उत्तराखंड का गौरव। बलिदान और वीरता एक मिशाल भड़ माधों सिंह भंडारी
माधो सिंह की महानता में राजा के शब्द
एक सिंह रैंदो बण, एक सिंह गाय का।एक सिंह माधोसिंह, और सिंह काहे का।।उक्त लाइन पंवार राजा ने माधों सिंह भंडारी के शान मे कही थी, इसी बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि माधो सिंह भंडारी की अहमियत और महत्व उस काल मे कितना था। इस लाइन का मतलब है कि एक सिंह वन में रहता है, एक सींग गाय का होता है। एक सिंह माधोसिंह है। इसके अलावा बाकी कोई सिंह नहीं है।
मलेथा गांव की भौगोलिक स्थिति
वैसे तो गढ़वाल क्षेत्र में नदियों का एक जाल सा बना हुआ है। जो पौराणिक ग्रन्थों में भी उल्लेखित है, यहा कि नदियों को सबसे पवित्र माना गया है। ऐसे में गढ़वाल का यह गांव मलेथा एक ऐसे विषम क्षेत्र मे बसा हुआ था जो था तो दो नदियों के बीच मगर विषम भौगोलिक स्थिति होने के कारण वहा तक नहर बनाना कठिन था। इस गांव के एक ओर डागर नाम की छोटी नदी जो उस वक्त बडी नदी हुआ करती थी(चन्द्रभाग की छोटी सहायक नही) तो दूसरी तरफ पवित्र अलकनंदा नदी बहती है। अलकनंदा इस गांव से उत्तर की ओर को बहती है जहा से नहर बनाना कठिन था क्योंकि गांव नदी से ऊचांई पर स्थित है, मगर दूसरी नदी डागर नदी या चन्द्रभागा जहा से नहर बनाई जा सकती थी परन्तु एक रूकावट थी कि गांव और नदी के बीच एक कठोर छेणाधार नाम का टीला। इसलिए गांव सिचांई के लिए सिर्फ वर्षा के पानी पर ही निर्भर रहता था। किसी किसी साल तो अधिक गर्मी पड़ने पर सूखा को कारण बन जाता था।उत्तराखंड के वीर योद्धा कफ्फू चौहान I अजय पाल और कफ्फू चौहान का युद्ध I Kaffu Chauhan A great warrior Of Uttarakhand
गूल का निर्माण-
यह लगभग 1634 ई0 की घटना मानी जाती है। लोककथाओं में प्रचलित है कि जब वीर माधो सिंह दापा का आक्रमण निष्क्रिय करके आये तो लगातार युद्ध से हुई थकावट से आराम लेने के लिए श्रीनगर राजदरवार से अपने गांव मलेथा (यह भी कहा जाता है कि उनका जन्म यहा नही हुआ था) आये। जहां उनको रोज साधारण खाना खाने को मिलता जिसे देख उन्होने अपनी पत्नी उदीना से इसका कारण पूछा कि क्यू सब्जी या अन्य अनाज का अभाव है जबाब में पत्नी नें उन्हे सूखे खेत दिखाकर कारण बताया कि पानी के अभाव में गांववाले अनाज, फल व सब्जियां उगाने में असमर्थ है। माधों सिंह बैचेन हो गये और उन्होनें निश्चय किया किसी भी तरह मलेथा गांव में पानी लेकर आयेंगे। गांव से कुछ दूर डागर गाड़(नदी) या चन्द्रभागा नदी बहती थी, लेकिन नदी व गांव के बीच में बडा पहाड़ या चट्टान छेणाधार था, जिससे नहर बनना नाममुकिन था। माधों सिंह ने विचार किया कि अगर किसी प्रकार पर्वतीय नदी के मध्य आने वाले पहाड़ के निचले भाग में सुरंग निर्माण की जाये तो नदी का पानी गांव तक पहुंचाया