीवुड फिल्म 300-स्पार्टन से कुछ हद तक समानता रखती है। इस फिल्म में राजा लियोनाइडस अपने 300 सैनिकों के साथ 1 लाख परशियन सैनिकों से लडता है। और कैसे एक संकरी सी घाटी मे उन लाखों सैनिकों में से अधिकांश को मौत के घाट उतार देता है? हल्दीघाटी का युद्ध भी एक ऐसी ही स्थिति के बारे मे है जहां महाराणा प्रताप हल्दीघाटी के एक संकरी घाटी में मुगल सैनिको को कुछ समय तक रोककर तहस नहस करते है। मगर युद्ध के परिणाम मे अभी तक संशय है कि कौन इस युद्ध में विजयी हुआ। मुगल इतिहासकार इस युद्ध में अकबर की विजय मानते हैं मगर इसके विपक्ष में कई इतिहासकार कुछ अलग ही प्रमाण प्रस्तुत कर हल्दीघाटी के युद्ध के परिणाम पर प्रश्न चिन्ह लगा देते है। उनके तर्को में है कि क्यों इस युद्ध के बाद आँसफ खाँ व राजपूत राजा मान सिंह जो मुगलो की ओर से हल्दीघाटी के युद्ध लडे था, से युद्ध के बाद अकबर खासा नाराज था, तथा उनके जागीर भी कम कर दिये थे? इसके साथ ही हल्दीघाटी के युद्ध के समय मुगल सेना का राजपूत सेना का पीछा न करना व मेवाड पर प्रत्यक्ष अधिकार न होना तथा 1576 के बाद भी महाराणा प्रताप ने जमीदारों को भूमि के पट्टे आबंटित किये जाना। ऐसे कई तथ्यो को ध्यान मे रखकर राजस्थान के इतिहासकार चंद्रशेखर शर्मा ने इस पर शोध करना शुरू किया और इस नतीजे पर पहुचे कि हल्दीघाटी के युद्ध मे कही न कही महाराणा प्रताप की ही जीत हुई थी।

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महाराणा प्रताप के बारे में प्राप्त जानकारियों को क्रमवद्ध करने से पहले जानिये महाराणा प्रताप व हल्दीघाटी के युद्ध के बारे कुछ रोचक तथ्य Some amazing facts about Maharana Pratap and Haldghati



  1. महाराणा प्रताप एकमात्र राजपूत राजा थे जिन्होंने मुगल सम्राट अकबर के सामने आत्मसमर्पण करने से इनकार कर दिया था।
  2. महाराणा प्रताप के बारे मे कहा जाता है कि उनका कद लगभग 7.5 फीट और वजन करीब 115-120 किलो के आसपास था। सिटी रॉयल गैलरी संग्रहालय, उदयपुर में संरक्षित 1 भाला व 2 भारी है जिसे कभी महाराणा प्रताप इस्तेमाल किया करते थे। 
  3. महाराणा प्रताप के युद्ध कौशल को ंइसी बाता से पहचाना जा सकता है कि वे जो कवच पहनते थे उसका वजन 72 किलो का था, 25 किलो की तलवार लेकर वह जब दुश्मन पर वार करते तो सैनिक का शरीर सहित घोडे के भी दो टुकडे कर देते थे। उनका भाला भी लगभग 80 किलो के आसपास के वजन का बताया जाता है।
  4. महाराणा प्रताप के जीवन में भामाशाह, जो रणथंभौर के किलेदार के पुत्र और महाराणा के बचपन के मित्र व सलाकार थे, की महत्वपूर्ण भूमिका है। भामाशाह, जो इतिहास में अपनी दानवीरता के लिये जाने जाते है। जब महाराणा प्रताप अपने परिवार के साथ जंगलों में भटक रहे थे, तब भामाशाह ने अपनी सारी जमा पूंजी महाराणा को समर्पित कर दी। 
  5. महाराणा प्रताप की 11 पत्नियां, 22 बेटे और 5 बेटियां थीं।
  6. इतिहासकार मानते हैं कि अकबर ने अपनी अधीनता स्वीकारने के लिए ने महाराणा को मुगल साम्राज्य का आधे भाग की जागीद देने की पेशकश की थी। जिसे महाराणा प्रताप ने अपने स्वाभिमान के खिलाफ मानते हुए ठुकरा दिया।
  7. हल्दीघाटी का नाम हल्दीघाटी इसकी मिट्टी मे हल्दी जैसा रंग व गुण होने के कारण पडा। हल्दीघाटी का युद्ध सिर्फ हल्दीघाटी मे ही नही बल्कि खमनौर के मैदान मे भी लडा गया था। मुगल इतिहासकार अबुल फजल ने भी इसे “खमनौर का युद्ध” कहा है। यह युद्ध मात्र 4 घंटे तक चला जिसमे लगभग 17000 सैनिक मारे गये। 
  8. इस युद्ध में महाराणा की सेना, मुगल सेना की एक चैथाई थी, ब्रिटिश इतिहासकार कर्नल जेम्स टॉड के अनुसार महाराणा की सेना में 22000 सैनिक व महाराणा कि सेना मे 80000 सैनिको के होने का अंदेशा है। टाॅड के इस मत को लेकर अधिकांश इतिहासकारों नही है उनका तर्क है कि जिस समय हल्दीघाटी का युद्ध हुआ था। उस समय मुगल सैनिको की ही कुल संख्या 60000 थी। इस पर इतिहासकार मुहणौत नैझसी कई मुगल इतिहासकारों व यदुनाथ सरकार का संदर्भ लेकर यह संख्या 5000 व 20000 मानते है।
  9. महाराणा प्रताप ने हल्दीघाटी के युद्ध के बाद अपना अधिकांश जीवन चावंड शहर में बिताया और वहां अपनी राजधानी का पुनर्निर्माण किया। राजस्थान के चावंड गांव में उनके नाम पर एक स्मारक बनाया गया है।
  10. हल्दीघाटी का युद्ध सैनिको के अलावा जानवरों के बीच भी लडा जा रहा था। जहां एक और महाराणा की सेना में पूणा और रामप्रसाद नाक के हाथी थे व चेतक नाम का घोडा था वही मुगल सेना में गजमूक्ता व गजराज नाम के हाथियों की सेवा थी। कहा जाता है कि रामप्रसाद ने अकेले ही 17 मुगल हाथियों को मार डाला था। इसके महावत की मौत के बाद यह मुगलो के हाथ लग गया था। इसके लिए अकबर ने खास इंतेजाम किया था, और उसने इसका नाम पीर प्रसाद रखा था। ये भी कहा जाता है कि रामप्रसाद ने अपने महावत की याद में खाना खाना छोड दिया था, और बाद में मर गया। 
  11. हल्दीघाटी के युद्ध की एक दिलचस्प बात यह थी कि प्रताप की सेना का नेतृत्व एक अफगान हाकिम खान सूर और मुगल सेना द्वारा हिंदू राजा मान सिंह द्वारा किया गया था। 
  12. महाराणा प्रताप को अक्सर ब्लू हॉर्स के राइडर के रूप में जाना जाता है। चूंकि उनके घोडे चेतक की आंखें नीली थीं।
  13. हल्दीघाटी के युद्ध में झाला सरदार मन्ना अपनी बहादुरी व सुझबुझ के लिए इतिहास मे हमेशा के लिए अमर हो गये। जिन्होने विपत्ती के समय महाराणा के राजमुकुट पहन कर मुगल सेना को भ्रमित किया कि वह ही महाराणा है जिससे चेतक महाराणा को लेकर आसानी से दूर सुरक्षित ले गया। महाराणा को बचाने के लिए चेतक घायल होते हुए भी 21 फिट चैडी नदी को अपनी जांन देकर भी पार किया तथा महाराणा को सुरक्षित बचाया।




महाराणा प्रताप का संक्षिप्त मगर गहन अध्ययन Birth Of Mahanara Pratap


महाराणा प्रताप, जो कि सिसोदिया वंश के 13वें राणा थे, का जन्म् 9 मई, 1540 को कुंभलगढ़ मे, सिसोदिया वंश के 12वे राणा उदय सिंह और रानी जयवंता के बडे बेटे के रूप मे हुआ था। सिसोदिया वंश 556 ई. में स्थापित हुए गुहिल वंश ही है, जो बाद मे गहलौत वंश बना और 13वी सदी मे ंइसके विभाजन के बाद एक शाखा को सिसोदिया राजवंश के नाम से जाना गया। महाराणा प्रताप के जन्म के समय पंडितों ने भविष्यवाणी की कि राजकुमार राज्य के लिए गौरव लेकर पैदा हुए है, और युगों तक इतिहास मे अमर हो जायेगे। इसका असर भी कुछ ही समय में दिखने लगा, क्योंकि राणा उदय सिंह ने प्रताप के जन्म के बाद अफगानों से चित्तौड़गढ़ के खोए हुए किले को जीतने में कामयाब रहे। राजकुमार प्रताप ने बचपन के दिनो से ही अपना एक अलग मुकाम बनाना शुरू कर दिया था। उनकी शौतेली मा धीर बाई चाहती थी कि भावी राजा उसका बेटा व प्रताप का सौतेला भाई जगमाल राजा बने। अतः भाई के प्यार के कारण प्रताप ने बचपन से ही राजमहल छोड अरावली के घने जंगलो को अपना बसेरा बना लिया। जैसा कि इन जंगलो में भील नाम के आदिवासी भारी संख्या मे आज भी निवास करते है, उस समय भी यह जंगल भीलों का बसेरा था, और भीलो तथा मेवाड राजपरिवार के संबंध अच्छे नही थे। ऐसे में राजकुमार प्रताप ने न केवल भीलो से संबध अच्छे किये बल्कि हल्दीघाटी के युद्ध मे इनकी सेवा भी ली। अतः बचपन से ही कई घटनाओं ने प्रताप के जीवन पर गहरा प्रभाव डाला, और भीलो के बीच प्रसिद्ध हो गये। कुछ जगह तो ऐसा भी विवरण मिलता है कि राणा उदय सिंह ने प्रताप को महान योद्धा बनाने हेतु योजनाबद्ध तरीके से ही जंगल निवास हेतु भेजा था।
शादी व बाद का जीवन
महाराणा प्रताप का विवाह 17 साल की उम्र मे अजबदे पंवार के साथ वर्ष 1557 को हुआ, जिनसे 16 मार्च 1559 में महाराणा प्रताप का उत्तराधिकारी राजा अमर सिंह का जन्म हुआ। 28 फरवरी 1572 को होली के दिन गोगुंदा मे राणा उदय सिंह की मृत्यु होने पर उसी दिन महादेव बावडी में मेवाड के सामन्तों ने महाराणा प्रताप का प्रथम राजतिलक करवाया, जबकि विधिवत दूसरा राज्याविषेक उसी वर्ष कुम्भलगढ़ के किले मे किया गया। जब महाराणा प्रताप ने मेवाड की बागडोर संभाली राजपूत स्वतंत्रता की स्थिति बेहद खराब हो चुकी थी। इस समय तक लगभग अधिकांश राजपूत राजा अकबर की अधीनता स्वीकार कर चुके थे। यहां तक ​​कि उनके भाइयों, मीर शक्ति सिंह और जगमाल ने मुगल सम्राट से हाथ मिला चुके थे। 

हल्दीघाटी के युद्ध की पृष्ठभूमि व हल्दीघाटी का युद्ध Who Won the war of Haldighati

हल्दीघाटी का युद्ध सिर्फ हल्दीघाटी मे ही नही बल्कि खमनौर के मैदान मे भी लडा गया था।
हल्दीघाटी का युद्ध सिर्फ हल्दीघाटी मे ही नही बल्कि खमनौर के मैदान मे भी लडा गया था।

अकबर महाराणा प्रताप की बहादुरी के किस्से सुन चुका था। अतः उसने 1572-73 मे अपने चार दल महाराणा के पास अधीनता स्वीकारने के लिए भेजा। जिसमें जलाल खाँ नवंबर 1572, जून 1573 आमेर का राजपूत राजा मानसिंह, अक्टूबर 1573 में आमेर का भगवानदास व अंत में दिसबंर 1573 को राजा टोडरमल को भेजा। मगर हर बार महाराणा द्वारा स्वाभिमानी जवाब से अकबर ने उनको युद्ध में बंदी बनाने की योजना अजमेर के किले (आज का संग्रहालय या मैगजीन) मे बनायी। अकबर ने 3 अप्रैल 1576 को इतिहास की सबसे बडी लडायी मे से एक, हल्दीघाटी का युद्ध, के लिए अपने सेनापति के रूप में मान सिंह व आँसफ खाँ को भेजा। इस बात की सूचना जैसे ही महाराणा प्रताप को लगी तो उन्होने योजनाबद्ध तरीके से मुगल सेना को गोगुंदा व खमनौर की पहाडियों के बीच के तंग घाटी मे ही मुगल सेना को सबस सिखाने के लिए अपनी सेना वह तैनात कर दी। लगभग 10 दिन इंतजार करने के बाद 18 जून को हल्दीघाटी में दोनो सेनाओं के बीच भयंकर युद्ध लडा गया। इस युद्ध में अफगान सेनानायक हकीम खाँ महाराणा की ओर से लड रहा था। और राजपूत राजा मान सिंह अकबर की ओर से। कहा जाता है कि महाराणा के सैनिको ने मुगल सेना को शुरू में बुरी तरह तहस-नहस कर दिया था। किंतु एक अफवाह, कि अकबर स्वंय सेना से साथ सहायता लेकर आ रहा है, से मुगल सेना में फिर से जान डाल दी। मगर अब भी उनकी स्थिति खराब ही थी क्योकि इस संकरी घाटी से उनके सैनिक महाराणा के सैनिको के सामने टिक नही पर रहे थे। कुछ समय सब्र किसी तरह मुगल सेना महाराणा की सेना को बनास नदी के किनारे खमनौर के पास वाले मैदान तक ले गयी, जहां जबरदस्त नरसंहार हुआ, जिस कारण इस मैदान को आज भी रक्तताल कहा जाता है। कहा जाता है कि यह युद्ध मात्र 4 घंटे तक चला, मगर आज 400 भी साल बाद जब इसके बारे में कहा या सुना जाता है महाराणा प्रताप की को किताबों मे दिखी हुई स्वाभिमानी छवि आखों के सामने वैसे ही प्रतीत होती है जैसे कि उस युद्ध के साक्षी हो। युद्ध की स्थिती मुगल की ओर झुक रही थी 
महाराणा प्रताप मुगल सेनापति मानसिंह पर प्रहार करते हुए
महाराणा प्रताप मुगल सेनापति मानसिंह पर प्रहार करते हुए