जा सकता हैं। इसके लिए उन्होने उस कठोर चट्टान छेणाधार को काटने का निश्चय किया, जो कि लगभग 150-250 मीटर चैड़ा था। दृढ़ निश्चयी माधो सिंह ने सुरंग खोदने वाले विशेषज्ञों व गांव वालों को साथ लेकर लगभग 2 किलामीटर नहर या गूल बनाने की योजना बनाई और इसके लिए काम शुरु कर दिया। महीनों की मेहनत के बाद सुरंग तैयार हो गया, जो कि 1 मीटर ऊची है। सुरंग के ऊपरी भाग में मजबूत पत्थरों को लोहे की कीलों से इस प्रकार सुदृढ़ता प्रदान की गयी, जिससे कि भविष्य में आने वाली किसी आपदा और भूस्खलन से इसे सुरक्षित रखा जा सके।पुत्र बलिदान की अनोखी कहानी
हर कहानी की तरह ही इस कहानी के भी विभिन्न प्रचलित कथाऐ है एक कथा के अनुसार- माधो सिंह भण्डारी अपने पुत्र से बहुत प्यार करते थे, वे नहीं चाहते थे कि उनका पुत्र गजे सिंह इस निर्माण स्थल पर न आये क्योंकि कटान चट्टान के निचले भाग में किया जा रहा था, चट्टान के टुकड़े गिरने का डरा बना रहता था। एक दिन अचानक गजे सिंह वहाँ पहुंच गया और पहाड़ से बड़ा सा पत्थर लुढ़ककर उसके सिर पर लगा जिससे उसकी मौत हो गयी।पुत्र के बलिदान से आहत गजे सिंह की मा उदीना ने श्राप दिया था कि इस परिवार अब कोई ‘भड़’ (वीर) पैदा नहीं होगा।
जबकि दूसरा प्रचलित स्थानीय कहानियों जो कि ज्यादा मान्य है,के अनुसार माधो सिंह भण्डारी ने अपने पुत्र गजे सिंह तक का इस सुरंग के लिए बलिदान कर दिया था, जो उस समय मे त्याग व सामाजिक भलाई की सर्वोपरिता की पराकाष्ठा थी। कहा जाता है कि, जब सुरंग बनकर तैयार हो गई तब नदी के पानी को ‘कूल’ (सुरंग) से गुजारने के बहुत प्रयास करने के बावजूद भी नदी का पानी ‘कूल’ में नहीं पहुँचाया जा रहा था, जिससे माधो सिंह के साथ ही सारा गाँव बहुत परेशान हो गया। मगर माधोसिंह भंडारी इसके लिए प्रयासरत रहे। एक रात माधोसिंह को स्वप्न मे कुलदेवी आयी, और इस कार्य में बाधा के निवारण के लिए एक उपाय दिया कि यदि माधो सिंह अपने पुत्र का बलिदान देकर उसका सिर उस कूल के मुँह पर रख दे तो नहर मे पानी आ जाऐगा। माधो सिंह अपने पुत्रोंत्र को बहुत प्यार करते थे। मगर जैसा कि उनके खून में ही बलिदान को सर्वोपरि माना गया है, पहले उनके पिता कालू भंडारी, फिर वह। अगले दिन उन्होंने यह बात अपने गाँव के लोगों से बताई कि उन्हें ‘कूल’ से पानी लाने के लिए अपने बेटे गजे सिंह की बलि देनी होगी। गांव वालों के साथ ही माधो सिंह भी पहले इस विचार के लिए तैयार नहीं हुए, लेकिन उनके पुत्र गजे सिंह जिसे लगता था कि यदि उनके बलिदान देने से मलेथा गाँव के लोगों को पानी मिल जाता है है तो बंजर भूमि उपजाऊ हो जाएगी वैसे भी कई लोग भूख के कारण मरते है। गजे सिंह ने आखिरी फैसला लेते हुए अपने पिता माधो सिंह को कहा कि लोकहित के लिए उनको बलिदान देने में कोई आपत्ति नहीं है।