महाराणा प्रताप का इशारा पाकर उनका घोडा चेतक ने अपनी टांग से मानसिंह के हाथी मरदाना के सिर पर वार किया और महाराणा ने भाले से मान सिह पर जोरदार प्रहार किया। मगर यह भाला उसके अंगरक्षक को जा लगा। इस घटना में हाथी के सूँड में लगे जहरीले खंजर से चेतक की टाँग भी कट गयी व महाराणा प्रताप को मुगल सैनिकों ने चारो ओर से घेर लिया। इसी बीच वीर झाला सरदार मन्ना मुगलिया सेना को चीरता हुआ महाराणा के पास आया और महाराणा से निवेदन किया कि मेवाड के स्वतंत्रता के लिए आपका जिंदा रहना बहुत जरूरी है अतः आप अपना राजचिन्हन उतार कर मुझे दे दीजिए और आप युद्ध मैदान से चले जाये। अन्य सैनिको महाराणा को चेतक पर बैठने का आग्रह किया। चेतक एक मात्र घोडा ही नही बल्कि अपने आप मे एक सेनापति था। वह युद्ध स्थिति को भांप गया और महाराणा को दूर सुरक्षित स्थान पर पहुचाने के लिए बलीचा गांव के पास एक विशाल नाला पार करने हेतु अपनी जान दे दी। अपने प्रिय साथी चेतक के गुजर जाने पर महाराणा प्रताप फूट-फूटकर रोने लगे। तभी उनका भाई शक्तिसिंह, जो कि कुछ वर्षों तक अकबर से जा मिला था, और अब हल्दीघाटी के युद्ध मे पुनः अपने भाई महाराणा प्रताप की सहायता करने हेतु शामिल हुआ। महाराणा की वीरता और स्वाभिमानता को देखते हुए चेतक का पीछा करते हुए वहा पहुचा और अपनी कृत्यों के लिए क्षमा मांगने लगा। मगर दूसरी ओर मुगल सेना झाला सरदान को महाराणा समझ कर उन पर टूट पडी मन्ना बहुत बहादूरी से लडते हुए वीरगति को प्राप्त हो गये। मेवाड के सिसोदिया के तरह ही झाला सरदार भी अपनी वीरता और साहस के लिए इतिहास मे अमर है। झाला मन्ना के दादा झाला बीदा ने भी खानवा के युद्ध मे राणा साँगा की जान बचाने का प्रयास किया था मगर बाबर की सेना ने उन्हे पहचान लिया था। इस प्रकार यह युद्ध एक तरह से निर्णायक ही शाबित हुआ, क्योकि अकबर ने यह युद्ध महाराणा को मारने या फिर उनके राज्य को अपने साम्राज्य मे मिलाने हेतु शुरू करवाया था। अतः युद्ध खत्म होते के बाद न तो वह महाराणा को मार ही सका और न ही मेवाड को हडप सका।

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हल्दीघाटी युद्ध के बाद महाराणा प्रताप का जीवन

इसके बाद महाराणा प्रताप कमलनाथ पर्वत के पास आवरगढ़ को अपनी अस्थायी राजधानी बनायी। जिसकी सूचना पाकर अकबर ने अब्दुल रहीम खानखाना को 1580 मे उनके खिलाफ युद्ध के लिए भेजा था। इस अभियान के दौरान एक विशेष घटना होती है जिससे पता चलता है कि महाराणा प्रताप कितने दरियादिली व सच्चे उसूलो वाले राजा थे। जिन मुगलो को अपने राज्य से खदेडने के लिए उन्होने असाधारण प्रण लिया था। उसी मुगल साम्राज्य के सेनापति के परिवार को जब महाराणा के पुत्र अमरसिंह ने बंदी बनाया और महाराणा के पास लाया, तो महाराणा अपने पुत्र व राजकुमार अमरसिंह के इस कृत्य से बहुत नाराज हुए उन्होने अमर सिंह को अब्दुल रहीम के परिवार को सम्मानपूर्वक वापस छोडकर आने को कहा। महाराणा प्रताप धीरे-धीरे मुगल राज्य के छोटे-छोटे मगर महत्वपूर्ण किलो को जितने मे सफल रहे। इसी क्रम में महाराणा ने 5 दिसम्बर 1584 को आमेर के भारमल के पुत्र जगन्नाथ कछवाहा को व 1585 मे छप्पन के लूणा के चावण्डियो को पराजित करके चावंड को 1585 मे अपनी राजधानी बनायी, जो कि अगले 28 वर्षों तक मेवाड की राजधानी रही। वही 19 जनवरी 1597 को महाराणा प्रताप की मृत्यु हो गयी थी, जहां बान्डोली में आज भी उनकी समाधि है।

बाण्डोली, चावंड में महाराणा प्रताप की समाधि
Maharana Pratap's sepulcher in Bandoli  बाण्डोली, चावंड में महाराणा प्रताप की समाधि


Akbar About Maharana Pratap After his death News

कहा जाता है कि जब महाराणा प्रताप के मृत्यु की खबर अकबर तक पहुची तो उसे भी बडा दुख हुआ। इस पर अकबर के दरवारी दुरसा आढा ने अकबर की स्थिति को देखते हुए लिखा है

कि राणा प्रताप तेरी मृत्यु पर बादशाह ने दाँत में जीभ दबाई और निःश्वास आँसू टपकाए, क्योंकि तूने अपने घोडे को नही दगवाया और अपनी पगडी को किसी के सामने नहीं झुकाया, वास्तव में तू सब तरह से जीत गया।


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मैने कई श्रोतो जैसे राजस्थान स्कूल टैक्स बुक, एनसीआरटी आदि से जानकारी इकट्ठा कर यहां सही से प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। ऐसे में हो सकता है कि कुछ स्थानो के संबंध में या किसी विशेष घटना पर मेरे द्वारा पढ़ने या समझने या फिर लिखने मे कुछ गलतिया भी हो सकती है। मैने लगभग सभी तथ्यों को बडी गंभीरता संग्रहित करने का प्रयास किया है और लगभग सभी तथ्यो की दोबारा पुष्टि करने की कोशिश की है। इसके बावजूद भी कही पर किसी तथ्य या जानकारी की गलती होने पर आप लोगो से उम्मीद करता हूँ कि आप लोगो द्वारा सुधार हेतु मुझे सूचित किया जायेगा।


धन्यवाद, नमस्कार

May 09, 2020

The Richest person in the History, Mansa Musa, मनसा मूसा सबसे धनी व दानवीर बादशाह

कीटा वंश, माली साम्राज्य, मनसा मूसा और अमीरी

The Richest person in the History

Mansa Musa considered the wealthiest one in the History, Here Some Modern Billionair with respect to him
Mansa Musa considered the wealthiest one in the History, Here Some Modern Billionair with respect to him

जब भी अफ्रीका के किसी देश या पूरे महाद्वीप का जिक्र आता है तो अधिकतर लोगो के मन में एक ही बात याद आती है वह है इस महाद्वीप की खस्ता हालात है। आज अफ्रीका के अधिकतर देश की आर्थिक स्थिति बेहद नाजूक है, हालांकि यह महाद्वीप पारिस्थितिकी रूप से दुनिया के अन्य भागों से काफी समृद्ध है। मगर आज के इस दौर में क्या पारिस्थितिकी रूप से मजबूत होना ही काफी नही है। किसी भी देश के सही विकास के लिए आर्थिक रूप से समृद्व होने के साथ ही एचडीआई मे भी सक्षम होना पढेगा। चलो वह एक अलग विषय है, इसका जिक्र करने का मकशद सिर्फ यह बताना था कि अफ्रीका की जो हालात अभी है वह प्राचीन काल या मध्य काल से बिल्कुल भिन्न है, 14वीं सदी में जब भारत मे तुलगक, तुगलकी फरमान जारी कर रहा था ठीक उसी वक्त माली व अफ्रीका में एक दानी राजा करोडों अरबांे का दान कर रहा था। यह टाॅपिक मध्य काल के एक ऐसे ही साम्राज्य व सुल्तान के बारे मे है जो 14वीं सदी के आस पास माली साम्राज्य का शासक बनता है, और अपनी अमीरी के कारण इतिहास मे अमर हो गया, वही माली जिसकी मौजूदा हालात आज भारत के एक छोटे से राज्य से भी नाजूक है माली की मौजूदा नाॅमियल जीडीपी 17.18 बिलियन डाॅलर व पीपीपी जीडीपी 41.130 बिलियन डाॅलर है जो कि नाॅमियल मे भारतीय राज्य गोवा व पीपीपी में उत्तराखंड के लगभग बराबर है और जनसंख्या लगभग 1.9 करोड, जो उत्तराखंड की जनसंख्या (1.08 करोड) के लगभग दुगनी है ऐसे में कल्पना कीजिए कि माली में एक समय दुनिया का सबसे अमीर इंसान रहता था। जिसके पास आज से 700 वर्ष पूर्व आज के माली की कुछ जीडीपी का 10 गुना पैसा था। यह बादशाह मनसा मूसा था शायद आप लोगो मे से कईयों ने इसके बारे में सुना भी हो मगर मै यहा कुछ तुलनात्मक तथ्य के साथ इस कहानी को रोचक बनाने की कोशिश करूंगा। आशा करता हूँ आप लोगो को पसंद आयेगा।


मनसा मूसा के बारे मे रोचक तथ्य ( Facts About Mansa Musa)

In 1375 Catalan Atlas. Started and it depicted Mansa Musa with holding a gold coin
In 1375 Catalan Atlas. Started and it depicted Mansa Musa with holding a gold coin 


  1. एक अध्ययन के अनुसार मनसा मूसा की संपत्ति का आज भाव पर बाजार कीमत लगायी जाये तो यह लगभग 400 बिलियन डॉलर के आसपास की आंकी जाती है, जो कि आज तक के ज्ञात इतिहास में सबसे अमीर इंसान है। क्योंकि आज तक ऐसा कोई भी इंसान नही है जिसकी कमाई इतनी ज्यादा हो, हालांकि अमेरिकी तेल व्यापारी जॉन डी0 रॉकफेलर को एकमात्र उस व्यक्ति में गिना जाता है जो अमीरी में मूसा के थोडी करीब आता जरूर है। जॉन डी0 रॉकफेलर, जिसका कि तेल के अलावा कई अन्य क्षेत्रों में कुछ समय के लिए एकाधिकार रहा था, उसके बावजूद भी अर्थशास्त्रियों का मानना है कि राॅकफेलर के पास वर्ष 1937 तक लगभग 336 बिलियन डॉलर की संपत्ति थी। मौजूदा हालात मे कई अरबपतियों जैसे जैफ वेजैस, बिल गेट्स, वाॅरेन बफेट, जैसे कई तो अमीरी के मामले में मंसा मूसा के आसपास भी नही है, जिनकी दौलत क्रमशः 112 बिलियन डॉलर, 105 बिलियन डॉलर व 72 बिलियन डॉलर आंकी गयी है।
  2. मनसा मूसा शुरू में नमक का व्यापार किया करता था। बाद मे उसने सोने के खदानों का काम शुरू करवाया और सबसे अमीर सुल्तान बन गया।
  3. मनसा मूसा को अधिकांशतः टिम्बकटू का राजा के रूप मे भी बताया गया है। क्योंकि उस समय टिम्बकटू माली का सबसे समृद्ध शहरों मे शुमार था। मनसा मूसा के समय माली में हर साल करीब एक टन यानी 1000 किलो सोने का उत्पादन होता था।
  4. मनसा मूसा अपनी सेना व दानशीलता के कारण मशहूर था। वर्ष 1324 ई. में मनसा मूसा ने मक्का की यात्रा की थी, जिसका सफर लगभग 6000 किमी था, इसमे मूसा के 60000 सैनिक शामिल थे, जिसमे से 12000 तो सिर्फ मूसा के अंगरक्षक दल मे शामिल थे। मनसा मूसा की सवारी के आगे पीछे 500-500 पैदल लोगो का दस्ता था जो हथियारों व सोने की छडी से लैस थे। इस यात्रा में मूसा के संदेशवाहक भी साथ ही चल रहे थे ये भी 500 की संख्या मे थे जो कि रेशम का लिबास पहना हुए थे। कहा जाता है कि मनसा मूसा की इस यात्रा को देखने के लिए लगभग 2000 किमी तक लोगो ने लंबी कतार बनाकर उसका कारवां देखा व अवाक रह गये थे। कहा जाता है मनसा मूसा को अफ्रीका के लोगो की गरीबी का अंदेशा था,  जिस कारण वह अपनी मक्का यात्रा में 80 ऊंटों का जत्था, जिस पर लगभग 136 किलो सोना लदा हुआ था, लेकर गया था। उसने अपनी उदारता दिखाते हुए मिस्र की राजधानी काहिरा के गरीबों को भर भर कर सोना दान दे दिया था। 
  5. मध्यकालीन इतिहास मे सबसे महत्वपूर्ण नक्शा कैटलन एटलस, जिसे 1375 ई. मे शुरू किया गया था, यह नक्शे मे उस समय के बहुत ही महत्वपूर्ण साम्राज्यों को चिन्हित किया जाता था, में माली सल्तनत और उसके बादशाह मनसा मूसा का नाम शामिल किया गया। तथा मनसा मूसा को सबसे अमीर सुल्तान कहा था।

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मनसा मूसा (मनसा मतलब बादशाह) - King Of Timbuktu

The Djinguereber Mosque in Timbuktu, Mali is built in 1327 by Mansa Musa. This is a famous learning center of Mali
The Djinguereber Mosque in Timbuktu, Mali is built in 1327 by Mansa Musa. This is a famous learning center of Mali 

मूसा माली के कीटा वंश का दसवा मनसा (बादशाह) था। इसका मूल नाम मूसा कीटा प्रथम था। इसका जन्म 1280 ई. में माली की राजधानी निआमी में हुआ था। इसका पूर्ववर्ती मनसा अबुबर्क द्वितीय था व उत्तराधिकारी मनसा इसका पुत्र मघन हुआ। अबुबर्क द्वितीय की मृत्यु 1312 ई. के बाद मूसा मनसा बना था। मूसा के मनसा बनने के समय कीटा वंश ने माली व घाना के राज्यों मे अपना साम्राज्य फैलाया था। मगर मूसा ने साम्राज्य विस्तार मे काफी अहम भूमिका निभाई। इसने साथ ही इसने माली का शहर तुम्बकटू को भी अल्पकालीन द्वितीय राजधानी बना ली थी। मूसा को 24 बडे शहरो का विजेता के रूप में भी वर्णित किया गया है। इतिहासकार मानते है कि ये शहर न होकर अफ्रीका व यूरोप के देश थे। मनसा मूसा ने कई शहरो को भी बसाया साथ ही शिक्षा और निर्माण कार्य को भी महत्व दिया। तिम्बक्टू में उसके द्वारा 1327 ई. में बनाया गया जिगुएरेबर मस्जिद को आज तक कलाकृति की एक अद्भूत कृत्यों में गिना जाता है। इसी ने माली मे सोने के खदानों को महत्व देते हुए उसके खनन कार्य करवाया था। मूसा के शासनकाल के दौरान, माली दुनिया में सोने का सबसे बड़ा उत्पादक हो गया था, जिसके बदौलत मनसा मूसा को आज तक दुनिया का सबसे बडा अमीर लोगो में गिना जाता है। यह इतिहास में एक महान उदारवादी सुल्तान के रूप में भी जाना जाता है। कहा जाता है कि इसके 1324 ई. के मक्का यात्रा इस क्षेत्र में एक महत्व पूर्ण घटना थी। क्योकि यह भव्य होने के साथ ही उन शहरों में मंहगाई बढाने वाली घटना भी थी जिन शहरों मे मंसा मूसा मे भारी मात्रा मे सोना दान स्वरूप दिया था। कहा जाता है कि मनसा मूसा की इस यात्रा मे दानशीलता के किस्से सुनने के बाद कई यूरोपीय लोग सिर्फ बादशाह के शानओशौकत देखने के लिए पहुच गये थे। 

माली साम्राज्य का कीटा वंश (Keta dynastry)

The Great Mali Empire expanded during the Mansa Musa (1312-1337)
The Great Mali Empire expanded during the Mansa Musa (1312-1337)

सुंदियाता कीटा नामक एक शासक ने जो कि 1214 ई. 1235 ई0 तक घाना के एक छोटे से राज्य मे राज करता था, ने 1235 ई. तक में माली के पूरे भूभाग पर अपना अधिकार करने एक मजबूत व विशाल माली साम्राज्य की नींव डाली, जिसे अधिकांशतः इसकी राजधानी निआनी के कारण निआनी साम्राज्य भी कहा जाता हैं। माली साम्राज्य, एक इस्लामिक पश्चिम अफ्रीकी राज्य है शुरू में घाना व माली तक इसका साम्राज्य था, देखते ही देखते इसके काबिल शासको ने लगभग आज के आधे अफ्रीका यहां तक कि इसके राजा मनसा मूसा ने यूरोप का कुछ हिस्सा भी अपने साम्राज्य में मिला लिया था। इस साम्राज्य के शासकों ने 1235 ई0 से 1670 ई. तक शासन किया, हालांकि इसके शासको के बारे मे ज्यादा जानकारी नही है कि इस साम्राज्य में कितने शासक हुए। इस के बारे में जानकारी 14 वीं शताब्दी अरब इतिहासकार इब्न खल्दुन व मोरक्को यात्री इब्न बतूता (जो कि दिल्ली सल्तनत के समय भारत भी आया था) व अन्य इतिहासकारों से मिलती है। 1255 ई. में सुंदियाता कीटा की मृत्यु के बाद 1255 ई. में ही इसके शासको ने अपने नाम के साथ मनसा उपाधि जोडना शुरू कर दिया था, जिसका अर्थ बादशाह होता था।