इसके बाद गजे सिंह की बलि दी गई और उनके सिर को ‘कूल’ (सुरंग) के मुँह पर रखा दिया गया। इसके बाद जब नदी के पानी को सुरंग की ओर मोड़कर गुजारा गया तो पानी सुरंग से होते हुए गजे सिंह के सिर को अपने साथ बहा कर ले गया और खेतों में स्थापित कर दिया। इस प्रकार नहर तो बन गई मगर माधो सिंह ने अपने प्रियपुत्र को इसके लिये खो दिया। इस कार्य के बाद माधो सिंह श्रीनगर राजा महीपति शाह के पास चले गए और फिर कभी गाँव लौटकर न आने का फैसला किया।
वर्तमान मलेथा गांव व मलेथा गूल
वर्तमान में मलेथा गाँव का सम्पूर्ण इलाका हरा-भरा और कृषि सम्पदा से पूर्ण है। और माधो सिंह ‘मलेथा’ के त्याग, परिश्रम और दृढ इच्छाशक्ति द्वारा बनाई गई यह नहर आज तक भी गाँव में पानी पहुँचा रही है।
मलेथा की नहर वर्ष 1952 ई0 मे सिंचाई विभाग (नरेन्द्र नगर) के अधीन है। आश्चर्य की बात है 1634 ई0 से 1993 ई0 तक इस नहर को कभी भी मरम्मत की जरूरत नहीं पड़ी। पहली बार 1993 में इसका मरम्मत का कार्य किया गया । उसके बाद वर्ष 2011 मे दूसरी बार मरम्मत किया गया। पिछले 384 सालों से इस क्षेत्र में रोपाई के कार्य में कोई भी व्यवधान नही आया जो कि इसकी मजबूती को बया करता है।
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कौन है भड़ (योद्धा) माधों सिंह भण्डारी-
वीर माधो सिंह भण्डारी का जन्म स्थान को लेकर कुछ मिथ्या है कुछ लोग उन्हे मलेथा में पैदा हुआ मानते है तो कुछ कुछ कहानियों में यह भी कहा गया है कि मलेथा में उनकी बहन का विवाह हुआ था (ससुराल था) , जबकि एक किस्सा यह भी सुनने मे आता है कि मलेथा मे उनकी बहन का नहीं बल्कि उनका ससुराल था। जो भी हो आज मलेथा को भड भण्डारी के नाम से और माधो सिंह भण्डारी को मलेथा मे नाम से जाना जाता है। मलेथा बिना माधो सिंह के नाम से अपूर्ण लगता है पूरे उत्तरखंड के गौरव माधो सिंह भण्डारी का संबंध मलेथा से है। मलेथा गांव उत्तराखंड के बद्रीनाथ राष्ट्रीय राजमार्ग पर देवप्रयाग और श्रीनगर के बीच में बसा हुआ है, जो कि आज के टिहरी गढ़वाल जिल के अंतर्गत आता है। उनका जन्म जहां भी हुआ हो वह एक वहस का विषय इतिहासकारों के लिए हो सकता है हम जैसे पाठकों के लिए इतना भर संतुष्टि देता है कि इस वीर योद्धा का संबंध उत्तराखंड की भूमि से रहा है उनका जन्म् 16वी शताब्दी (वर्ष में सहमति नही या तो 1585 ई0 या 1595 ई0) में एक सूरवीर योद्धा (कालो भंडारी ) के घर हुआ था। उनके पिता का नाम कालो भंडारी था जो स्वयं वीर पुरुष थे, जिनकी उपाधि सोणबाण थी। यह कह सकते हैं कि माधोसिंह की रगों में एक योद्धा का खून ही दौड़ रहा था। माधोसिंह भण्डारी की वीरता और त्याग के कारण सोणबाण कालो भंडारी को नाम या उपलब्धि कही छुप सी गयी है। मै चाहता हू कि भड़ भंडारी के विषय में जानने से पहले उनके प्रेरणóोत और आर्दश उनके पिता के बारे में संक्षित जान लेते है