मनसा मूसा की मृत्यु

इतिहास का सही अनुमान लगाना आसान नही है हमेंशा ही आंकडो को लेकर इतिहासकारों मे मतभेद रहा है यही कुछ मनसा मूसा की मृत्यु तिथि व कारणो के बारे मे भी देखने को मिलता है। मनसा मूसा की मृत्यु कब और कैसे हुई इसका तो कोई ठोस सबूत नही है मगर कुछ इतिहासकारों ने इसके उत्तराधिकारी इसके पुत्र मनसा मघन, जिसका शासनावधि 1337 ई. से 1341 दर्ज है, से ही अंदाजा लगाया जाता है कि 1337 ई. तक ही मनसा मूसा का शासनकाल रहा होगा। अतः उनके कीटा वंश के दसवे शासक के रूप में 25 वर्षों तक शासन किया था। 

मूसा के अन्य उपनाम (Mansa Musa Also know)

मूसा का साम्राज्य इतना बड़ा और प्रसिद्धि इतनी थी कि उसे अलग-अलग जगहों पर कई उपाधियों और उपनामों से नवाजा गया था I जैसे   Emir of MelleKankou Musa ,Gonga Musa, Lord of the Mines of Wangara and Conqueror of Ghanata 


माली के बारे मे कुछ परीक्षापयोगी तथ्य (Some Exam related facts About Mali)


  1. माली वर्ष 1892 में फ्रांस द्वारा काॅलोनी बनाया गया था, व साथ अन्य संघ देशों के साथ 20 जून 1960 को फ्रांस से आजादी मिलने के बाद 22 सितम्बर 1960 माली नाम से एक अलग देश का गठन किया गया। इसकी राजधानी बमाको क्षेत्रफल लगभग 12 लाख किमी व जनसंख्या 1.91 करोड है।
  2. पूर्व में नाइजर, पश्चिम में सेनेगल और मारितुआना, उत्तर में अल्जीरिया, दक्षिण में बुर्किना फासो और कोत दिव्वार व दक्षिण-पश्चिम में गिनी देश इसके पडोसी राज्य है।
  3. माली की आधिकारिक भाषा फ्रांसीसी जबकि इसकी क्षेत्रीय भाषा बाम्बारा है।
  4. होम्बोरी टोंडो यहा का सबसे ऊँचा पर्वत 1155 मीटर व नाइजर 4181 किमी यहा की सबसे बडी नदी है।

Wednesday, May 6, 2020

May 06, 2020

Himalaya Origin and Himalaya's Top Peaks and Important ranges I Tethys Sea I हिमालय पर्वत की उत्पत्ति व हिमालय के आश्चर्य। टेथिस सागर की जगह कैसे हिमालय पर्वत खडा हो गया।

हिमालय पर्वत की उत्पत्ति व हिमालय के आश्चर्य। टेथिस सागर की जगह कैसे हिमालय पर्वत खडा हो गया।



आज के इस लेख मे मैने हिमालय का संक्षिप्त मगर गहन विवरण प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। हिमालय पर्वत भारत की उत्तरी सीमा पर स्थित एक महान पर्वत की श्रृख्लां है जो पूर्व मे नाम्चा बरूआ पर्वत से पश्चिम में नंगा पर्वत तक लगभग 2400 वर्ग  किमी तक वृत्त के एक आर्क या चाप के रूप में फैला  है, जिसका कि आर्क या चाप वाला हिस्सा या बाह्य भाग उत्तर भारत के विशाल मैदान की ओर तथा चाप का केद्र वाला हिस्सा तिब्बत की ओर है अर्थात यह पूर्व से पश्चिम की ओर पहले दक्षिण पश्चिम की ओर तथा बाद मे अचानक उत्तर पश्चिम की ओर विस्तारित है। हिमालय पर्वत श्रृख्ला पूर्व से पश्चिम विस्तार मे दुनिया की सबसे लम्बी पर्वत श्रृख्ला है। यह पर्वत श्रृख्ला भारतीय उपमहाद्वीप को मध्य एशिया व तिब्बत से पृथ्क करता है। जो कि पांच देशों चीन, भूटान, नेपाल, भारत और पाकिस्तान मे फैला है, कुछ जगहों पर अफगानिस्तान का हिन्दु कुश पर्वत व म्यांमार का खबाको राजी पर्वत को भी हिमालय का भाग बताया गया है जो कि एक अगल ही पर्वत है अतः हिमालय पर्वत श्रृख्ला का विस्तार सिर्फ 5 देशों में है म्यांमार व अफगानिस्तान मे नही। अधिकांश लोगो शायद लगता होगा कि यह सबसे प्राचीन पर्वत है मगर यह भू-वैज्ञानिक और संरचनात्मक रूप से यह नवीन वलित पर्वत श्रंृख्ला है, पर्वत श्रृंखला मुख्यतः पांच प्रकार की होती है। जैस वलित पर्वत या फोर्ड माउंटेन, ब्लाॅक माउंटेन, अवशिष्ट माउंटेन आदि जिसे एक नए आर्टिकल मे समझेंगे। इसमे वलित पर्वत का अर्थ के भूगार्भिग हलचल के कारण पृथ्वी के आतंरिक शक्तियों द्वारा सहत की चट्टानों या आकृतियों में दबाव पडने से एक नयी पर्वतीय संरचना का बनना। आंतरिक शक्तियो के कारणों मे मुख्यतः पृथ्वी के प्लेटो का आपस में टकराव है। प्लेट समझने के लिए सबसे पहले संक्षिप्त में  जानते है पृथ्वी की संरचना- पृथ्वी के मुख्यतः तीन भाग होते है सबसे अंदर कोर, बीच मे मेंटर व सबसे बाहरी भाग क्रस्ट। प्लेटो का संबंध पृथ्वी के क्रस्ट भाग से है अर्थात पृथ्वी का बाह्य भाग, क्रस्ट कई विशाल खंडो से मिलकर बना है इन्ही विशाल खंडो को ही टेक्टोनिक प्लेट कहते है। मुख्यतः पृथ्वी का क्रस्ट 16 बडे प्लेटों व 100 से अधिक कई छोटे टेक्टोनिक प्लेटो से बना है। हिमालय के संदंर्भ मे इन 16 बडे टेक्टोनिक प्लेटो में से सिर्फ दो का ही रोल है। एक है यूरेशियन प्लेट व दूसरा है भारतीय प्लेट, जो आज आॅस्ट्रेलियन प्लेट से मिलकर भारतीय-आॅस्ट्रेलियन प्लेट बनाती है। हिमालय का निर्माण सेनोजोइक एरा के इयोसीन से प्लायोसीन काल तक भारतीय प्लेट का यूरेशियन प्लेट मे अभिसरण (एक प्लेट का दूसरी प्लेट के नीचे चले जाने से, या आसान भाषा में कहें तो, टकराने से) होने के कारण हुआ था। इसका प्रथम उत्थान 650 लाख वर्ष पूर्व हुआ था और मध्य हिमालय का उत्थान 450 लाख वर्ष पूर्व। 

उत्तराखंड के प्रमुख 15 पर्वत चोटियां


यह हिमालय का आसान भाषा में एक इतिहास है इसे थोडी और बारीकी से समझने से पहले मै आप लोगो को हिमालय से जुडे कुछ तथ्य पेश कर रहा हूँ, शायद अधिकतर लोग इन तथ्यो का जानते हो मगर फिर भी एक बार जरूर पढे़। 

  • हिमालय पर्वत में 7,200 मीटर (23,600 फीट) से अधिक ऊंचाई पर 80 पर्वत चोटी और 8,000 मीटर से अधिक की ऊंचाई 10 चोटिया शामिल हैं।
  • हिमालय और विश्व की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट को भी कई नामों से जाना जाता है। नेपाल में इसे सIगरमाथा (आकाश या स्वर्ग का भाल), संस्कृत में देवगिरी और तिब्बती में चोमोलुंगमा (पर्वतों की रानी) कहते हैं।
  • हिमालय पर्वतीय प्रदेश में 54.7 मिलियन लोग रहते हैं। जो विश्व की कुल जनसंख्या का 1 प्रतिशत है।
  • हिमालय के निर्माण में प्रथम उत्थान अर्थात महान हिमालय का उत्थान 650 लाख वर्ष पूर्व प्रारम्भ हुआ था और मध्य हिमालय का उत्थान 450 लाख वर्ष पूर्व। काल निर्धारण के अनुसार इयोसीन व ओलियोसीन काल मे महान हिमालय का मायोसीन काल जो आज से लगभग 250 लाख पहले था, लघु हिमालय का व शिवालिक का उत्थान आज से लगभग 110 लाख साल पहले प्लायोसीन काल मे हुआ था।
  • 72 किलोमीटर लंबा  सियाचिन हिमनद विश्व का दूसरा सबसे लंबा हिमनद है।
  • हिमालय श्रेणी में लगभग 12000 वर्ग किमी मे फैले, 15000 ग्लेशियरों में लगभग 12000 क्यूबिक किलोमीटर या 3000 घन मील ताजा पानी है जो कि विश्व के सभी ग्लेशियरों में उपलब्ध ताजा पानी 2.4 करोड क्यूबिक किलोमीटर का 0.05 प्रतिशत है।
  • हिमालय पर्वत श्रेणी द्वारा कवर कुल क्षेत्रफल लगभग 612,021 वर्ग किमी है, जो धरती पर कुल भूमि क्षेत्र का 0.4 प्रतिशत है।
  • हिमालय की माउंट एवरेस्ट समुद्र स्तर से ऊपर की दुनिया में सबसे ऊंची चोटी है। यह 8,848 मीटर ऊँची है। इस चोटी का नाम उस समय के एक ब्रिटिश सर्वेयर जार्ज एवरेस्ट, जिन्होने वर्ष 1830 -1843 तक हिमालय के कई ऊची चोटियों का सर्वेक्षण किया था।
  • माउंट एवरेस्ट पर चढाई के लिए 11000 डाॅलर (8.25 लाख रू0) की एंट्री फीस देनी पडती है जबकि पहले यह फीस 25000 डाॅलर थी। जिसे नेपाल सरकार ने 2015 मे कम करके 11000 डाॅलर किया था। 1974 से आज तक सिर्फ दो बार ही वर्ष 1974 व 2015 मे कोई भी पर्वतारोही एवरेस्ट मे नही चढा।
  • माउंट एवरेस्ट हर वर्ष 2 सेमी की दर से अभी तक उठने मे है। इस पर्वत तक पहुचने में 18 रास्ते है। 52 टन कूडे के साथ ही यह पर्वत विश्व का सबसे प्रदूषित पर्वत है।


परीक्षा विशेष- हिमालय पर्वत श्रृख्ला के मुख्य रूप से चार समानांतर श्रेणियां- शिवालिक, मध्य हिमालय, महान हिमालय व टाªंस हिमालय है। इसके अंतर्गत हिमालय की उत्तर से दक्षिण श्रेणियां काराकोरम, लद्दाख, कैलाश, जाॅस्कर, पीरपंजाल, धौलाधर, महाभारत व शिवालिक आदि श्रेणियाँ शामिल है।

पूर्व से पश्चिम प्रमुख पर्वत शिखर
नमचा बरवा (पूर्वी),  कंचनजंगा, मकालू,  माउंट एवरेस्ट, गौरी शंकर,  धौलागिरी,  अन्नपूर्णा, नंदा देवी, गॉडविन ऑस्टिन (के2), नंगा पर्वत (पश्चिमी)


क्या है भारतीय उपमहाद्वीप


उपमहाद्वीप, महाद्वीप के भीतर ही एक बडा क्षेत्र होता है, अपेक्षाकृत एक अलग सा भूभाग होता है। यह भाग अपने महाद्वीप के बाकी भाग से भौगोलिक या राजनीतिक स्वरूप से भिन्न होता है। भारतीय उपमहाद्वीप भूगर्भिक रूप में भारतीय प्लेट द्वारा एशिया के बाकी देशो से पृथ्क है, जिसमे मुख्यतः हिन्दमहासागर व भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, मालदीव और श्रीलंका देश शामिल है।

हिन्दु पौराणिक कथाओं में हिमालय की मान्यता 



हिन्दु पौराणिक कथाओं के अनुसार हिमालय का नाम इस क्षेत्र के राजा हिमवान या पर्वतेश्वर के नाम से पडा, जिनकी रानी मैनावती थी, माता पार्वती को इन्ही हिमवान की पुत्री के रूप में वर्णित किया जाता है। कथाओं के अनुसार माता सती, जो कि राजा दक्ष की पुत्री थी के आत्मदाह कर लिया था। इसी वक्त तारक नामक दैत्य ने भगवान ब्रह्मा जी से वर प्राप्त कर लिया था कि उनका वध सिर्फ भगवान शिव के पुत्र के हाथों ही हो सकता है चूकि भगवान शिव पत्नीहीन व पुत्रहीन थे। अतः दैत्य को लगा वह अमर है, उसका वध करने वाला कोई नही है, जिसका फायदा उठाकर उसने त्रैलोक्य पर अधिकार जमा लिया था, और पूरा संसार संसार शक्तिहीन हो चुका था। देवतागण देवी आदिशक्ति की शरण में सहायता हेतु गये। उधर दूसरी ओर राजा हिमवान व रानी मैनावती की भी कोई कन्या नही थी, और उन्होने संतान प्राप्ति के लिए आदिशक्ति की प्रार्थना की। अतः आदिशक्ति माता सती ने दक्ष की पुत्री के बाद राजा हिमवान व रानी मैनावती की पुत्री के रूप में जन्म लिया, जिसका नाम उन्होने पार्वती, जिसका अर्थ है पर्वतों की रानी, रखा गया। सप्तऋषियों के अनुरोध पर देवी पार्वती ने भगवान शिव से विवाह कर लिया। साथ ही भगवान शिव को भी स्मरण हुआ कि देवी पार्वती ही देवी सती है। बाद मे दैत्य का वध भगवान गणेश के हाथों होता है। माता पार्वती के अन्य नाम जैसे गौरी या महागौरी, गिरिजा, शैलपुत्री है। कुछ विद्वान मानते हैं कि मां पार्वती को ही मां उमा कहा जाता है। शुम्भ, निशुम्भ, महिषासुर आदि जैसे कई असुरों का वध माता पार्वती ने ही किया था। और इनकों की नवदुर्गा के रूप में प्रतिष्ठित किया गया।