सोणबाण कालो भण्डारी, माधो सिंह मलेथा में पिता
गढ़वाल के इतिहास में 9वीं सदी से परमार या पंवार वंश का साम्राज्य रहा है। जिसके कुल 62 राजा हुए, और तब पंवार वंश के 44वें राजा मान शाह (1591 ई0- 1611 ई0) का राज था। उसके समय उत्तर की ओर कुमांऊ में पंवार वंशीय राजाओं के तरह सक्षम और समान राज्य विस्तार वाले चंद वंशीय राजाओं का राज था, जिसका प्रतापी राजा रूद्रचंद एवं लक्ष्मी चंद (1597 ई0 से) अल्मोड़ा से राज्य संभाल रहा था, पश्चिम की ओर सिरमौर राजा मौलीचंद तथा दिल्ली की गद्दी पर महान मुगल बादशाह अकबर उसके बाद 1606 ई0 में जहांगीर गद्दी पर बैठा था। राज्य को लगभग सभी ओर से बड़ी चुनौती थी, पड़ोसी राज्यों में उनके लगभग श्रेष्ठ राजाओं का शासन था। ऐसे में सिरमौर के राजा मौलीचंद की तपोवन के आसपास स्थित भूमि जो कि काफी उपजाऊ थी, को लेकर गढ़वाल के राजा मानशाह (1591 ई0- 1611 ई0) से युद्ध जैसी स्थिति बन गयी थी। मौलीचंद को दिल्ली दरबार से सहायता प्राप्त थी। और उत्तर से लक्ष्मीचंद का आक्रमण लगातार बढ़ता जा रहा था। ऐसे मे राजा मानशाह ने कालों भंडारी से मदद मांगी, जिन्होंने अकेले ही दोनों तरफ से हो रहे युद्ध को अपने कुशल नेतृत्व और सैन्य कौशलता से जीत लिया। राजा मानशाह ने इस संकट की घड़ी में उनके योगदान को देखते हुए कालो भंडारी को स्वर्णिम विजेता उपाधि दी थी, जिसे यह के स्थानीय भाषा में सौण बाण कहा जाता है, इसके साथ ही एक बड़ी जागीर भी प्रदान की थी। और तब से उनका नाम सौण बाण कालो भंडारी पड़ गया था।सेनाध्यक्ष माधो सिंह भण्डारी
राजा श्यामशाह की मौत के बाद महीपतिशाह पंवार वंश (1631 ई0- 1634 ई0 तक) के 46वें शासक बने। कहा जाता है कि माधो सिंह भण्डारी बहुत छोटी उम्र से ही श्रीनगर के शाही दरबार में महीपतिशाह की सेना में भर्ती हो गए, मगर बहुत कम समय में अपनी बहादुरी और युद्ध कौशल से राजा महीपति शाह की सेना मे सेनापति बन गये। उस समय राजा के प्रमुख तीन सेनापतियों माधोसिंह भंडारी, लोदी रिखोला और बनवारी दास मे से राजा के विश्वासपात्र सेनापतियों में सबसे प्रमुख स्थान माधोसिंह भंडारी का ही था। आज भी किस्सों में कहा जाता है कि एक सेनापति के रूप में माधो सिंह दुश्मनों के लिए साक्षात यम के दूत बन गए थे। जहां शुरूआती समय में तिब्बत के दापा क्षेत्र से इस राज्य मे होने लगातार हमलों से राज्य असुरक्षित था, सेनापति माधो सिंह भण्डारी के नेतृत्व पंवार वंश ने न केवल इस हमलो को विफल किया बल्कि दापा क्षेत्र का कुछ हिस्सा अपने राज्य में मिलाकर तिब्बत और अपने राज्य के बीच सीमा का निर्धारण भी किया, साथ ही जब राजा को पश्चिम प्रदेश सिरमौर आज का हिमांचल के बिशहर से चुनौती मिल रही थी राजा ने इस अभियान के लिए भी माधो सिंह भंडारी को ही चुना। सेनापति भंडारी ने पूर्व में दापा की तरह पश्चिम में भी एक ऐतिहासिक अभियान किया और न केवल बिशहर जीता बल्कि सतलज तक राज्य की पश्चिमी सीमा का विस्तार किया। कहते है कि राजा महीपति शाह ने उनकी वीरता को देखते हुए उन्हे ‘गर्भ-भंजक’ की उपाधि दी थी।महान माधो सिंह भंडारी अंत