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हिमालय का निर्माण से पूर्व।


पृथ्वी पर बनी प्रत्येक स्थलाकृति अपने आप में एक रोचक कहानी बयां करती है, इन स्थलाकृतियों के संबंध में वर्षों से कई धारणाये या परिकल्पना यानी तर्क के साथ किसी बात की कल्पना करना, दी जा रही है। सर्वप्रथम आस्ट्रिया के भूवैज्ञानिक एडवर्ड सूएस ने वर्ष 1861 में पृथ्वी की उत्पत्ति के आरंभिक काल मे इसका अंगारालैंड व गोन्डवानालैड नाम दो सुपरकांटिनेंट, जो दो महा भू-खंड थे, मे विभाजित होने की परिकल्पना दी। इन दोनो महाद्वीपों के बीच में टेथिस नाम एक सागर था, जो कि काफी लंबा व उथला सागर था, जिस पर दोनो भूखंडो से लाखों सालों से अपदरित पदार्थ जैसे, मिट्टी, कंकड आदि का जमाव होता रहा। पृथ्वी का अपने अक्ष पर घूर्णन, पृथ्वी की आंतरिक हलचक व अन्य भौगोलिक कारणो से लाखों वर्षों में पृथ्वी के अंदर प्लेटो का विस्थापन होता रहा एंव वह एक दूसरे की ओर खिसकते रहे। दो विरोधी दिशाओ में पड़ने वाले दबाव के कारण सागर में जमी मिट्टी आदि की परतो में वलय (मोंड) पड़ने लगे । धीरे-धीरे वलन के कारण गाद ने पहले पानी के सतह के ऊपर आने से द्वीपों की एक श्रृंखला के रूप लिया, और यह क्रिया निरंतर चलती रही और लाखों करोडो वर्षों बाद टेथिस सागर में जमा ये गाद ने एक विशाल पर्वत श्रेणियो का रूप ले लिया और आज का हिमालय पर्वत श्रृख्ला पर्वत बन गया। वैज्ञानिकों का मानना है कि इस पर्वत श्रृख्ला में अभी भी निरंतर उत्थान जारी है और यह माना जा रहा है कि इस पर्वत की संभावित ऊचाई इसकी मौजूदा ऊचाई से तीन गुना तक पहुच सकती है।




हिमालय की उत्पत्ति की प्लेट टेक्टोनिक्स सिद्धान्त


आस्ट्रिया के भूगर्भशास्त्री एडवर्ड सूएस द्वारा टेथिस सागर की कल्पना के बाद हिमालय की उत्पत्ति की परिकल्पना को कोबर से विस्तार से समझाया जिसे कोबर के भूसन्नति सिद्धांत कहते है, इसके अलावा अमेरिकी भू-वैज्ञानिक हैरी हेस का प्लेट टेक्टोनिक्स या प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत भी इस विषय पर सर्वमान्य व्याख्या करता है। इन दोनो सिद्धांतो के अनुसार पृथ्वी के अंदर भारतीय प्लेट और इस पर स्थित भारतीय भूखण्ड गोंडवानालैण्ड नामक विशाल महाद्वीप का हिस्सा था, जो कि अफ्रीका महाद्वीप से जुडा हुआ था। ऊपरी इयोसीन काल, लगभग 840 लाख वर्ष पूर्व में पृथ्वी की प्लेटों पर भारी बदलाव देखने को मिला और भारतीय प्लेट अफ्रीकन प्लेट या गोंडवानालैंड से विभाजित होने लगी और केरिओलिस बल के कारण यह अपने मूल स्थान से उत्तर पूर्व की ओर एंटीक्लोकवाइज घुमने लगी। लगभग 6000 किमी खिसकने के बाद उत्तर में यूरेशियाई प्लेट जिस पर चीन व उसका उत्तरी भाग है व भारतीय प्लेट जो कि दक्षिण पश्चिम से खिसककर आ रही थी के बवाद से टेथिस सागर पर दवाब पडा और उसका गाद उपर उठने लगा, और भारतीय प्लेट अब दूसरे महाद्वीपीय प्लेट यूरेशियन प्लेट से सीधे टकराव में आ गयी, और साथ ही भारतीय प्लेट का उत्तरी पूर्वी हिस्सा 45 अंश के आसपास घड़ी की सुइयों के विपरीत दिशा में घूम कर आज के भारत की स्थिति में आ गया। इस पूरी घटना को लगभग 200 लाख वर्ष का समय लगा, अर्थात हिमालय का केन्द्रीय भाग के निर्माण में 200 लाख का समय लगा। इसी प्रकार हिमालय की चारों प्रमुख श्रेणियों की रचना अलग-अलग काल में हुई जिसका क्रम उत्तर से दक्षिण की ओर है। आज भी भारतीय प्लेट में लगातार विस्थापन जारी है वैज्ञानिको का मानना है कि यह प्लेट प्रतिवर्ष 5 सेमी उत्तर एंव उत्तर पूर्व की ओर विस्थापित हो रही है, जिसे यूरेशियन प्लेट द्वारा रोका जाता है, क्योंकि यूरेशियन प्लेट प्रतिवर्ष लगभग 2 सेमी से उत्तर की ओर बढ रहा है। जिसके कारण प्लेटों के बीच में ऊर्जा का संग्रहण भी हो रहा है। जो कि समय समय पर प्लेटो के किनारे से संग्रहित ऊर्जा भूकम्प के रूप में पृथ्वी की सतह पर दस्तक देता रहता है।

हिमालय का विभाजन

हिमालय पर्वत को दिशा के आधार पर मुख्यतः दो प्रकार से विभाजित किया जाता है।
1. उत्तर से दक्षिण विभाजन
2. पूर्व से पश्चिम विभाजन, जिसे प्रादेशिक विभाजन भी कहते है।

उत्तर से दक्षिण विभाजन

भारत के संदर्भ में हिमालय उत्तर से दक्षिण क्रमशः टाªंस हिमालय, महान या वृहत हिमालय, मध्य हिमालय और शिवालिक, इन चार पर्वत श्रेणियाँ में विभाजित है। जो कि एक दूसरे से घाटियों या भ्रंशो के द्वारा पृथ्क होती है।




टाªंस हिमालय

टाªंस हिमालय का लगभग सभी भाग भारत के उत्तर अर्थात तिब्बत में पडता है। इस भाग की ऊचाई औसतन अन्य भाग से कम है। यह हिमालय भारत को तिब्बत से जोडने के लिए कई पास या दर्रे प्रदान करता है जिनसे होकर व्यापारी व तीर्थ यात्री यात्रा करते हैं। काराकोरम, लद्दाख , जाॅस्कर व कैलाश आदि पर्वत श्रेणिया इसी हिमालय के भाग है। भारत का पवित्र तीर्थ स्थल कैलाशमानसरोवर भी इसी हिमालय मे पडता है। विश्व की सर्वाधिक तीव्र ढाल वाली चोटी राकापोशी लद्दाख श्रेणी मे व विश्व का दूसरा बडा ग्लेशियर सियाचिन 72 किमी काराकोरम श्रेणी में है। इस हिमालय से कई नदियो जैसे सिन्धु, सतलज, बह्मपुत्र व सांग्पो आदि का उत्पत्ति होती है। 

महान हिमालय या वृहत हिमालय 

टाªंस हिमालय के दक्षिण में महान या वृहत हिमालय है जिस ग्रेट हिमालय, हिमाद्रि आदि नामों से जाना जाता है, क्योकि इस भाग में बडे-बडे ग्लेशियर है। यह हिमालय की सर्वाधिक सतत और सबसे ऊँची श्रेणी है, जिसकी औसत ऊँचाई लगभग 6000 मी. है। हिमालय की सर्वाधिक ऊँची चोटियाँ जैसे माउंट एवरेस्ट, कंचनजंघा आदि इसी पर्वत श्रेणी में पायी जाती हैं। इस कोर भाग ग्रेनाइट का बना हुआ है हिमालय की उत्पत्ति के समय सबसे पहले हिमालय की इस श्रेणी का निर्माण हुआ था। अधिकांशतः हिमालय का तात्पर्य इसी श्रेणी से होता है यह श्रेणी पूर्व में अरूणाचल प्रदेश से पश्चिम में जम्मू तक फैला है।

मध्य या लघु हिमालय

यह वृहत हिमालय के दक्षिण में स्थित श्रेणी है, जिसे ‘हिमाचल’ के नाम से भी जाना जाता है। इसकी औसत ऊँचाई 3700 मी. से  4500 मी. तक पायी जाती है और औसत चैड़ाई लगभग 50 किमी. है। यह हिमालय पर्वतीय पर्यटन स्थल के रूप में प्रसिद्ध है जैसे, कश्मीर घाटी, कांगड़ा घाटी और कुल्लू घाटी आदि लघु हिमालय में ही स्थित है। पीरपंजाल, धौलाधर और महाभारत उप श्रेणियाँ इस हिमालय के प्रमुख भाग है, इन सबमें पीरपंजाल सबसे लंबी और महत्वपूर्ण श्रेणी है।

शिवालिक

लघु या मध्य हिमालय की दक्षिण में स्थित शिवालिक श्रेणी हिमालय की सबसे बाहरी श्रेणी है। जिसकी औसत ऊँचाई 900 मी. से लेकर 1500 मी. तथा औसत चैडाई 10- 50 मीटर तक ही है तथा इसका विस्तार लगभग मध्य व पश्चिमी हिमालय में ही पाया जाता है, जो कि नेपाल से हिमाचल प्रदेश तक ही विस्तारित है। शिवालिक व लघु हिमालय के मध्य कई घाटिया पायी जाती है जिनहे दून कहा जाता हैं जैसे देहारादून, कोटलीदून, पाटलीदून आदि। इस श्रेणी में पर्वतपादों के पास जलोढ़ पंख या जलोढ़ शंकु पाये जाते हैं।

हिमालय का प्रादेशिक विभाजन या पूर्व से पश्चिम विभाजन



हिमालय पर्वत श्रेणी कई नदी घाटियों द्वारा बीच बीच में कटी है। जिनमे से होकर नदीया प्रवाहित होती है, जो प्रादेशिक हिमालय की सीमा का निर्धारण भी करती है। इसी आधार पर ब्रिटिश सेना के अधिकारी सर सिडनी बुराड ने हिमालय को चार प्रादेशिक क्षेत्रों में विभाजन किया था, जो इस प्रकार है।

असम हिमालय- तीस्ता और दिहांग नदी(बह्मपुत्र का अरूणाचल प्रदेश मे नाम) के मध्य लगभग 720 किमी में विस्तृत हिमालय।

नेपाल हिमालय- काली और तीस्ता नदी के मध्य 800 किमी विस्तृत हिमालय। सबसे बडा प्रादेशिक हिमालय।

कुमायूँ हिमालय- सतलज और काली नदी के मध्य लगभग 320 किमी विस्तृत हिमालय। सबसे छोटा प्रादेशिक हिमालय।

पंजाब या कश्मीर हिमालय- सिंधु और सतलज नदी के मध्य लगभग 560 किमी विस्तृत हिमालय। इसे कई कई जगहों पुनः दो उप भागो कश्मीर व हिमाचल हिमालय में भी बाटा गया है। कश्मीर में करेवा इसी हिमालय मे देखे जाते है जो कि पूर्व में टेथिस सागर की पुष्टि करते है।

भारत के लिए हिमालय पर्वत या हिमालय क्षेत्र का महत्व


उत्तराखंड या भारत में हिमालय पर्वत को सिर्फ एक पर्वत के रूप में न मानकर कई स्थानों पर इसकी पूजा तक की जाती है। अगर इसके महत्व की बात करें तो यह भारत को चारों ओर से लाभांवित करता है, इस पर्वत ने जितना प्रभावित भारत भूमि को किया है उतना दुनिया के किसी पर्वत श्रेणी का किसी अन्य भूमि को नही किया है। इसका विशाल शरीर जलवायु प्रभाव के कारण भारत को एक कृषि प्रधान देश बनाता है, तो इसका पवित्र स्थान का धार्मिक महत्ता के कारण पर्यटन में एक विशेष महत्व रखता है। इसी प्रकार कुछ विशेंष पाॅइटों वाइज इसके महत्व को वर्णित किया हैं।

जलवायु प्रभाव व सुरक्षा 


हिमालय भारत की जलवायु प्रमुखता से प्रभावित करता है। एक ओर तो यह ग्रीष्मकालीन मानसून जो कि अरब सागर व बंगाल की खाडी से उठता है, को रोककर भारतीय क्षेत्र में बारिश करवाता है तो वही दूसरी ओर साइबेरिया व मध्य एशिया से आने वाले ठंडे महाद्वीपीय वायु का भारत में प्रवेश रोकता भी है, अगर ये ठंडी हवाये रोकी नही जाती तो यह उत्तर भारत को भी एक ठंडे रेगिस्तान में बदल देता। साथ ही यह हिमालय जेट स्ट्रीम को दो शाखाओं में विभाजित करने पश्चिमी विक्षोप के कारण उत्तर भारत मे शीतकालीन बारिश करवाता हैं। आज के मौजूदा हालात मे इसकी स्थिति एक रक्षा आवरण के रूप चीनी हमलों से भी भारत की रक्षा भी करता है, जो कि इसने वर्ष 1962 में किया था।

नदिया, सिंचाई, बिजली उत्पादन, उपजाऊ मिट्टी एंव औषधीय के रूप मे


हिमालय भारत मे सदाबहार नदियां का उद्गम स्थल है ये नदिया वर्षभर प्रवाहित होती है। जो भारतीय अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। ये नदियां अपने साथ बहाकर लायी गयी उपजाऊ मिट्टी को उत्तर भारत के विशाल मैदान में फैलाकर यह क्षेत्र को और भी उपजाऊ बनाती है। एक अनुमान के अनुसार हिमालय से निकलने वाली नदियां प्रतिदिन लगभग 50 लाख टन गाद अपने साथ बहाकर ले जाती है। जिसमे गंगा नदी तंत्र द्वारा 20 टन, सिंधु तंत्र द्वारा 10 टन व ब्रह्मपुत्र तंत्र द्वारा 20 टन है। इन नदियों पर डैम बनाकर बिजली उत्पादन, सिचांई व पीने के पानी की व्यवस्था की जाती है। इसके साथ ही हिमालय की स्थिति से इन क्षेत्र में गर्म जल के कई गीजर भी मौजूद है, जिनसे भी बिजली का उत्पादन होता है। हिमालय से निकलने वाली नदियों का देश के बिजली उत्पादन में 35 प्रतिशत थर्मल व लगभग 55 प्रतिशत हाइड्रोइलेक्ट्रिक मे हिस्सा है। जो कि हिमालय के आर्थिक महत्व को वयां करता है। इसके अलावा हिमालय के जंगल ईंधन लकड़ी और वन आधारित उद्योगों के लिए कच्चे माल की एक बड़ी विविधता प्रदान करते हैं। जो कई औषधीय पौधे की जन्म स्थली रही है। औषधीय पौधे की ये प्रजातिया सिर्फ इसी क्षेत्र में पाये जाते हैं। साथ ही यहां के सदाबहार बुग्याल, कई चरागाह घास से भरे होते हैं, जो पशुचारको के लिए एक विस्तृत क्षेत्र प्रदान करते है।

तीर्थयात्रा एवं पर्यटन


यह क्षेत्र प्राकृतिक खूबसूरती केन्द्र है पर्यटकों मे रुचि लेने वाले लोग हर साल करोडों की संख्या में इस क्षेत्र में भ्रमण करते है। इसके साथ ही हिमालय को पवित्र तीर्थस्थानों से भरा हुए क्षेत्र है। जिसे देवताओं का निवास स्थान कहा गया है। हिमालय के सभी तीर्थस्थलों में भी प्रतिवर्ष लाखों की संख्या में तीर्थयात्री पवित्र मंदिरों में अपनी श्रद्धा अर्पित करने के लिए कठिन इलाके से होकर जाते हैं। इसमें कैलास, अमरनाथ, बद्रीनाथ, केदारनाथ, विष्णु देवी, ज्वालाजी, गंगोत्री, यमुनोत्री, आदि तीर्थ स्थान शामिल हैं।

खनिज

हिमालयी क्षेत्र में कई मूल्यवान खनिज होते हैं। तृतीयक क्रम की ये चट्टानों में खनिज तेल की विशाल भंडारण की संभावनाएँ हैं। एंथ्रेनाइट जो कि सबसे उत्तम किस्म का कोयला होता है, भी कश्मीर क्षेत्र में पाया जाता है। तांबा, सीसा, जस्ता, निकल, कोबाल्ट, सुरमा, टंगस्टन, सोना, चांदी, चूना पत्थर, अर्ध-कीमती और कीमती पत्थर, जिप्सम और मैग्नेसाइट हिमालय में 100 से अधिक इलाकों में पाए जाते हैं।

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