मलेथ गूल बनाने से पहले माधो ंिसह द्वारा किया गया अधूरा कार्य अब भी बचा था। यह काल माधों सिंह के लिए इतिहास लिखने का काल था, पहले उन्होने दापा हमले को पहली बार विफल किया दूसरा मलेथा में पुत्र का बलिदान और गूल निमार्ण और अब समय था, दापा और गढ़वाल की सीमाओं का अंकन। मलेथा गाँव में ‘कूल’ बनाने की घटना के तुरन्त बाद, लाशा नामक दापा राजा ने पंवारो द्वारा विजित प्रदेश के सेनापति बत्र्वाल (भीमसेन) बन्धुओ व अन्य पंवार सेनाओं को मारकर दोबार कब्जा कर लिया। जब माधो सिंह सेना में वापस लौटे तो उन्हें तिब्बत की सेना से लड़ने के लिए भेजा गया, जो उस वक्त दापा क्षेत्र में लगातार हमला कर रही थी। इसी युद्ध मे राजा महीपति शाह ने माधो सिंह की मदद से गढ़वाल और तिब्बत के बीच सीमा तय करने का काम किया था। कुछ विद्वानों का मानना है कि इसी अभियान के दौरान ‘छोटा चीनी’ नामक जगह पर उनकी मृत्यु हो गई। उनकी मौत को लेकर लेखक पंडित हरिकृष्ण रतूड़ी अपनी पुस्तक ‘गढ़वाल का इतिहास’ में लिखते हैं कि तिब्बत के सैनिक माधो सिंह के नाम से भी घबराते थे। मृत्यु से पहले माधो सिंह ने अपने सेना से कहा था कि तिब्बतियों को ये पता नहीं चलने देना कि माधो सिंह मर चुका है, वरना वो फिर से हमला करेंगे। पंडित हरिकृष्ण रतूड़ी जी के अनुसार, माधो सिंह ने कहा था, “लड़ते हुए पीछे होते जाना और मेरे शव को भूनकर और कपड़े में लपेटकर, बक्शे में रखकर, हरिद्वार ले जाना और वहाँ दाह-संस्कार कर देना।”
शिवप्रसाद डबराल ने भी अपनी पुस्तक उत्तराखंड का इतिहास में माना है कि माधो सिंह भण्डारी की मौत ‘छोटा चीनी’ में हुई थी। उनके अनुसार उनकी मौत 1635 में हुई, लेकिन कुछ इतिहासकारों के अनुसार यह युद्ध 1640 के बाद लड़ा गया था और माधोसिंह की मौत इसी के बाद हुई थी।
कुछ इतिहासकार उनकी मृत्यु उनके बिशहर अभियान के समय लगाते है। जबकि अधिकांश इतिहासकारों का मानना है कि माधोसिंह इस युद्ध में नही बल्कि इसके बाद किसी अन्य अभियान के दौरान इसकी मृत्यु हुई थी। क्योंकि उनका तर्क है कि उन्होनें कुछ समय रानी कर्णावती तथा पृथ्वीपतिशाह के समय में भी सेना का नेतृत्व किया था, इसका प्रमाण के तौर पर महारानी कर्णावती का 1640 ई0 का हाट ताम्र-पत्र लेख है जिसमें माधो सिंह भंडारी को साक्षी के तौर वर्णित किया गया है।
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